अल्बर्ट अबेला से कॉफी लेकर
जब साक्षी क्लास में पहुँची तब पहले ग्रुप के प्रेज़ेंटेशन का
अंत होने को था। यानी कॉफ़ी आराम से ख़त्म की जा सकती थी। मैम
आना गवासा की ओर हल्की सी गुड मार्निंग उड़ाकर वह अपने
व्याख्यान को मन ही मन दोहराने लगी। सामने वाले दूसरे छोटे
ऑडिटोरियम में सहर मसूद अपने लैपटॉप को प्रोजेक्टर से जोड़
प्रेजेंटेशन की तैयारी में लग चुका था। साक्षी को देख उसने
राहत की साँस ली।
“सब कुछ ठीक है ना?” साक्षी ने पूछा।
“अकीद।“ सहर मसूद ने थम्सअप वाली मुद्रा बनाई।
मैडम आना पहले वाले प्रेज़ेंटेशन के बाद पाँच मिनट के लिए अपने
ऑफ़िस में जाएँगी। उसके बाद शुरू होगा साक्षी और मसूद का
टेस्ट।
यह परीक्षा बिजनेस मैनेजमेंट पहले वर्ष के छात्रों की थी।
टेस्ट बढ़िया रहा। प्रेजेंटेशन में नए जोड़े गए एस.वी.जी.
ग्राफ़िक्स ज़बरदस्त थे। रातों रात मसूद ने इन्हें फ्रेंच
लाइब्रेरी से उड़ाकर फ्रेंच टैक्स्ट को अंग्रेज़ी में परिवर्तित कर
दिया था और अंत में दिखाई गई एस.डब्लयू.एफ. मूवी तो एकदम जानलेवा थी।
जबरदस्त काम कर डाला था मसूद ने। उस पर साक्षी की साफ़ दमदार
अंग्रेज़ी... विरोधी टीम के तीखे सवाल और साक्षी के सुलझे
जवाब। आना गवासा खुश और जंग फ़तह।
मसूद
और साक्षी का हाई फ़ाइव। खतरे का काम मसूद का और रुवाब डालने
का साक्षी का- यह वे पहले ही तय कर चुके थे। दोनो ने अपना काम
बखूबी किया था। साक्षी को कुछ देर वहाँ रुकना था मसूद का
शुक्रिया अदा करना था कि उसकी मेहनत के कारण परीक्षा बढ़िया
रही। उसका सामान पैक करने में मदद करनी थी, पर न जाने कैसा लगा
कि वह मसूद को अपना तामझाम लपेटता छोड़ बाहर आ गई।
यह अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ़ शारजाह की आम सुबह थी। हर दिन
दुनिया को और छोटा बनाने की कोशिश में लगी, भाषा, खान-पान,
रहन-सहन और हर तरह की सांस्कृतिक सीमाओं को पार करते देश विदेश
के अध्यापक, देश-विदेश के छात्र। कुछ छात्र कैंटीन में खाने का
सामान लेने चले गए। अगले दो ग्रुप अपने प्रेज़ेंटेशन की तैयारी
में लगे और जिनका काम हो गया था वे बाहर बनी बेंचों पर बातचीत
में।
सुबह सफल रही थी। साक्षी ने सोचा वह एक हिन्दी मूवी लेकर घर
लौटेगी।
धीरे धीरे सीढियाँ उतर कर वह पार्किंग तक आई। अचानक उसे याद
आया कि आज विभाग की पार्किंग में जगह नहीं मिली थी। शायद थर्ड
इयर वालों का कोई फंक्शन है इसलिए पार्किग पूरी भरी थी। उसे
कार दूर पार्क करनी पड़ी थी। दूसरी पार्किंग तक उसे पैदल जाना
पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने अपनी जैगुआर स्टार्ट की और
यूनिवर्सिटी के गेट से बाहर निकल आई।
