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प्रकृति और पर्यावरण

चिरसखा है बाँस
-डॉ डी एन तिवारी

 

बाँस का ग्रामीण तथा औद्योगिक अर्थ-व्यवस्था में समान महत्व है। इसका उपयोग झोंपड़ी बनाने, बाड़ी एवं पनवाड़ी में लगाने, छड़ी, चटाई, टोकरी, चिक, सीढ़ी, फर्नीचर एवं दैनिक वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है तो बाँस से प्लाईवुड, अख़बारी एवं लिखने का कागज, रेयान आदि भी बनाया जाता है। नगरों में बननेवाली अट्टालिकाएँ बाँस का सहारा पाकर ही ऊँचाई तथा भव्यता को प्राप्त करती हैं। शहरों में मलिन बस्ती वालों के लिए भी बाँस घर बनाने का एक अति महत्त्वपूर्ण संसाधन है। बाँस का उपयोग सीमेंट कंक्रीट संरचनाओं- जैसे छोटी स्प्रान वीन्स, लिंटल्स, स्लैब, बाड़ लगानेवाले खंभों आदि को मज़बूत करनेवाली महंगी स्टील की छड़ों के विकल्प के रूप में भी किया जाता है।

बाँस के बरतनों की लोगों के दैनिक उपयोग में प्रधानता है। बाँस कटाई, दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों में लगभग २५ लाख व्यक्तियों को वार्षिक रोज़गार मिलता है। अगरबत्ती, फर्नीचर, काग़़ज, रेयान उद्योगों में बाँस की अत्यधिक मांग है, जिसे अधिक उत्पादन द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। बाँस की पत्तियों में औषधीय गुण भी होते हैं। बाँस की पत्तियाँ मासिक धर्म लानेवाली, कीड़ेमार, स्त्रावरोधी तथा बुखार को कम करनेवाली दवा के रूप में प्रयुक्त होती हैं। इनका उपयोग खून को साफ़ करने तथा धवल रोग में भी किया जाता है।

चीन में बाँस को 'सहोदर' कोरिया में 'विश्वसनीय साथी' तथा वियतनाम में 'सबसे उपयोगी' माना गया है, विश्व के विभिन्न लोगों को खाद्य-पदार्थ उपलब्ध कराने में बाँस की अहम भूमिका है।

बाँस के औषधीय प्रयोग

'वंशलोचन' बाँस के भीतरी भाग में एक सिलिकामय संचय है, जिसका उपयोग शीतलक और कामोत्तेजक के रूप में किया जाता है। यह दमा, खाँसी, लकवे की शिकायत तथा अन्य कमज़ोरी लानेवाली बीमारियों के लिए भी उपयोगी है। बाँस द्रव्यपदार्थ, जिसे नये बाँस की नाल से निकालते हैं, का खाँसी, दमा को कम करने तथा ज्वररोध में प्रभावी है। यह कंठ, शीत, दमा और अनिद्रा के रोगों के लिए भी बहुत अच्छी दवा है।

कैंसररोधी आरोग्य खाद्य बनाने के लिए बाँस के रस का उपयोग संभव है। बाँस के रस में अनेक रासायनिक तत्व पाए जाते हैं, जो मानव कोशिकाओं को क्रियाशील बनाते हैं। बाँस में खून को साफ़ करने, बवासीर एवं उच्च रक्तचाप को घटाने, थकान मिटाने, स्फूर्ति लाने तथा धमनी की जठरता में लाभकारी प्रभाव पहुँचाने के गुण हैं। बाँस के विभिन्न नामों एवं औषधीय गुणों का वर्णन भाव, प्रकाश, निघंटु में निम्नानुसार किया गया है -
वंशस्तक सार कर्मारत्व चिसार तृष्णाध्वजा:।
शतपर्वा यवफलो वेणुमस्कर तेजना:।।
वंश सरो हिम: स्वोदु: कपायोवस्ति शोधन:।
छेदन: कफापित्तध्न: कुष्ठास्रवण शोथजित्।।

अर्थात बाँस, त्वकसर, करपार, चीसार, तृणध्वज, शतपर्व, यवफल, वेणु, मस्कर एवं तेजन के नामों से इसे जाना होता है। बाँस सारक, ठंडा, शुक्रवीज की बीमारी को ठीक करनेवाला, स्वाद को ठीक करनेवाला, मूत्राशय को शुद्ध करनेवाला, संकोचक द्रव्यों से भरपूर, कफ एवं पित्त को ठीक करनेवाला तथा घाव एवं सूजन में प्रभावी दवा है।

