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                  सतलुज की कहानी
 डॉ. हीरालाल बाछोतिया
 
 
                  सतलुज का उद्गम राक्षस ताल से हुआ 
                  है। राक्षस ताल तिब्बत के पश्चिमी पठार में है। यह सुविख्यात 
                  मानसरोवर से कोई दो कि.मी. की दूरी पर है। सतलुज शिप्कीला से 
                  भारत के किन्नर लोक में प्रवेश करती है। किन्नर देश में सतलुज को 
                  लाने का श्रेय वाणासुर को दिया जाता है जैसे गंगा को लाने का 
                  श्रेय भगीरथ को है और इसी कारण गंगा का नाम भागीरथी भी है। किंतु 
                  सतलुज का नाम वाणशिवरी नहीं हैं। एक कथा के अनुसार पहले किन्नर 
                  दो राज्यों में विभक्त था। एक की राजधानी शोणितपुर (सराहन) थी और 
                  दूसरे की कामरू। इन राज्यों में बड़ा बैर था और अक्सर युद्द हुआ 
                  करते थे। वाणासुर शोणितपुर में तीन भाई राजकाज करते थे। वाणासुर 
                  और उसकी प्रजा को मार डालने के लिए उन तीनों भाइयों ने किन्नर 
                  देश में बहने वाली एक नदी में हज़ारों मन ज़हर घोल दिया। इससे 
                  हज़ारों लोग, पशु-पक्षी मर गए। भयंकर अकाल पड़ गया। वे तीनों भाई 
                  भी मर गए। 
                  पानी का अकाल 
                  वाणासुर को इसका बहुत दुख हुआ। उसके राज्य में 
                  पानी का अकाल हो गया। तब उसने शिव की आराधना शुरू की। भगवान शिव 
                  की आराधना शुरू की। भगवान शिव ने वाणासुर को आदेश दिया कि वह 
                  उत्तर की ओर प्रस्थान करे। कई दिनों की कठिन यात्रा के बाद वह 
                  झील के किनारे पहुँचा। यह मानसरोवर झील थी। झील में पूर्व दिशा 
                  में एक झरना गिर रहा था। यह प्रस्ताव में सांगपो नदी थी। झील के 
                  उत्तर की ओर से जो झरना गिर रहा था उसका पानी नीले रंग का था। 
                  झील का आकार भी समुद्र जैसा था। कुल मिलाकर यह अद्भुत दृश्य था। 
                  कुछ देर बाद वाणासुर ने देखा सरोवर में उथल-पुथल हो रही है। उसका 
                  पानी आकाश की ओर बढ़ रहा है। उसे लगा भगवान शिव तांडव नृत्य कर 
                  रहे हैं। तभी भगवान शिव ने पद प्रहार किया जिससे कैलाश पर्वत 
                  पृथ्वी पर जा गिरा वह पर्वत देखते-देखते मानसरोवर के एक किनारे 
                  प्रगट हो गया उसने देखा कि सरोवर में भूचाल-सा आ रहा है। सांगपो 
                  नदी का बहाव बदल गया है। वह पूर्व की ओर बहने लगी है। इस प्रकार 
                  ब्रह्मपुत्र नदी का स्रोत मान सरोवर बन गई। लाल रंग का जल का 
                  बहाव दुसरी ओर हुआ और वह राकश ताल (राक्षस ताल) में जा गिरा उसने 
                  सिंधु नदी का रूप ले लिया। अब बचा पीले रंग का जल। वाणासुर जिस 
                  रास्ते से आया उस जल ने भी वही दिशा ले ली। उसे लगा भगवान शिव ने 
                  उसे यह नदी दे दी है। आगे-आगे वह चल रहा था और पीछे नील जलयुक्त 
                  नदी चली आ रही थी। इसका जल निर्मल और शीतल था। वाणासुर ने उत्तर 
                  से शिप्की ला का रास्ता लिया नदी भी उसी तरफ़ मुड़ चली। शिप्कोला 
                  से करछम होते हुए वाणासुर अपनी राजधानी शोणितपुर पहुँच गया। यहीं 
                  उसने श्रद्धा से नदी को प्रणाम किया और कहा कि अब वह अपनी रास्ता 
                  खुद ले। नदी ने आगे अपनी रास्ता बनाया और वह रामपुर बुशहर, 
                  बिलासपुर की ओर बह निकला। यह नदी सतलुज नाम से विख्यात हुई। वशिष्ठ और 
                  विश्वामित्र में युद्ध 
                  सतलुज 
                  का पुराना 
                  नाम कितना सुंदर था। देश के ऋषि मुनि इसे शतुद्र नाम से पुकारते 
                  थे। ऋग्वेद में ऋषि-मुनियों ने शतद्रू का यशगान किया है। तब भारत 
                  वर्ष हिम वर्ष नाम से जाना जाता था। भरत के राजा होने पर इसे 
                  भारतवर्ष कहा जाने लगा। शतद्रू के किनारे भरत ने अपने राज्य का 
                  विस्तार किया। इससे सभ्यता का भी विकास हुआ। वह पूर्व वैदिक काल 
                  की सभ्यता थी। शतद्रू के तट पर ही विश्वामित्र और वशिष्ठ के बीच 
                  युद्ध हुआ। वशिष्ठ अपने ज्ञान और तप के कारण ब्रह्मर्षि कहलाते 
                  थे। विश्वामित्र अपने को किसी से कम नहीं समझते थे। वे चाहते थे 
                  लोग उन्हें भी ब्रह्मर्षि कहें। वशिष्ठ को नीचा दिखाने के लिए 
                  विश्वामित्र सेना लेकर आ पहुँचे। वशिष्ठ ने उनका सत्कार करना 
