उन दिनों यहाँ ज्यादा भारतीय नहीं थे। देरा दुबई के
एक पुराने फ्लैट को, जहाँ उन्होंने अपने जीवन की
शुरूआत की थी, छोड़े भी लंबा
अरसा हो गया। इस बीच वे एक बेटे और फिर एक बेटी की माँ बनीं। बेटा दूसरे
दर्जे में था तबसे ही वे शारजाह के इस बंगले में हैं। बच्चे इसी लॉन पर
खेलकूद कर बड़े हुए। यहीं बर्थडे पार्टियाँ हुईं। फिर स्कूल ख़त्म हुए। एक
ओर समय पंख लगा कर उड़ गया और दूसरी ओर बच्चे।
अब उनके दो साथी हैं एक मोबाइल फोन और दूसरा वॉकी टाकी जो
लैंड लाइन के नंबर से जुड़ा है। दोपहर का ज्यादातर समय उनका इसी लॉन में रखी
आराम कुर्सी पर लेटे-बैठे बीतता रहा है। बेटा यू एस ए से या बेटी
ऑस्ट्रेलिया से इस फोन के ज़रिए उन्हें मिल जाते हैं। दोनों को उनका समय
मालूम है कि मॉम इस समय बात करने के लिए फ्री होती हैं। कभी भारत से
रिश्तेदारों के फोन,
कभी स्थानीय
मिलने जुलने वालों के। ख़ाली समय मिलता है तो दो पल आँखें बंद कर वे यहीं
ऊँघ लेती है।
पहले कभी-कभी कढ़ाई-बुनाई भी हो जाती थी पर पिछले कुछ दिनों
से वे यहाँ की शांति में आराम से बैठ कर कोई किताब पढ़ती रहती हैं। खजूर के
तीन पेड़ों की छाँह में आराम कुर्सी के साथ एक मेज़ भी है जहाँ दोनो
फोन, किताब,
जूस का गिलास या कॉफी का मग नीलम विरमानी का साथ निभाते हैं।
आज भी विरमानी साहब के जाने के बाद नीलम विरमानी पक्षियों
के लिए बने बर्ड बाथ के सामने खजूर के पेड़ों की इस छाँह में आराम कुर्सी
पर आ बैठीं। कॉफी का मग मेज़ पर रखा और गले में सोने की चेन से लटका चश्मा
खोल कर पहनने लगीं। कुछ ही दिन पहले नया उपन्यास पढ़ना शुरू किया है-
कमलेश्वर का `सुबह
द़ोपहर श़ाम'।
उपन्यास भारत में स्वतंत्रता से पहले की स्थितियों पर आधारित है पर न जाने
कैसे वह सागर पार पाँच छे दशक बाद के नीलम विरमानी के जीवन में घुलता जा
रहा है।
घर में सन्नाटा है पर ऊँची चारदीवारी के बाहर सर्दियों में
रौनक रहती है। इमारात की सर्दियाँ यानि मुहल्ले की सड़कों पर बच्चों के
हंगामे वाले दिन- सारे दिन फुटबॉल। फुटबॉल- जो यहाँ का राष्ट्रीय खेल है।
धाड़ धाड़ धाड़ धुआँधार
आवाज़ें,
खड़िया से खींचे गए गोल
के निशानों के गिर्द दौड़ते हुए बच्चे, `गोल'
होने की खुशनुमा चीखें,
भाग-दौड़,
बीच-बीच में कोई ऊँचा
और बेसुरा गीत, हँसी के झरने
और विवाद के तूफ़ान।
किसी कार का हार्न बजता है तो कुछ पलों के लिए खेल रुक जाता
है। खेल के रुकते ही आवाज़े भी थम जाती हैं। कार के निकल जाने के बाद
हल्की बातों से सिलसिला शुरू होता है और खेल के तेज़ी पकड़ते ही बढते हुए
उत्साह के साथ शोर और बातचीत फिर तेज़ हो जाते है। फिर शुरू हो जाती है भाग
दौड़ और फिर वही धाड़ धाड़ की आवाज़ें।
घर की चारदीवारी से यह सबकुछ दिखता नहीं सिर्फ सुनाई देता
