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                          विषय की पूर्वपीठिका के 
                          रूप में पहले दो बातें कहना चाहूँगा।एक - लौकिक काव्य संदर्भ में गीत की दो अनिवार्य 
                          शर्तें रही हैं - छंद संतुलन और अंत्यानुप्रास (तुकांत)। 
                          आदि कवि वाल्मीकि से लेकर अब तक गीत इसी रूप में पहचाना 
                          जाता है। यह अलग बात है कि इसके पूर्व, वैदिक साहित्य 
                          में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ, जो गीत ही मानी जाती 
                          हैं, उपर्युक्त शर्तों के अधीन नहीं रहीं। वहाँ पर 
                          सांगीतिक लय ही गीत का आधार था और प्रत्येक ऋचा की एक 
                          सुनिश्चित गायन पद्धति निर्धारित थी, जिसे 
                          आरोह-अवरोह-स्वरित के नाम से चिह्नित किया गया था। 
                          अस्तु, वह लय पर आधारित काव्य था। बाद में सनातन गीत की 
                          इस अनिवार्य शर्त 'लय' को साधने के लिए छंद और तुकांत को 
                          साधन बनाया गया जो संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा 
                          तक बखूबी निर्वाह किया जाता रहा।
 
                          लेकिन हिंदी काव्य में, 
                          ख़ासतौर से मात्रिक छंद के रूढ़ प्रयोग और भाषाई जटिलता 
                          के कारण यह छंद रूपी साधन तो बना रहा, किंतु साध्य लय 
                          छूटती गई। एक लंबे समय तक इस विचलन पर किसी का ध्यान 
                          नहीं गया। (मैं तो कहूँगा, आज भी किसी का ध्यान नहीं है) 
                          यही पारंपरिक गीत का दुर्भाग्य था जिसके कारण गीत प्राण 
                          विहीन होकर आकार मात्र रह गया और उसकी इसी कमज़ोरी के 
                          कारण नई कविता ने उस पर आक्रमण कर उसे ग्रसने का प्रयास 
                          किया। तो यह स्पष्ट होता है 
                          कि वैदिक साहित्य से लेकर अद्यतन नवगीत तक लय ही एकमात्र 
                          ज़रूरी शर्त रही है गीत की। और यह भी, कि सांगीतिक 
                          गीतराग तथा मुद्रित गीतपाठ के बीच संबंध जोड़ने वाला 
                          एकमात्र कारक सेतु भी लय ही है। दो - नवगीत में 
                          और कुछ नहीं, केवल एक 'नव' उपसर्ग जुड़ गया है। लेकिन यह 
                          उपसर्ग बहुत व्यापक संदर्भों में जुड़ा हुआ है। इसके कई 
                          आशय परिलक्षित हैं। एक आशय यह कि नवगीत का तौर-तरीका अब 
                          तक रचे गए गीत से बिल्कुल अलग तरह का, नया हो। दूसरा आशय 
                          यह कि गीत की प्रथम बाध्यता-छंद को लय के आधार पर नया 
                          आकार दिया गया हो। तीसरा आशय यह कि अनुप्रास पंक्ति के 
                          अंत में होने की बजाय और कहीं भी हो, अथवा न भी हो। चौथा 
                          आशय यह कि गीत का अंदाज़ेबयाँ यानी शिल्प नए तरह का, 
                          बिल्कुल मौलिक हो। पाँचवाँ आशय यह कि गीत में प्रयुक्त 
                          हिंदी भाषा को आंचलिकता के साथ सविस्तार ग्रहण किया गया 
                          हो अथवा नए निजी शब्द गढ़े गए हों। और छठा आशय यह कि गीत 
                          में ऐसा कुछ कहा गया हो, जो अभी तक गीत विधा का विषय 
                          नहीं बन पाया था, आदि आदि। 
							और अब यहीं से मूल विषय 
                          पर चर्चा करते हैं। 