                  चाहा। विश्वामित्र घमंड से बोले तू हमारा क्या सत्कार करेगा। 
                  हमारे लाखों लोग हैं। हम शाही भोजन के अभ्यस्त हैं। 
                  वशिष्ठ 
                  जी ने 
                  कामधेनु गाय की कृपा से विश्वामित्र की सारी आकांक्षाएँ पूरी कर 
                  दीं। इस पर विश्वामित्र घमंड से बोले तू हमारा क्या सत्कार 
                  करेगा। हमारे लाखों लोग हैं। हम शाही भोजन के अभ्यस्त हैं।
                  
                  वशिष्ठ 
                  जी ने 
                  कामधेनु गाय की कृपा से विश्वामित्र की सारी आकांक्षाएँ पूरी कर 
                  दीं। इस पर विश्वामित्र ने कामधेनु की ही माँग रख दी। माँग पूरी 
                  न होती देख 
                  विश्वामित्र युद्ध ठान बैठे। इस प्रकार शतद्रु के किनारे यह पहला 
                  युद्ध हुआ था। 
                  शिप्कीला से थोड़े आगे जकार पर्वत 
                  माला के बीच सतलुज आगे बढ़ती है। हिंदुस्तान तिब्बत सड़क 
                  शिप्कीला तक बनाई गई थी। पुरानी हिंदुस्तान-तिब्बत सड़क तो अब 
                  उपयोग में नहीं लाई जाती। हाँ सतलुज के प्रवाह पथ के साथ-साथ नई 
                  हिंदुस्तान-तिब्बत सड़क बन गई है। अब इसे शिप्कीला से आगे खाबो 
                  होते हुए रोहतांग से जोड़ दिया गया है। शिप्कीला के पास खाबो से 
                  पहले सतलुज का संगम स्पिती से होता है। यहीं सतलुज का एक पुल बना 
                  दिया गया है जिससे बसें किनौर के जिला मुख्यालय रिकांगपियो से 
                  खाबो, काजा आदि के लिए आती जाती है। जन-जीवन 
                  अस्त-व्यस्त 
                  शिप्कीला से भारत में प्रवेश करने 
                  के बाद सतलुज करछम पहुँचने से पहले किन्नर कैलाश तथा हिमालय के 
                  गल क्षेत्र (ग्लेसियर) से आने वाले अनगिनत स्रोतों का जल अपने 
                  में समाहित कर क्षिप्र से क्षिप्रतर वेग से बहती है। करछम के पास 
                  बस्पा से इसका संगम होता है। यहाँ तक सतलुज देवदारू, चीड़ की जिस 
                  घनी हरीतिमा के बीच रहती है वह विरल होता है। रामपुर बुशहर 
                  पहुँचने तक घाटियों में हरियाली कम होती जाती है। लेकिन नदी-जल 
                  की उपयोगिता बढ़ती जाती है। नाथपा-झाखड़ी जल विद्युत परियोजना के 
                  द्वारा पूह से लेकर रामपुर बुशहर तक सतलुज के वेग के दोहन की 
                  कोशिश की जा रही है। पूह के पास सतलुज पाँच हज़ार फुट की ऊँचाई 
                  पर बहती है। अतः पानी को केवल मोड़ने की ज़रूरत है बिजली उत्पादन 
                  अपेक्षाकृत आसानी से हो जाता है। करछम के पास से रामपुर बुशहर तक 
                  कई किलोमीटर लंबी सुरंग बनाई गई है।
                   इसमें 
                  से बस्पा-सतलुज का पानी छोड़ा जाएगा तथा रामपुर-बुशहर के पास 
                  जलशक्ति से संयंत्र चलेंगे- बिजली पैदा होगी। सतलुज पर जहाँ भी 
                  यांत्रिकी अनुकूलता है छोटे-बड़े संयंत्र स्थापित कर जल विद्युत 
                  का उत्पादन हो रहा है। पूरी सतलुज घाटी में निर्माण गतिविधियाँ 
                  जारी हैं। एक उत्सव जैसा वातावरण है। सतलुज पर सबसे बड़ा बाँध तो 
                  भाखड़ा पर है किंतु भाखड़ा बाँध बाहरी विशेषज्ञों की देख-रेख में 
                  बनाया था। जबकि नाथपा-झाखड़ी भारतीय इंजीनियरों की देन है। यह 
                  ज़रूर है कि सड़क को चौड़ा करना, भारी परिवहन तथा उत्खनन आदि के 
                  कारण, किन्नर लोक का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। यहाँ से अपनी 
                  भेड़ बकरियाँ लेकर पशुपालक यायावर मैदानों की ओर जाया करते थे। 
                  सड़क परिवहन और निर्माण के कारण ये पशुपालक यायावर परेशान हैं। 
                  भेड़-बकरियों का पालना कम हो रहा है। 
                  शायद यह सतलुज के तीव्र वेग का 
                  परिणाम है कि रामपुर-बुशहर जैसे अपेक्षाकृत गर्म स्थान पर भी नदी 
                  स्नान की परंपरा नहीं हैं। करछम-पूह आदि तो अत्यंत ठंडे स्थान 
                  हैं, जहाँ नदी स्नान की कल्पना भी मुश्किल है। तथापि सतलुज का 
                  पानी स्नानार्थियों को भले ही न आकर्षित करे किंतु गाँव-गाँव को 
                  बिजली अवश्य दे रहा है ताकि वे अपने उज्ज्वल भविष्य की ओर उन्मुख 
                  हो सकें। 
                  ७ दिसंबर 
                  २००९ |