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प्रकृति और पर्यावरण

हवा हो जाएँगी चिड़ियाँ
-गुरमीत बेदी


 

चिड़िया की चहचहाट में जिंद़गी के सपने दर्ज हैं और चिड़िया की उड़ान में इन सपनों की तस्वीर झिलमिलाती है। चिड़िया जब चहचहाती है तो मौसम में ताज़गी भर जाती है, हवाओं में गुनगुनाहट सी रच जाती है और फिज़ा में मदहोशी-सी छा जाती है। एक मादकता चहुँ ओर घुलने लगती है। चिड़िया का आँगन में आना ज़िंदगी में लय भर देता है। चिड़िया जब दाना चुगती है तो बच्चे कितनी ही देर तक अपलक उसे निहारते रहते हैं और बुजुर्ग मां चिड़ियों को दाना डाल कर सुकून हासिल करती है। इसी तरह चिड़िया का मनुष्य के साथ भावनात्मक रिश्ता है। लेकिन अफ़सोस! चिड़ियों का संसार अब सिमटता जा रहा है और इसके पीछे जाने-अनजाने मनुष्य का भी हाथ है। कहीं ऐसा न हो कि एक दिन आँगन चिड़ियों से सूना हो जाए और चिड़िया की चहचहाट के लिए मौसम तरस जाए, हवाएँ तरस जाएँ और हम सब तरस जाएँ।

हाल ही में हुए सर्वेक्षणों से पता चला है कि घरेलू चिड़ियों की संख्या दिनों-दिन घटती जा रही है और इनका अस्तित्व लगातार संकट में है। चिड़ियों को सुरक्षा प्रदान करने वाले पक्षी विशेषज्ञ लंदन के ग्राहम माडेज का कहना है कि जब से खेती में नई-नई तकनीकें प्रयोग में आई हैं, खेतों में उठने-बैठने वाली इन घरेलू चिड़ियों पर बुरा असर पड़ा है। लेकिन जिस तेजी से इधर कुछ सालों में घरेलू चिड़ियों की संख्या में कमी आई है, वह चिंताजनक है। एक सर्वे में पाया गया कि ये चिड़ियाँ गाँवों में ज़्यादा पाई जाती थीं। लेकिन आजकल गाँवों में भी घरेलू चिड़ियाँ कम ही नज़र आती हैं। इधर तीस सालों में विभिन्न प्रजातियों की चिड़ियों की संख्या में ६५ प्रतिशत की कमी आई है। माडेज के अनुसार नर चिड़ियों की पहचान ज़्यादा आसान है। इनके सिर पर मटमैले रंग का मुकुट जैसा होता है और इनकी चोंच काले रंग की होती है जबकि मादा चिड़िया पीले रंग की, कुछ छोटी लेकिन मोटी होती हैं। तीस साल पहले नर चिड़ियाँ बड़ी संख्या में नज़र आती थीं लेकिन पिछले कुछ सालों में इनकी संख्या में ५८ प्रतिशत की कमी आई है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि जंगलों में पाई जाने वाली चिड़ियों की संख्या भी तेजी से घट रही है। पिछले पाँच सालों में जंगली चिड़ियों की कमी चिंताजनक बनी हुई है। पक्षियों को बचाने के प्रयास में जुटी ब्रिटेन की शाही सोसायटी के प्रमुख डा म़ार्क ओवरी ने गुनगुनाने वाली चिड़िया (सोंग थ्रैश) के भविष्य पर गहरी चिंता जताई है। ब्रिटिश सरकार के एक अध्ययन से पता चलता है कि १९७० से १९९८ के मध्य इस प्रजाति की आबादी में ५५ फीसदी की भारी गिरावट आई है।
पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि गाँवों का तेजी से शहरों में बदलना और परंपरागत कृषि के तौर-तरीकों की जगह आधुनिकतम तरीकों के प्रयोग ने चिड़िया की आज़ादी और स्वच्छंद जीवन पर अकुंश लगा दिया है। इसने कीड़े-मकोड़े खाने वाली चिड़िया के परिजनों को भूखे मरने की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। इसके अलावा मौसम के परिवर्तनों से भी गाने वाली चिड़ियाँ अछूती नहीं रही हैं।