बाँस के खाद्य-पदार्थ

बाँस में एकल रूप से फूल तथा बीज छोटी मात्रा में सदैव उपलब्ध होते हैं, परंतु सामूहिक पुष्पण जो निर्धारित चक्र में होता है, (२५ से ५० वर्ष के अंतराल पर) बड़ी मात्रा में बाँस का बीज उपलब्ध कराता है। बाँस का बीज चावल अथवा गेहूँ के समान होता है। जिसे खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग किया जाता है तथा वनवासी एवं ग्रामीण इसे बड़ी मात्रा में एकत्रित कर खाते हैं।

बाँस के प्ररोह (कोमल अंकुर) समृद्ध आहार तथा स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी प्रिय खाद्य है। इनका सब्ज़ियों, आचारों व पेय बनाने में उपयोग किया जाता है। चावल के साथ उबालकर भी खाया जाता है। इनके प्रमुख तत्वों में प्रोटीन, एमीनो अम्ल, बसा, शर्करा, अकार्बनिक लवण आदि मुख्य हैं। इसमें प्रति १०० ग्राम में (औसत २ ६.५ ग्राम)प्रोटीन पाया जाता है, जो वनस्पतियों में अधिकतम मात्रा में से एक है। इनमें सत्रह किस्म के एमीनो अम्ल तथा १० किस्म के खनिज तत्व पाए जाते हैं। वसा का प्रतिशत केवल २ ४़६ प्रतिशत तथा उच्च खाद्य रेषा छह से आठ प्रतिशत होता है। यह आंत्र गति के विस्र्द्ध सुरक्षा देता है तथा वजन घटाने में अत्यंत कारगर होता है।

बाँस के प्ररोह न केवल स्थानीय लोगों में लोकप्रिय हैं, अपितु पूर्ण विश्व में इसकी खपत लगातार बढ़ रही है। हमारे यहां अभी देशज बाँस के प्ररोहों का उपयोग किया जाता है, परंतु चीन, थाईलैंड, जापान आदि देश उत्तम किस्म के खाद्य बाँसों का उत्पादन करते हैं। भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद ने पहली बार डेंड्रोकैलामस एस्पर व फाइलोस्टाइकम प्यूवीसेंस बाँसों की खेती प्रारंभ की है और इसे सर्वप्रथम मध्य प्रदेश के जबलपुर व छिंदवाड़ा में उगाया गया। बाँसों की खेती के साथ ही प्ररोहों को निकालने इनके प्रक्रमण, डिब्बाबंदी तथा विक्रय पर भी ध्यान दिया जा रहा है, ताकि कृषक अधिक से अधिक लाभ कमा सके।

बाँस से चारा

बाँस की पत्तियाँ पालतू जानवरों, घोड़ों और हाथियों के लिए काफ़ी उपयोगी होती है, क्योंकि इनमें भी पाचनशील कच्चा प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। विटामिन 'ए' की कमी दूर करने हेतु पत्तियाँ मुर्गियों को भी खिलाई जाती हैं। बाँस की पत्तियाँ व नयी कोपलें खुरदरा चारा के रूप में उपयोगी है, परंतु इन्हें फूल आने के पूर्व ही काट लेना आवश्यक है।

बाँस से ईंधन

बाँस में उत्पादन की क्षमता अत्यधिक होती है। एक अवधि के भीतर प्रति इकाई क्षेत्रफल में बाँस द्वारा उत्पादित जैव-मात्रा दूसरे पादपों की अपेक्षा सबसे अधिक है। बाँस का उष्मामान ४६००-५४०० कैलोरी प्रति किलोग्राम है जो कि दूसरे पादपों की अपेक्षा उच्चतम है। बाँस की तेजगति से जलने के कारण इंर्धन के रूप में इसकी उष्मा का पूरा उपयोग कर पाना कठिन है। बाँस का कोयला बिजली की बैटरियों में प्रयुक्त होनेवाले चारकोल से बेहतर माना जाता है। आभूषण निर्माता बाँस के कोयले को उच्च प्राथमिकता देते हैं।

बाँस से लुगदी एवं काग़़ज

बाँस को काग़़ज उद्योगों के लिए लंबे रेशे वाले कच्चा माल के रूप में प्रमुख माना जाता है। वनों में बहुतायत से पाए जानेवाला डेंड्रोकैलामस बाँस के रेशे की अधिकतम लंबाई ५.५ मिलीमीटर तथा औसत लंबाई ३.०६ मिलीमीटर होती है। अन्य बाँस जिन्हें बाड़ी अथवा खेतों की मेड़ पर लगाया जाता है, उनके रेशों की अधिकतम लंबाई ६.७५ मिलीमीटर तथा औसत लंबाई ३.५ मिलीमीटर होती है। इस समय देश में लुग्दी एवं काग़़ज का वार्षिक उत्पादन २० लाख टन से अधिक है, इसमें काग़़ज के कारखानों द्वारा प्रयुक्त कच्चामाल में बाँस का योगदान लगभग ५० प्रतिशत है। काग़़ज की खपत लगातार बढ़ रही है, अत: बाँस का उत्पादन बढ़ाना अनिवार्य है।