है। देश के रिवाज़ के अनुसार इस मुहल्ले की बाहरी दीवारें छे सात फुट ऊँची
हैं। दुमंजिले घर भी कम ही हैं। सो बाहर से भीतर और भीतर से बाहर की दुनिया
पर पर्दा पड़ा रहता है। दीवारों पर जड़े हैं बड़े़-बड़े दरवाज़े,
लगभग एक से। ऐसी ऊँची
दीवारों पर ऐसे दरवाज़े देख शुरू शुरू में उन्हें अलीबाबा और चालीस चोर
वाली कहानी याद आ जाती थी। जहाँ चोर, अलीबाबा
के घर को पहचानने के लिए उसके दरवाज़े पर एक निशान बना देता है और फिर
मरजीना ख़तरे को भाँप कुछ और घरों के दरवाज़ों पर भी ऐसे ही निशान बना देती
है। यहाँ भी अलग अलग तरह के कुछ निशान दरवाज़ों पर हैं पर चोर या मरजीना के
बनाए हुए नहीं बल्कि अलग-अलग सरकारी विभागों के।
शोरगुल फिर तेज़ हो गया है। यों तो शोरगुल रोज़ की बात है
पर अक्सर यह उनकी शांति में खलल बन जाता है। आज भी कुछ ऐसा ही लगता है।
बच्चे ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहे हैं। लगता है दोनों टीमों में लड़ाई हो गई
है। बच्चे अरबी बोल रहे हैं। भाषा समझ में नहीं आ रही है लेकिन आवेग समझा
जा सकता है। नीलम विरमानी ने बेडनुमा आरामकुर्सी पर करवट ली,
उपन्यास
को मेज़ पर खिसका कर हाथ के उस हिस्से को चुन्नी से ढँक लिया जो छाँह से
बाहर हो गया था और शोर को नज़रंदाज करते हुए सोने का उपक्रम करने लगीं।
आँख मूँदे दस मिनट भी न हुए थे कि फुटबाल दीवार फलांग उनके
पास ही आ गिरा। शोर रूक कर बातों में सिमट गया। धीरे धीरे नज़दीक आया और
फिर उन्हीं के दरवाजे के पास आकर ठहर गया। तेज़ घंटी भीतर से बाहर तक बज
उठी। वे नींद का मोह त्यागकर उठीं और कदम साधते हुए लॉन के पार क्यारी में
पड़े फुटबॉल तक पहुँचीं। तब तक घंटी न जाने कितनी बार बज चुकी थी। जैसे ही
उन्होंने दरवाज़ा खोला बच्चों के चेहरों पर रौनक फूट पड़ी। शुकरन (धन्यवाद)
के एक झटकेदार उच्चार के साथ टीम फुटबॉल को ले उड़ी।
नीलम विरमानी ने दरवाज़ा बंद किया। भीतर तक गईं, एक गिलास
पानी पिया और फिर से बाहर आकर आराम कुर्सी पर बैठ उपन्यास खोल लिया।
उपन्यास में भी मन ठीक से रमा नहीं।
बच्चों का इस तरह सड़क पर खेलना उन्हें हमेशा से नागवार
गुज़रता है। हिंदुस्तान में उनके बचपन में घर के सामने जब क्रिकेट चलता था
तब भी। मालूम नहीं ये दिनभर खेलने वाले बच्चे स्कूल कब जाते होंगे। अपने
बच्चों को उन्होंने कभी अरबी बच्चों के साथ नहीं खेलने दिया। वे अच्छी तरह
जानती थीं कि हिंदुस्तानी बच्चों को पढ़ लिखकर होशियार बनना होता है। रईस
अरबियों के बिगड़ैल बच्चों की तरह बरबाद होकर जीवन बिताना हिंदुस्तानी
परिवार में संभव नहीं।
जब वे बारहवीं में थीं न जाने अपने मुहल्ले के कितने बच्चों
का सारे दिन का क्रिकेट बंद करवा उन्हें पढ़ने बिठाया होगा। मुहल्ले की
दीदी हुआ करती थीं वे। पर यहाँ किससे क्या कह सकती हैं?