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जैगुआर साक्षी की उड़ान है। उड़ान गति की, उड़ान सपनों की,
उड़ान जिंदगी की। उड़ान साक्षी की तबीयत में है। ऐसी उड़ान जो
सबको पीछे छोड़ दे, जो दुनिया से अलग हो, जहाँ उसके सिवा कोई न
पहुँच सके, सिर्फ़ वह हो और हो उड़ान.... तभी तो पचास घंटों के
टेस्ट को तीस घंटों में पास कर उसने एक महीने के भीतर लाइसेंस
अपने कब्ज़े में कर लिया था। यह तो संदेशमल सर्राफ़ की
बुद्धिमानी थी कि उन्होंने तीन महीनों तक कार साक्षी के हाथों
में नहीं दी। अगर लाइसेंस लेने के तीन महीनों के अंदर
एक्सिडेंट हो जाए तो टेस्ट पास करने की प्रक्रिया फिर से
दोहरानी होती है। लोग कहते हैं इमारात में कारें सस्ती हैं
लाइसेंस मँहगे। दुबारा ड्राइविंग टेस्ट पास करने का मतलब था
पाँच हज़ार दिरहम का खर्च एक बार और। सर्राफ़ साहब रईस थे पर
इतने भी नहीं कि अपने तीन बच्चों को जी भर कर नालायक बनाएँ। वे
बच्चों को लायक बनाना जानते थे और दोनों बड़े बेटों को अमेरिका
में बढ़िया जमा चुके थे। तीन महीने बाद उन्होंने अपनी हैसियत
के मुताबिक सबसे शानदार गाड़ी साक्षी को लाकर दी। साक्षी की
उड़ान को लंबी छलांग मिली, जैगुआर की आक्रामक छलांग।
तो इस समय साक्षी के हाथों में जैगुआर की लगाम थी और थी बिलकुल
खाली चौड़ी सड़क। परीक्षा की जकड़न से उसका दिमाग मुक्त हो
चुका था। सुबह जल्दी में कुछ खाया नहीं गया था। उसने डैशबोर्ड
की दराज़ में से सेल निकालकर घर का नंबर मिलाया,
“माँ भूख लगी है राजमा चावल बनवा दो।“
“टेस्ट कैसा रहा?”
“एकदम सुपर्ब।“
माँ ने १२५ किलोमीटर से ऊपर वाली बीप्स सुनीं।
“ड्राइव करते हुए बात कर रही है?”
“यहाँ कोई कैमरा नहीं माँ मैं बंद करती हूँ...” और साक्षी ने
फोन बंद कर दिया। साक्षी को ठीक से मालूम है कि कहाँ कैमरे हैं
कहाँ तेज स्पीड करने से फाइन हो सकता है और कहाँ नहीं। इसका
ठीक से ख्याल रखना ज़रूरी है क्यों कि फाइन तो पापा भर देंगे
लेकिन चुपचाप नहीं, उसे धमकाने और उसकी परेड लेने के बाद।
कोई तीन सौ गज़ के बाद यह सड़क हाई वे से मिलती है। दाहिनी ओर
लगा नीला ट्रैफ़िक बोर्ड हाईवे के आगामी मोड़ का संकेत दे चुका
था। साक्षी ने ठीक से दोनो तरफ देखा और कार हाईवे पर मोड़ दी।
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घर पहुँचकर साक्षी परेशान हो गई। वह घंटी बजाए जा रही थी पर
माँ दरवाज़ा नहीं खोल रही थीं। तंग आकर उसने दरवाज़ा खटखटाना
शुरू कर दिया, पर कोई उत्तर नहीं। उसने सेल निकाला और फ्लैट की
लैंडलाइन पर मिलाया। देर तक घंटी जाती रही पर फोन किसी ने नहीं
उठाया। इस समय तो पापा भी लंच के लिए घर पर ही होंगे, साक्षी
ने सोचा, अभी तो उसकी माँ से बात हुई थी अचानक हुआ क्या?