अनेक गुणों के कारण बाँस का हरेक क्षेत्र में उपयोग किया जाता है - कृषि उपकरण, एंकर्स, तीर, तरह-तरह के टोकरे-टोकरियाँ, बिछौने, नावें, बोतलें, झाडू, ब्रुश, मकान, टोपी, हर तरह का फर्नीचर, चिक, ताबूत, कंघे, कंटेनर्स, मछली फंसाने के डंडे, बाँसुरी, हस्त शिल्प की विविध वस्तुएँ, फूलदान, गमलों के पात्र, लैंप शेड, हुक्के की नली, अगरबत्ती की तीलियाँ आदि अनेक वस्तुओं में बाँस का परंपरागत रूप से उपयोग होता ही है, जो सौंदर्य बोध को संतुष्ट करने के साथ रोज़गार उपलब्ध कराता है। इसलिए इसके गुणों से प्रभावित होकर किसी कवि ने लिखा है -
तन हरा, मन श्वेत, जिसकी सुनहरी हर साँस है,
कृषक, लेखक, श्रमिक - सबका चिरसखा यह बाँस है।
शूर का यह शस्त्र, वीरों का सतत है मार्गदर्शक
युवा का अभिमान, वृद्धों का सहारा अंगरक्षक
विश्व का मनुजत्व आदिमकाल से तेरा ऋणी है
सभी में सीमित है गुण, पर सब्र गुणों का तू धनी है
बाँस भूमि-संरक्षण तथा भूमि पर सजावट के लिए अपना विशेष ही महत्व रखता है।


बाँस की प्रजातियाँ एवं वितरण

विश्व में ५० जीन्स से संबंधित करीब १२५० बाँस प्रजातियाँ पाई जाती हैं। २० जीन्स से संबंधित करीब १३६ बाँस प्रजातियाँ (जिनमें से ११० देशी हैं) भारत में पाई जाती हैं। यह उष्ण कटिबंधीय प्रदेश में समुद्रतल से लेकर शीतोष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में ४००० मीटर की ऊंचाई तक उगते हैं। यूरोप को छोड़कर विश्व के हर भाग में बाँस प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। भारत में कश्मीर की घाटी तथा राजस्थान के रेगिस्तान में बाँस प्राकृतिक रूप से नहीं पाया जाता है।
बाँसों का भौगोलिक वितरण बहुत कुछ वर्षा, तापमान, ऊंचाई और मृदा की दशाओं से प्रभावित होता है। अच्छी उपज के लिए अधिकांश बाँसों को ८ डिग्री सेल्सियस से ३६ डिग्री सेल्सियस तक तापमान, १००० मिलीमीटर की न्यूनतम वार्षिक वर्षा और उच्च वायुमंडलीय आर्द्रता की आवश्यकता पड़ती है।

बाँस का वर्गीकरण

बाँस के पुष्पन के आधार पर इन्हें तीन वर्गों में बाँटा गया है। पहला, ऐसे बाँस जो प्रति वर्ष या लगभग इसी अवधि में पुष्पित होते हैं। तीसरा, ऐसे बाँस जिनमें एक तथा अनियमित पुष्पन होता है। सामूहिक पुष्पन सामान्यत: विभिन्न प्रजातियों में ७-१२० वर्षों के अंतराल पर होता है। सामुहिक पुष्पन के बाद बाँस पूरी तरह सूख जाते हैं। उत्तर प्रदेश में प्रचलित एक कहावत 'केला वीछी, बाँस, अपने फल से नाश' को सामूहिक पुष्पन के बाँस चरितार्थ करते हैं। पुष्पन प्राय: नवंबर से मार्च तक होता है और बीज अप्रैल से मई तक पककर तैयार हो जाते हैं। बीज झड़कर ज़मीन पर गिर जाते हैं, जो वर्षाकाल में अंकुरित होते हैं। यदि बीज नमी वाले स्थानों पर गिरते हैं, तो वर्षा के पूर्व भी उग आते हैं। नम स्थलों पर तथा सुरक्षित स्थानों पर बाँस का प्रचुर अंकुरण होता है तथा वर्षा के पश्चात संपूर्ण सतह बाँस के पौधों से पूरी तरह ढक जाती है। पौधे लाखों की संख्या में उगते हैं और ज़िंदा रहने के लिए उनमें भारी प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है। धीरे-धीरे प्रकृति की विरलन प्रक्रिया पौधों में अंतराल पैदा कर देती है जिससे अंतत: एक-दूसरे से उचित दूरी पर उगने लगते हैं। यदि बीज झड़ने के तुरंत बाद जंगल में आग लग जाए तो वे जल जाते हैं और उस वन से बाँस का पूरी तरह सफ़ाया हो जाता है।

 

१ सितंबर २००६

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