यह देश अपना थोड़ी है।
फिर मुहल्ले के इस खंड में कोई बड़ा पार्क नहीं है जहाँ बच्चे फुटबाल खेल
सकें। बीच में एक जगह ज़मीन का भीमकाय टुकड़ा खाली पड़ा है पर वहाँ इधर-उधर
के मकानों से मरम्मत के समय फेंके गए मलबे के ढेर हैं,
नुकीली झाड़ियाँ हैं,
फुटपाथ के उखड़े हुए पत्थर हैं और दो पुरानी कारें जो न जाने कितने सालों
से पड़ी कूड़ा बनने की प्रक्रिया से गुज़र रही हैं।
तो बच्चे बेचारे कहाँ खेलें,
हर गली में जमे रहते
हैं। यहाँ पर मोटर गाड़ियों की विशेष आवाजाही जो नहीं। फुटबॉल लोहे के
दरवाज़ों से टकराती है तो ज़ोर की `धड़ांग'
होती है,
कारों के शीशे टूटते
हैं, बच्चों की मांओं में कहासुनी
होती है और तेज़ वाहनों के संतुलन भी बिड़ते हैं पर यहाँ की सड़कों पर
फुटबॉल जारी रहता है। सब कुछ समझते-बूझते हुए भी वे अक्सर खीझ जाती हैं-
आखिर बच्चे फुटबाल क्यों खेलते हैं?
ज़ोर की घंटी बजी तो नीलम विरमानी का ध्यान टूटा। फुटबॉल फिर
से अंदर आ गया था। दरवाज़े के बाहर बच्चों का झुंड तेज़ साँसों के साथ खड़ा
था। घंटी की आवाज़ गूँज उठी थी। नीलम धीरे से उठीं पहले लॉन के दूसरे कोने
पर पड़े फुटबॉल को उठाया,
लौट कर
दरवाज़े तक आईं और कुंडी खोली।
ठंडे मौसम और गुनगुनी धूप के बावजूद गोरे अरबी बच्चों के
चेहरे लाल हो गए थे। वे पसीने तरबतर थे और अभी तक हाँफ रहे थे। फुटबॉल लेने
के लिए जो लड़के दरवाज़े पर खड़े थे वे कम उम्र के मालूम होते थे लगभग दस
साल के। बड़े लड़के शायद शर्म या संकोच के कारण दूर खड़े उनकी ओर देख रहे
थे। छोटे लड़कों के साथ तीन चार साल की एक लड़की भी थी जिसके बाल घुँघराले
थे। वह हाथ में लॉलीपॉप लिए हुए लगातार चूस रही थी। किसी खिलाड़ी की छोटी
बहन होगी मिसेज़ विरमानी ने सोचा। उन्होंने फुटबॉल दूर उछाल दिया। बड़े
लड़कों ने उसे फुर्ती से लपक लिया और छोटे बच्चे भी उसी ओर दौड़ गए। हाँ
पीछे मुड़कर `शुकरन
हबीबी'
कहना वे नहीं भूले। मिसेज़ विरमानी ने मुस्कुरा कर दरवाज़ा
बंद कर लिया।
हबीबी अरबी दुनिया का ऐसा शब्द है जैसा दुनिया की किसी और
भाषा में शायद ही हो। इसमें प्रेम,
आदर,
सौजन्य और भाईचारे का ऐसा समावेश है कि बिलकुल अपरिचित को भी इस शब्द से
संबोधित किया जा सकता है और नितांत अपने को भी। बड़े, बच्चों को प्यार से
हबीबी कहते हैं और बच्चे, बड़ों को आदर से। सो इस नन्हें से आदर से अभिभूत
वे जैसे ही आराम कुर्सी पर बैठीं `गोल'-
`गोल'
की तेज खुशनुमा आवाज़
हवा में तैर गई। विजय का उल्लास ऐसा होता है कि वह आसपास के सारे वातावरण
में खुशी बिखेर देता है। नीलम विरमानी के चेहर पर भी मुस्कान तैर गई। खेल