इक्कीस मंज़िलों वाली इस इमारत के सबसे ऊपरी माले पर पेन्ट
हाउस वाले दो ही फ़्लैट हैं। एक संदेशमल सर्राफ़ का और दूसरा
जिस पर डॉ. वलेरी कोलोतोव और डॉ. यूलिया कोलोतोव का बोर्ड लगा
है। बूढ़े रूसी दम्पत्ति जो बरसों से यहाँ जुलेखा हास्पिटल में
सर्जन हैं। उनका ज्यादातर समय हस्पताल में ही कटता है। घर पर
दिनभर सन्नाटा छाया रहता है। हाँ उनके घर की चाभी बिल्डिंग के
सफ़ाई वाले लड़कों के पास रहती है वे दोपहर में सफ़ाई के लिए
एक आध घंटे को आता हैं। तभी फ्लैट का दरवाज़ा खुला और झाड़ू
पोंछे की मशीन लिए अली गुनगुनाता हुआ बाहर निकला।
अरे अली, माँ पापा कहीं गए हैं क्या भीतर से कोई दरवाज़ा नहीं
खोल रहा।
मेम साब तो भीतर ही हैं मैडम, मैं आधे घंटे पहले राजमा का
पैकेट देकर गया गया।
पता नहीं क्या हुआ १५ मिनट से घंटी बजा रही हूँ खटखटाया भी पर
कोई जवाब नहीं। फोन भी किया पर कोई उठा नहीं रहा।
“आप मेमसाब से मिलना चाहती हैं या साक्षी मैडम से?”
“क्या बकवास कर रहा है मुझे नहीं पहचानता मैं साक्षी हूँ ना?”
“आपका नाम भी साक्षी है? वैसे साब मेमसाब की बेटी का नाम भी
साक्षी है वो सुबह यूनिवर्सिटी गई थीं। अभी तक आई नहीं हैं।
मुझे लगा कि आप उनकी सहेली होंगी इसलिए कहा।“
“कितने दिन से काम कर रहा है यहाँ पे?”
“दो साल से मैम।“
“अच्छा तो दो साल से रोज़ देखा गया चेहरा सुबह यूनिवर्सिटी के
लिए निकली और दोपहर तक भूल गया। दिखाई नहीं देता कि मैं साक्षी
हूँ?”
अली कुछ सहम सा गया उसने साक्षी को ऊपर से नीचे तक देखा और मन
ही मन बुदबुदाया आप साक्षी तो नहीं हैं। फिर थोड़ा ज़ोर से
बोला... “मैं अभी घंटी बजा देता हूँ। साब मेमसाब अंदर ही
होंगे।“
अली की एक ही घंटी में दरवाज़ा खुल गया।
पापा थे।
साक्षी कुछ रुआँसी कुछ गुस्से में बिना जवाब दिए ड्राइंगरूम
में घुसी और डाइनिंग टेबल पार करती हुई सोफ़े पर ढह गई। कमाल
करते है पापा आप घर में थे, मैं आधे घंटे से दरवाज़ा पीट रही
हूँ घंटी बजा रही हूँ फोन कर रही हूँ आप जवाब नहीं देते। घबरवा
दिया आप लोगों ने तो।
पापा के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। एक आश्चर्य सा
भाव... वे बोले .. “मुझे पापा कह रही हो, उम्र में मैं
तुम्हारा पापा जैसा ही हूँ लेकिन बेटी तुम किसके घर जाना चाहती
हो, किससे मिलने आई हो?”