							पहला सवाल - गीत 
                          में वस्तु की अनिवार्यता क्यों हैं?संगीत की रचनाओं में कथ्य की आवश्यकता नहीं होती। वहाँ 
                          लय चाहिए, राग-रागिनी चाहिए, सधा हुआ कंठ-स्वर चाहिए और 
                          संगत के लिए साज चाहिए। उदाहरण के लिए मियाँ तानसेन की 
                          रचनाएँ अथवा किसी ठुमरी को लीजिए, इन रचनाओं का श्रोता 
                          कभी भी गीत में अर्थ तलाश नहीं करता है बल्कि स्वर के 
                          आरोह-अवरोह में झूमता है। यहाँ हाल ज़्यादातर फ़िल्मी 
                          गीतों का भी है, जैसे 'डम डम डिगा डिगा. . .मौसम भीगा 
                          भीगा. . .'। इसीलिए फ़िल्मी गीतों में गीतकार की अपेक्षा 
                          दस गुना ज़्यादा महत्व संगीतकार का होता है।
 लेकिन काव्यगीत के साथ 
                          ऐसा नहीं है। काव्यगीत एक 'पाठ विधा' है वह छपे हुए रूप 
                          में पाठक के सामने होता है। पाठक उसे बार-बार पढ़ता है, 
                          उसमें अर्थ तलाश करता है, आशय तथा संदेश भी तलाश करता 
                          है। इसलिए काव्यगीत में कथ्य महत्वपूर्ण है। ज़्यादातर 
                          यही कथ्य जनसामान्य में संप्रेषित होता है और उद्धरण का 
                          विषय बनता है। काव्यगीत और संगीत रचना के बीच विभाजक 
                          रेखा भी कथ्य ही है। अब हम वर्तमान हिंदी 
                          नवगीत को लें। यहाँ रचनाकारों का उल्लेख किए बिना मैं 
                          केवल नवगीतों का ज़िक्र करूँगा, कि पिछले वर्षों में 
                          अधिकांश नवगीत मौसम, प्रकृति और वैयक्तिक मनःस्थितियों 
                          पर रचे गए। इनमें से पहले दो कथ्य (यदि उन्हें कथ्य माना 
                          जाए) या तो महाकाव्य के कथा विस्तार में सहयोग देने वाले 
                          पूरक वर्णन हो सकते हैं, या फिर सीधे-सीधे वैदिक ऋचाओं 
                          का अनुगायन। जबकि तीसरा कथ्य उर्दू की रूमानी ग़ज़ल 
                          परंपरा का द्योतक है। यहाँ मैं प्रसंगवश कहना चाहूँगा कि 
                          उर्दू की पारंपरिक ग़ज़ल का एक बड़ा हिस्सा कथ्य विहीन 
                          है। वह केवल बहर, क़ाफ़िया और कहन के बल पर जीवित बना रहा 
                          है। हिंदी नवगीत ने भी संभवतः इसी प्रवृत्ति को ग्रहण कर 
                          लिया, जिसके फलस्वरूप अनेक ऐसी नवगीत रचनाएँ सामने आईं 
                          जिनमें कवि अपने निजी (ज़्यादातर काल्पनिक) अवसाद-आह्लाद 
                          को ऐकांतिक भाव में गाता दिखाई देता है। अब यहाँ थोड़ा रुक कर 
                          विचार करना चाहिए कि ''आज सर्दी बहुत है'' - ''सूरज भी 
                          ठंड से काँप रहा है'' - या फिर ''गर्मी ने भीड़ को 
                          पसीना-पसीना कर दिया'' या फिर ''वसंत ऋतु आ गई'' (यह 
                          वैसी ही है, जैसी हर वर्ष होती है) या फिर आषाढ़ के बादल 
                          घिर आए, धरती उठकर आलिंगन कर रही है'' इत्यादि। इन सभी 
                          सर्वज्ञात यथास्थितियों का वर्णन करके नवगीत आख़िर क्या 
                          संदेश देना चाहता है? दूसरा विचारणीय तथ्य यह कि - ''मैं 
                          आज सुबह से उदास हूँ'', ''रह-रह कर भीतर से पीर उभरती 
                          है'' या फिर- ''खाया सोया खुश हुआ'' इत्यादि प्रसंगों पर 
                          नवगीत की रचना करने का दूरगामी प्रभाव क्या हो सकता है? 