दुबारा जमने लगा था। उपन्यास में फिर उनका दिल न लगा। उन्होंने खुले पड़े
``सुबह
द़ोपहर शाम'' को बंद किया और
भीतर आ गईं। शाम की चाय का समय हो आया था।
चाय पीकर मिसेज़ विरमानी इस मुहल्ले का एक चक्कर मार कर आती
हैं। घड़ी देखकर आधा घंटा टहलती हैं वे। घर के सामने से बायीं ओर चलना शुरू
करती हैं। जहाँ सड़क ख़तम होती है वहाँ से दायीं ओर। सब सड़के समांतर है या
फिर समांतर सड़कों को बिलकुल सीधा काटती हैं। `टिक
टैक टो'
की रेखाओं की तरह। कुछ दूर आगे दाहिने मोड़ पर एक सुपर मार्केट है जहाँ
से वे जूस, दूध या सब्ज़ी
जैसी छोटी मोटी चीज़े लेती आती हैं।
सुपर मार्केट के सामने खाली पड़ा वह मैदान,
जिसपर पिछले बीस पचीस
सालों से किसी की नज़र नहीं गई थी, जो उपेक्षा के मलबों से पटा
पड़ा था, जिस पर दो पुरानी कारें अपने
अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा कर रही थीं जहाँ `दम
दम'
की झाड़ियाँ बिना पानी के भी
अपना अस्तित्व बनाए हुए थीं जिसे कुछ अनाम पेड़ और कटीले पौधे सदा के लिए
अपना घर समझ बैठे थे, नहला धुला कर
तैयार किए गए गाँव के बच्चे की तरह साफ-सुथरा शर्माता हुआ खड़ा था।
बड़े पेड़ों का नामोनिशान मिट गया था। झाड़ियाँ बेघर हो
चुकी थीं। मलबे की पूरी तरह सफाई हो गई थी। कारों को सदगति मिल चुकी थी और
ज़मीन पूरी तरह समतल हो चुकी थी। इस जमीन पर दो बड़ी क्रेनें ज़िराफ की
तरह अपनी गर्दन उठाए खड़ी थीं। मैदान की सीमा रेखा पर प्लाई के छे फुटे फट्टों
की दीवार सी तनना शुरू हो गई दीखती थी। साफ समझ में आता था कि इस ज़मीन पर
निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। यों तो किसी कंस्ट्रकशन कंपनी का
बोर्ड भी वहाँ लगा हुआ था पर यह बताने वाला कोई न था कि वहाँ क्या बन रहा
है।
परसों तक ऐसा कुछ नहीं था। सिर्फ कल मिसेज़ विरमानी यहाँ
नहीं आई थीं। कल शाम वे मिस्टर विरमानी के साथ एक मित्र के यहाँ डिनर पर
चली गयी थीं। यानी यह काया पलट पिछले अड़तालीस घंटों में ही हो गयी थी?
वे
हैरान सी रह गयीं। साफ हो जाने के बाद मैदान कुछ और बड़ा हो गया था। साथ की
सड़के भी और खुली व खूबसूरत दिख रही थीं। सुपर मार्केट की शान में भी
इज़ाफ़ा हो गया था। कुल मिला कर सब कुछ सुखद था।
मिसेज़ विरमानी ने इस सफाई के विषय में सुपर मार्केट के
अकाउंटेंट से पूछा। उसने बताया कि यहाँ एक नया पार्क बनने जा रहा है।
थोड़े ही दिनों में मैदान प्लाई के फट्टों से पूरा घिर गया।
एक पोर्टा केबिन लगा दिया गया। अंदर निर्माण के आसार नज़र आने लगे- बड़ी-बड़ी
गाड़ियाँ... खोद-खाद... म़िट्टी के ढेर...