“मज़ाक मत करो पापा अपने घर आई हूँ आप से ही बात कर रही हूँ
पापा मेरा आज का टेस्ट बहुत अच्छा रहा।“
“अच्छी बात है यह तो। तुम्हारे माता पिता क्या इसी बिल्डिंग
में रहते हैं संदेशमल सर्राफ़ ने आवाज़ में नरमी लाते हुए
पूछा।“
“कैसी बातें कर रहे हैं पापा आप मुझे पहचानते नहीं मैं साक्षी
हूँ। आपकी बेटी।“ उसकी आवाज़ रुँध गई और आगे उससे कुछ भी बोला
नहीं गया।
“अरे.., कालिन्दी देखो तो कौन आया है…, संदेशमल सर्राफ़ अपनी
पत्नी को आवाज़ देते हुए भीतर की ओर गए, “किसी भले घर की लड़की
लगती है। अजीब सी बातें कर रही है। शायद इसकी मानसिक हालत ठीक
नहीं। पता नहीं कहाँ जाना चाहती थी और कहाँ चली आई।“
“यह नहीं बताया कहाँ से आई है?”
“नहीं, खुद को साक्षी बता रही है....मुझे पापा बुला रही है।“
“साक्षी का नाम कैसे जानती है? उसकी कोई सहेली तो नहीं हैं
शायद पहले कभी आई हो यहाँ?”
“मुझे तो याद नहीं पड़ता तुम्हीं देखो बात कर के...”
हल्की आवाज़ के बावजूद ड्राइगरूम में साक्षी ने सबकुछ साफ़
सुना। वह थकी हुई थी। उसे भूख लग रही थी। और इस तरह के व्यवहार
से वह बिलकुल टूट-सी गई थी।
हे भगवान! ये क्या मुसीबत है उसे लगा कि वह तुरंत भीतर जाए और
अपने कमरे में बिस्तर पर गिर कर ज़ोर ज़ोर से रोए। वह उठी और
भीतर अपने कमरे की ओर बढ़ी....
“कहाँ जा रही हो बेटी?” माँ ने बाहर आते हुए उसे बीच में ही
रोका।
“मैं अपने कमरे में जाना चाहती हूँ माँ, मुझे परेशान मत करो।“
“ओह यह तो सचमुच परेशान है,” माँ ने झाड़न में हाथ पोंछते हुए
कहा।
“कोई बड़ी मुसीबत गले न पड़ जाय।“ पापा दोनो हाथों को मलते
खड़े रहे।
“ठीक है वह साक्षी का कमरा है लेकिन अभी साक्षी घर पर नहीं
है।“ माँ ने धीमी आवाज़ में कहा।
हद हो गई! अब तो सच में हद हो गई!! साक्षी का दिल बुरी तरह
दुःख गया। आँखें छलक पड़ी। वह क्या करे, आखिर सबको हुआ क्या
है? क्या बात है... क्या हो सकता है... वह बुरी तरह घबरा गई।
कहीं पापा को वह बात तो पता नहीं चल गई, वही बात जब पिछले
हफ़्ते सुबह की क्लास बंक कर के दिनभर के लिए जिमि के साथ
उम-अल-क्वैन भाग गई थी। बस ऐसे ही टाइम पास... कोई गंभीर
रिश्ता नहीं जिमि से... लेकिन चैट करते और मोबाइल पर संदेश दे
देकर ऐसा माहौल बना कि एक पूरा दिन उम-अल-क्वैन में जिमि के
नाम हो गया।
पापा ने उसके लिए लड़का देख रखा है वह जानती है, लड़का उसकी
पसंद का भी है। पढ़ा-लिखा सुंदर स्मार्ट दिखनेवाला। फिर...फिर
क्यों भाग गई थी जिमि के साथ? शिट्, क्यों किया उसने यह सब?
मालूम नहीं... कुछ नहीं मालूम साक्षी को। मालूम होता तो वह ऐसा
क्यों करती? पापा जान ले लेंगे उसकी। पर पापा गुस्सा नहीं दिखा
रहे। क्या चुपचाप बदला ले रहे हैं? पापा का यह रवैया उसे डिसओन
करने का तो नहीं? अगर ऐसा हुआ तो क्या करेगी वह? कहाँ जाएगी?
बिना बात किए ऐसा तगड़ा कदम उठा लिया है पापा ने?