                          बहुत स्पष्ट है कि किसी एक व्यक्ति की ऐकांतिक अनुभूति 
                          में समग्र जन समुदाय ज़्यादा रुचि नहीं ले सकता। हर पाठक गीत रचना में 
                          अपना जीवन और अपना कथ्य तलाश करता है और यह भी कि ''हर 
                          पाठक'' कोई एक व्यक्ति नहीं, एक वर्ग या जाति नहीं, यहाँ 
                          तक कि एक देश भी नहीं, बल्कि यह तो मनुष्य मात्र है, जो 
                          अपने परिवेश से, व्यवस्था से, विकृत कानून से अथवा अन्य 
                          मानवीय अपराधिक प्रवृत्तियों से पीड़ित हुआ त्राण की 
                          तलाश करता है, या फिर सुख के अतिरिक्त साधन की खोज में 
                          काव्य की ओर उन्मुख होता है। फिर भले ही उसे अंधी आस्था 
                          या ज्योतिष- भविष्य फल जैसी अवैज्ञानिक चीज़ों का ही 
                          सहारा क्यों न लेना पड़े। इस सार्वभौम, समकालीन 
                          मानव समुदाय के लिए गीत की भूमिका है। यद्यपि यह सच है 
                          कि कविता कोई आदेश, उपदेश या संदेश नहीं देती है किंतु 
                          वह अपने परोक्ष कथन और पारिवेशिक चित्रण के माध्यम से जन 
                          सामान्य को इस तरह आंदोलित अवश्य करती है कि पाठक स्वयं 
                          अपने रोग का कारण, लक्षण और निदान समझ लेता है। लेकिन यह 
                          होता तभी है, जब गीत में परोक्ष रूप से व्यंजित शिल्प 
                          में, बिंबों, प्रतीकों के माध्यम से ''कुछ'' कहा गया हो। 
                          मौसम से संबद्ध नवगीत रचना के ये दो उदाहरण देखें- 1 - फिर दोपहर लगी अलसाने / नीम तले
 कौए लगे पंख खुजलाने / नीम तले
 सिर पर पसरी छाँव / लगी हटने
 ताल नदी के होंठ / लगे फटने
 हवा लगी अफ़वाह उड़ाने / नीम तले
 2-धूप में जब भी जले हैं पाँव / घर की याद आई
 नीम की छोटी छरहरी छाँव में / डूबा हुआ मन
 द्वार पर आधा झुका बरगद-पिता / माँ-बँधा आँगन
 सफ़र में जब भी दुखे हैं घाव / घर की याद आई
 मैं कहना चाहूँगा कि 
                          पहले गीत में ग्रीष्म का वर्णन भर है किंतु कथ्य 
                          संप्रेषित नहीं है जबकि दूसरे गीत में संतप्त मनुष्य को 
                          अपनी जड़ों की ओर लौटने का परोक्ष संदेश निहित है, इसलिए 
                          वह वस्तु प्रधान गीत है। इसी तरह, व्यक्तिपरक 
                          मनःस्थिति के चित्रण से संबंधित ये दो नवगीत उदाहरण 
                          दृष्टव्य हैं - 1 - व्यथा वेदना का है 
                          आलम / जीवन की अब शाम हो गई विश्वास किया जिस पर भी मैंने / वही ह्रदय से खेला है
 लाखों की चाहत की थी पर / हाथ न आया धेला है
 सफ़र अनवरत / पर न मंज़िल / मौच स्वयं आयाम हो गई।
 2 -चंदन क्षण / डूबे अतीत में / यादें शेष रहीं
 वे दिन जबकि विचारों में / प्रतिपल गुलाब महके
 भावों के पाँखी / गदराई शाखों पर चहके
 वर्तमान ही जिया / हुआ आगत का भान नहीं।
 यहाँ पहला उद्धरण 
                          कथ्यविहीन, केवल वैयक्तिक निराशा का चित्रण है, जबकि 
                          दूसरे उद्धरण में वैयक्तिक अनुभूति की अभिव्यक्ति में 
                          सुखों के संरक्षण हेतु सतत सजग एवं भविष्योन्मुखी रहने 
                          की परोक्ष चेतावनी है, इसीलिए, यह वस्तुयुक्त नवगीत है। दोनों तुलनात्मक गीतों 
                          का प्रभाव एक सामान्य पाठक पर भी ऐसा ही पड़ेगा, कि वह 
                          एक गीत को पढ़ देगा, जबकि दूसरे गीत को पढ़कर उसमें 
                          अंतर्निहित आशय ग्रहण कर लेगा। और यह कि नवगीत रचना या 
                          कोई भी काव्य रचना अंततः सामान्य पाठक के निमित्त ही 
                          होती है - होनी चाहिए। इसलिए पाठगीत में वस्तु की 
                          अनिवार्यता सिद्ध है। नवगीत में वस्तु 
                          विविधता और  विस्तार की भी व्यापक संभावनाएँ हैं। संभवतः 
                          और किसी काव्य विधा में इतने कथ्य प्रकार न समा सकें, 
                          जितने नवगीत में हो सकते हैं। समय था जब गीत को रागात्मक 
                          अभिव्यक्ति और केवल सकारात्मक विचार व्याप्ति तक सीमित 