दिनभर आवाज़ें और शाम को सन्नाटा। बड़ी-बड़ी क्रेनों के दानवाकार हाथ कभी
खाली झूलते हुए दिखाई देते,
कभी
कंकरीट बलॉक के गट्ठर उठाए ऊपर को उठते हुए तो कभी चारदीवारी के जंगले उठाए
लगातार चलते या नीचे आते हुए। ख़ाली ट्रकें आतीं और मलबा भर कर चली जातीं। भरी
हुई ट्रकें आतीं और खाली वापस जातीं।
इस बीच नीलम विरमानी की शाम की सैर जारी रही और मैदान का
बनना भी। सबसे पहले लॉन बना। ज़मीन को हिस्सों में बाँट कर नालियाँ बनाई
गयीं, पाइप का जाल बिछा दिया गया,
स्प्रिंकलर जड़ दिए गए,
पुरानी मिट्टी को
ट्रकों में भरकर कहीं और ले जाया गया। नयी मिट्टी को बिछा दिया गया। बिजली
की खंभे लगे। रातों रात ज़मीन पर हरी घास बिछा दी गई। चारदीवारी के जंगले
फिट हुए। बाहर की ग्रिलनुमा दीवार से लगा हुआ सैर करने का रास्ता बनाया गया,
फिर छुई-मुई की झाड़ियाँ लगाई गयीं। कूड़ा फेंकने वाले
नारंगी बिन लगे। अंदर के रास्ते बने। झूले फिट हुए। एक बहुत ऊँची बीस-तीस
फुट की जाली की दीवार भी बनाई गई। थोड़े ही दिनों में यह दीवार चारों ओर से
बंद हो गई जैसे जाली का एक बिना छत वाला खूब बड़ा कमरा।
एक बड़ा पावर हाउस भी पार्क में लग गया। चारों तरफ गेट लगे।
जाली के बड़े कमरे में गोल फिट हुए तो नीलम विरमानी समझ गयीं कि इस हिस्से
में फुटबॉल का मैदान बनाया गया है। रोशनियों ने काम करना शुरू कर दिया।
फुटबॉल कोर्ट भारी भरकम नाइट लाइट के स्तंभों से लैस हो गया। अंदर के
गलियारों और लॉन पर लगे लैंप पोस्ट जल उठे। उपेक्षित पड़ा अभागा सा मैदान
जगमग हो गया।
एक दिन जब वे शाम की सैर को निकली तो खूब सारी भीड़ भाड़ और
शान शौकत के साथ वे इस पार्क के उद्घाटन का हिस्सा भी बन गयीं। मुहल्ले का
नया मेहमान यह `फुटबॉल कोर्ट वाला पार्क`
हर मुहल्ले वाले के दिल में
खुशी भर रहा था। वे काफी खुश थीं। खासतौर पर फुटबॉल कोर्ट को देख कर जो हरे
रंग की बड़ी जाली वाली ऊँची दीवार से घिरा था। दीवार के बाहर बैठने लिए और
खेल देखने के लिए कुछ बेंचें भी लगाई गई थीं। एक ओर बच्चों का पार्क था
जहाँ बच्चे तरह-तरह के झूले झूल सकते थे,
एक ओर खुले लॉन थे जहाँ घनी घास पर सुस्ताया जा सकता था।
सुबह शाम की सैर करने वालों के लिए रास्ता पक्का कर दिया गया था। खाने पीने की
चीज़ों के लिए सामने सुपर मार्केट था ही। सब कुछ बड़ा सुरुचि संपन्न था।
शाम को मिस्टर विरमानी लौटे तो नीलम विरमानी ने उन्हें
पार्क का विस्तृत ब्योरा दिया। आमतौर पर चुप रहने वाली मिसेज़ विरमानी के
पास एक दो महीने से छोटी मोटी बातों का बढ़िया खज़ाना होने लगा था पार्क के
विन्यास के समाचारों का-
आज फाटक लग गए,
आज लॉन बन गया,
आज यह हो गया,
आज वह हो गया। मिस्टर विरमानी भी ध्यान से सुनते। मुहल्ले
में पार्क क्या बन रहा था घर में एक नया बच्चा आ गया था। यह सब इतना
आनंददायक था कि मिस्टर मिसेज़ विरमानी की पूरी शाम पार्क की बातों में बीत
जाती थी। यहाँ तक कि वे लोग शाम को टीवी देखना तक भूल जाते। छूटे हुए सीरियल
मिसेज़ विरमानी अगले दिन दोपहर में देखतीं। इस चक्कर में दोपहर में लॉन पर
बैठना भी बंद हो गया था।
पार्क के उद्घाटन के साथ ही मुहल्ले के बच्चों को फुटबॉल