उसका दिल बुरी तरह घबरा गया। किसी तरह उसने अपने को संतुलित
किया। नहीं...नहीं ऐसा नहीं हो सकता पापा कुछ भी कर सकते हैं
पर माँ, माँ के स्वभाव में तो ऐसा बनावटीपन नहीं। वे नाटक कर
ही नहीं सकतीं उनके चेहरे पर तो गुस्सा एकदम इकट्ठा होता है और
फट पड़ता है। क्या हो गया है सबको? साक्षी का चेहरा पूरी तरह
आँसुओं में डूब चुका था पर माँ और पापा उसे संभालने की बजाय
हैरत और परेशानी से भरे खड़े थे। स्तब्ध, बेबस।
“आप अपनी बेटी को नहीं पहचानते? मैं साक्षी हूँ...साक्षी…”
“तुम साक्षी नहीं हो।“
“मैं साक्षी हूँ, मैं साक्षी हूँ।“ वह जोर से चिल्लाई और उसने
माँ की और देखा।
“नहीं नहीं- माँ कमजोर से स्वर में बोलीं और अनजान ही बनी रही-
“मैंने अभी अभी आपको फोन किया था कार में से, मुझे भूख लगी है
राजमा चावल बना दो और आपने मेरी कार की स्पीड वाली बीप्स सुनकर
मुझे झिड़का था।“
“तुम उस समय साक्षी की कार में थीं?” माँ ने संदेह से पूछा
पापा धीरे से उठे और दूर वाले सोफे पर बैठ गए उनके चेहरे पर
हल्का तनाव था, “बोलो क्या चाहती हो यहाँ क्यों आई हो?”
“ओह, मुझसे किसी ब्लैकमेलर की तरह बात कर रहे हैं। मैं यहाँ
क्यों आई हूँ? यह मेरा घर है। मैं कहाँ जाऊँ?”
“यह तुम्हारा घर नहीं है, कालिंदी ने धीरे से कहा, “थोड़ी देर
में शाम हो जाएगी। याद करो, अपने घर का पता बताओ हम घर तक
पहुँचाने में तुम्हारी मदद करेंगे। ज्यादा अँधेरे में सड़क पर
अकेले घूमना भी ठीक नहीं है। इसलिए अगर जाना चाहती हो तो अभी
चली जाओ अभी बाहर ज्यादा अँधेरा नहीं है। सोच लो...”
“माँ मैं कहाँ जाऊँगी आपके और पापा के सिवा मेरा कोई नहीं।“
साक्षी कुछ बोल नहीं सकी उसका गला अवरुद्ध हो गया और वह हाथों
से चेहरा छुपाकर रो पड़ी। कालिंदी रसोई में जाकर काम करने लगीं
और पापा ने पास रखा अख़बार उठा लिया। किसी ने साक्षी की ओर
ध्यान न दिया। रात घिरती देख माँ के चेहरे पर परेशानी की
लकीरें उभर आयी थीं। उन्हें चिंतित देख साक्षी ने अपने आँसू
पोंछ लिए। वह धीरे से उठी, थकी हुई चाल से आगे बढ़ते हुए
दरवाज़ा खोला और गैलरी में आ गई। लिफ्ट का बटन दबाया। नीचे की
तरफ जाते हुए लिफ्ट एक जगह रुकी। चौदहवें माले के शिबू ने
उसमें प्रवेश किया। तीसरे दर्जे में पढ़ने वाले शिबु ने उसे
किसी अपरिचित व्यक्ति की तरह देखा। शिबु जो उसे दीदी कहता न
थकता था चौदहवी से पहली मंज़िल तक बिलकुल चुप खड़ा रहा। साक्षी
को लगा वह सचमुच साक्षी नहीं है उसके पैर काँपने लगे। बिल्डिंग
की पहली मंजिल में बने सुपर मार्केट के सामने से गुजरते हुए,
जहाँ से वह रोज सामान खरीदती थी, किसी ने उसे नहीं पहचाना।
वह समंदर के किनारे बढ़ चली। सर्दियों के प्रवासी सफेद पंछी
हल्के प्रकाश में अठखेलियाँ कर रहे थे। वह एक बेंच पर बैठ गई।
हर चीज से निर्लिप्त, हर चीज़ से...दीन दुनिया से... परिवार से
... शहर से पृथ्वी से...