                          मान लिया गया था। इसी तरह ग़ज़ल रूमानी 
                          ज़मीन पर केंद्रित थी, दोहा नैतिक एवं सामाजिक सूक्तियों 
                          के लिए आरक्षित था, घनाक्षरी ब्रज क्षेत्र की संपत्ति थी 
                          और नई कविता केवल वामपंथी विचारों का पुलिंदा रही। लेकिन 
                          नवगीत अपने आरंभ काल से ही अप्रतिबंधित कथ्य को लेकर चला 
                          है। उसने सौंदर्य तथा प्रेमानुभूति को तो साथ रखा ही, 
                          नैतिक - सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक विषयों 
                          सहित विश्व परिदृश्य को भी अपनी विषय वस्तु बनाया। यहाँ 
                          तक कि जो विषय गीत में वर्जित किए गए थे, ऐसे वीभत्स और 
                          क्रूर संदर्भों सहित विज्ञान और तकनीक को भी अपने अंदर 
                          समेट कर नवगीत ने वस्तु को इतना व्यापक आयाम दिया कि अब 
                          उसे निर्बाध गमन हेतु दसों दिशाएँ खुली हुई हैं। नवगीत के एक असाधारण 
                          कथ्य का अंश देखें -काँधे पर धरे हुए
 खूनी यूरेनियम
 हँसता है तम
 युद्धों के लावा से
 उठते हैं प्रश्न
 और गिरते हैं हम
 और भी ढेरों ऐसे नवगीत 
                          हैं जिनका कथ्य एकदम असाधारण और लीक से हट कर है। 
                          क्यों कि नवगीत अब बालिग हो चुका है। उसकी मूँछें निकल 
                          रही है, अतः उसे अपनी अभिव्यक्ति के विस्तार के लिए सारी 
                          धरती और सारा आकाश चाहिए। 
							और अंततः नवगीत वस्तु 
                          के विन्यास पर एक दृष्टि। समकालीन नई कविता की 
                          तरह, समकालीन नवगीत सपाटबयानी, गद्यात्मक शैली या 
                          रिपोर्ताज पसंद नहीं करता। चूँकि नवगीत हमेशा ही लय से 
                          संपृक्त होता है इस कारण वह गद्यात्मक तो हो ही नहीं 
                          सकता। वह काव्य विधाओं की भाँति अपने कथ्य का विन्यास भी 
                          करता है। इसे आप बुनावट या बनावट भी कह सकते हैं और 
                          कृत्रिमता का दोषारोपण भी कर सकते हैं। किंतु कौन-सी 
                          विधा कृत्रिम नहीं है? - ज़रा सोचिए। वस्तु को ज्यों का 
                          त्यों परोसने का दंभ भरने वाली समकालीन कविता भी आख़िर 
                          रची ही जाती है। यह 'रचना' आख़िर क्या है - वस्तुविन्यास 
                          ही न। कभी प्रतीकों के द्वारा, कभी व्यंजित शब्दों के 
                          माध्यम से और कभी ठेठ आँचलिक टटकी भाषा के सहारे 
                          अत्याधुनिक संदर्भों को कविता में एक नितांत नया रूप 
                          आकार दे दिया जाता है। यह विन्यास ज़रूरी भी है। यह न हो 
                          तो कविता, कविता जैसी नहीं लगेगी। इसी तरह, नवगीत भी 
                          विन्यास के बिना नवगीत तो क्या, गीत ही नहीं लगेगा। विन्यास के लिए नवगीत 
                          के पास बहुत प्रसाधन हैं। सबसे सशक्त और बहुप्रयुक्त 
                          साधन है - बिंब योजना। इस दौर के अधिकांश नवगीत बिंब 
                          केंद्रित हैं और इसी कारण ने आकर्षक तथा रोचक भी हैं। 
                          बिंब न सही, तो प्रतीक योजना है, जो नवगीत के अंग, 
                          उपांगों को आकर्षक बनाती है। इसके अतिरिक्त व्यंजना शैली 
                          है, सांस्कृतिक संदर्भों का रेखांकन है, 
                          पौराणिक-ऐतिहासिक मिथक है, इंगित है, वैज्ञानिक शब्दावली 
                          है, आंचलिक बोलियों का आकर्षण है, कोमल भावों का 
                          उत्प्रेरण है तथा रागात्मकता है। और कुछ भी न हो तो छंद, 
                          लय तथा तुकांत का शाश्वत रूप शृंगार तो है ही। इस प्रकार, हिंदी नवगीत 
                          अपनी अनिवार्य लय की प्राणवत्ता के साथ व्यापक वस्तु 
                          विन्यास का भरपूर उपयोग करके आज साहित्य भूमि में आदमक़द 
                          आकार में खड़ा है अप्रतिहत-अपराजित-अनश्वर। 
							१ मई 
							२००७ |