खेलने के लिए ढंग का ठिकाना मिल गया। गली-गली में बिखरा ऊधम और शोर पार्क
में हिलोरें लेने लगा। आती-जाती कारों को आराम हो गया। साथ ही साथ पार्क के
नए समाचार भी ख़त्म हो गए। दो महीने का नन्हा बच्चा रातों रात बड़ा हो गया।
उद्घाटन के बाद वाली रात को पार्क की कोई बात नहीं हुई मिस्टर मिसेज़
विरमानी के बीच। पार्क में नया कुछ था ही नहीं बात करने के लिए। वही खेलकूद,
पिकनिक
और सैर-सपाटे जो हर पार्क में होते हैं। वे दोनों टीवी खोल कर तब तक सीरियल
देखते रहे जबतक नींद से उनकी पलकें भारी न हो गईं।
जनवरी का अंत आ गया। मौसम अभी भी सुहावना बना हुआ था। नीलम
विरमानी अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट आयीं। मिस्टर विरमानी के ऑफिस जाने
के बाद उन्होंने अपना कॉफी का मग उठाया और लॉन में उसी पुरानी बेडनुमा
आरामकुर्सी पर आ बैठीं।
धीरे धीरे कॉफी पीते हुए बच्चों से फोन पर बात की। कॉफी
ख़त्म हुई तो वे मग रखने अंदर गयीं और दो महीने से छूटे `सुबह
द़ोपहर श़ाम'
को लेकर बाहर आ गयीं। कुछ देर
तक वे उपन्यास पढ़ती रहीं, फिर उसे गोद में रख बर्डबाथ पर
बैठी चिड़ियों की आवाजाही देखने लगीं। बीसेक गौरैयों का एक झुड लॉन पर उतर
आया था, तीतरों का एक जोड़ा बर्ड बाथ
पर आ बैठा उनकी ओर ही देख रहा था। उनका ध्यान गया कि बर्डबाथ में पानी नहीं
है। वे उठीं और भीतर जाकर फव्वारे का स्विच ऑन कर दिया। दो मिनट में ही
बर्डबाथ भर गया। तीतर का जोड़ा पानी पीकर डेज़र्ट रोज़ की क्यारियों में
खाने की तलाश करने लगा। एक अकेला कठफोड़ा खजूर के तने पर चोंच मार रहा था।
अचानक तोतों की चीख पुकार ताड़ के पत्तों पर आ जमी। गौरैयों का झुंड ज़ोर
से चहचहाता हुआ उड़ा तो उनका ध्यान दीवार की ओर गया। कनेर के पत्तों में
छिपी बिल्ली दीवार का सहारा लेकर बिलकुल दुबकती हुई नीचे कूदी थी। नीलम
विरमानी ने उपन्यास को मेज़ पर रखा, चुन्नी
से मुँह ढँका और दाहिना हाथ माथे पर रख कर आँखें बंद कर लीं।
दो
पल ही बीते
होंगे उ़न्हें लगा कि कुछ बेचैनी सी है उन्होंने
करवट लेकर हाथ को सिर के नीचे ले लिया और पैर घुटने से थोड़े मोड़ कर सोने
की एक और कोशिश की,
पर झपकी नहीं आई।
गले में खुश्की सी महसूस हुई वे भीतर गयीं पानी
पिया और फिर बाहर आकर कुर्सी पर बैठ गईं। उपन्यास खोल कर पढ़ना शुरू किया
पर ज्यादा आगे न बढ़ सकीं। कुछ थकान सी महसूस हुई- मन की थकान,
अजीब सा अहसास, घनघोर सन्नाटा- `सुबह
दोपहर शाम'
उनकी रगों में घुलने लगा था और वे `बड़ी
दादी'
के चरित्र में। उन्हें लगा कि उनके चारों ओर सिर्फ जंगल है। कोई इंसान
नहीं उनकी
दुनिया काफी बदल गयी है। अब वे गौरैया के झुंड से बात कर सकती
हैं, वे तीतर के जोड़े की बात समझ सकती हैं, वे तोतों की उड़ान में
खो सकती हैं वे बिल्ली के इरादे भाँप सकती हैं।
उन्हें लगा कि बचपन से पढ़ने लिखने बोलने वाली भाषा का भी अब कोई अस्तित्व
नहीं रह गया है या फिर सारी भाषाएँ मिल कर एक हो गई हैं
वे बहुत सी भाषाएँ समझ सकती हैं ऐसी भाषाएँ जो उन्होंने स्कूल
में कभी नहीं पढ़ीं,
जैसे जैसे दीवार के पार खेलने वाले बच्चों की भाषा।
अचानक वे बेचैन हो उठीं- बच्चे फुटबॉल क्यों नहीं खेल रहे
हैं!