अचानक उसे लगा वह बहुत हल्की हो आई है हवा से भी हल्की...दिल
में कोई दर्द नहीं...आँखों में कोई आँसू नहीं, मन में कोई
विचलन नहीं। जैसे वह एक पतंग है, जैसे उसकी डोर अब छूट गई
है... वह हवा में उड़ने लगी है सफेद बगुलों के बड़े से झुंड के
साथ आसमान में बिलकुल उन्हीं की तरह हवा में तैरती... किसी एक
बगुले ने गरदन मोड़कर उसकी ओर देखा। जैसे वह पहचानता हो उसे...
ओह सब पहचानते है उसे... सब। कहाँ चली आई वह... और जाने कहाँ
उड़ी जा रही है वह उड़ती रही, उड़ती ही रही दूर... पता नहीं
कितनी देर... पता नहीं कितनी दूर...पता नहीं किस ओर...
और दूर...और दूर... और दूर...
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अगले दिन गल्फ न्यूज के स्थानीय समाचारों वाले पन्ने पर खबर
छपी, कल दोपहर अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ़ शारजाह से मुख्य मार्ग
से मिलने वाले मोड़
पर एक कार और ट्रक की टक्कर में कार बुरी तरह
क्षतिग्रस्त हो गई।
इमारात की सड़कों पर कोई दुर्घटना हो जाए तो उसे निबटाते पुलिस
को १० मिनट से अधिक नहीं लगते। एंबुलेंस आते, सड़क की सफाई
करते और इंश्योरेंस का कागज बनाने का काम मिनटों में पूरा हो
जाता है।
सुबह की परीक्षा के बाद अपने उपकरण समेटकर सहर मसूद जब
यूनिवर्सिटी से घर की ओर निकला था तब मुख्यमार्ग पर उसे साक्षी
की जैगुआर दुर्घटनाग्रस्त दिखी थी। एक मिनट को धक सा हुआ वह।
एक लड़की स्ट्रेचर पर थी। स्ट्रेचर एंबुलेंस में रखा जा रहा
था। वह जीवित थी या मृत?
ओह दो मिनट में ही तो पार हो गया था वह उस दृश्य से। ऐसे
अवसरों पर जब पुलिस वहाँ हो सामान्य जनों का कार रोकना मना है,
जब तक पुलिस स्वयं मदद के लिये उन्हें न रोके। उसे साक्षी की
कार का नंबर याद नहीं था फिर भी उसने पीले टेप से घिरे उस
दृश्य को कार के हर शीशे से देर तक देखने की कोशिश की थी, उसे
लड़की का चेहरा भी दिखाई दिया था पर चेहरा पहचाना नहीं जाता
था। उसने बार बार कोशिश की थी पर वह सफल न हो सका।
साक्षी से उसकी पहचान पुरानी नहीं, विश्वविद्यालय में कुछ ही
महीने तो हुए थे उन दोनो को प्रवेश लिये। अरबी और भारतीय छात्र
आपस में अधिक बातचीत नहीं करते और यह परीक्षा के ग्रुप बने तो
अभी एक ही हफ्ता हुआ था।
विभाग में शोक सभा हुई आना गवासा का गला रुँधा, अच्छे अध्यापक
अच्छे विद्यार्थियों को सफलता की ऊँचाइयाँ छूते देखना चाहते
हैं, उन्हें इस प्रकार विदा देना नहीं। साथियों की आँखें नम
हुयीं, लेकिन सहर मसूद फूटफूट कर रोया, कैंटीन में साथी उसे
देर तक दिलासा देते रहे। |