एक अन्य अध्ययन के मुताबिक 'अल-नीनो' के बढ़ने की संभावनाओं के साथ ही उत्तरी अमेरिका के जंगलों में गाने वाली चिड़ियों की संख्या में भारी कमी हो सकती है। दक्षिण अमेरिका के पश्चिम तट के सहारे प्रशांत महासागर में चलने वाली ठंडी समुद्री जलधारा के गर्म हो जाने और इस समुद्री जलधारा के पश्चिम की ओर बढ़कर पूरे विश्व के तापमान और वर्षा को प्रभावित करने की घटना को 'अल-नीनो' कहते हैं जबकि इसकी ठीक उलट घटना को 'अल-नीना' कहा जाता है। 'डार्ट माउथ कालेज' और 'तुलाने यूनिवर्सिटी' (अमेरिका) के शोधकर्मियों ने काले कंठों वाले पक्षी 'वार्बलर' पर प्राकृतिक मौसमी चक्रों के प्रभावों का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के मुताबिक आने वाले सालों में, जब 'अल-नीनो' चक्र शुरू होगा तब इन प्रवासी गाने वाले पंछियों पर बुरा असर पड़ेगा।

शोधकर्मी टी स़्कॉट सिलेट के मुताबिक 'अल-नीनो' के प्रभाव से न्यू हैम्पशायर और जमैका में कीड़े-मकोड़ों की संख्या में काफ़ी कमी आ जाएगी। न्यू हैम्पशायर पक्षियों का प्रजनन स्थल है जबकि जमैका में उनका शीत प्रवास होता है। इसके परिणामस्वरूप ये चिड़ियाँ 'अल-नीनो' के दौरान बहुत कम अंडे दे पाती हैं। दिलचस्प रूप से 'ला-नीना' वर्षों के दौरान इन चिड़ियों को काफ़ी मात्रा में कीड़े-मकोड़े मिल जाते हैं। इस वजह से ये अधिक बच्चे पैदा कर लेती हैं। सिलेट के मुताबिक विश्व का तापमान बढ़ने के कारण 'अल-नीनो' के जल्दी आने की संभावनाएँ बढ़ती जा रही हैं। 'अल-नीनो' का जल्दी-जल्दी आना ही इस छोटी जंगली चिड़िया के अस्तित्व के लिए ख़तरा साबित हो सकता है। इससे बार्वलर का प्रजनन दर शून्य तक पहुँच सकता है।

अल-नीनो की वजह से भारत में भी मानसून पवनों पर प्रभाव पड़ता है। जिस वर्ष अल-नीनो प्रशांत महासागर के ऊपर आता है, उस वर्ष भारत में मानसून की वर्षा कम हो जाती है और इसके कारण भारत में भी साइबेरियाई क्रेन और अन्य प्रवासी पक्षियों का भारत के सुप्रसिद्ध प्राणि अभ्यारण्यों में आना कम हो जाता है।

विशेषज्ञों ने फसलों के बदले चेहरे को भी पक्षियों के लिए ख़तरा करार दिया है। अनुवांशिक तौर पर रूपातंरित पौधों या 'जेनेटिकली मॉडिफाइड़ (जी एम) क्रॉप्स' की खेती आजकल पश्चिमी देशों में आम है। इन पौधों की विशेषता यह है कि न तो इन्हें संक्रमण का ज़्यादा ख़तरा होता है और न ही नुकसानदायक रासायनिक खादों की ज़्यादा ज़रूरत होती है। आजकल मिलने वाले रसायनों में डूबे अनाजों के मुकाबले इन से प्राप्त अनाज कहीं बेहतर और पोषक माने जा रहे हैं। लेकिन इन तमाम फ़ायदों के बावजूद जी ए़म प़ौधे ख़तरों से खाली नहीं। यह सिद्ध किया है ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय के कुछ वैज्ञानिकों ने। उनके द्वारा विकसित गणितीय मॉडल के अनुसार नये जी ए़म प़ौधे संक्रमणरहित तो होते ही हैं लेकिन अपने आसपास के क्षेत्र की खरपतवार उपज में भी वे तकरीबन नब्बे फीसदी तक कमी ला देते हैं। अब चूँकि खरपतवार संख्या सीधे-सीधे खेतों के आसपास पाए जाने वाली चिड़ियों की संख्या से जुड़ी है, इसलिए यह तय है कि खरपतवार कम होने पर चिड़ियाँ भी कम हो जाएँगी।

कुछ चौंकाने वाले आँकड़ों के मुताबिक ऐसे पौधों की ब्रिटेन में पिछले २५ वर्षों से चल रही खेती के कारण वहाँ पाए जाने वाली कुछ चिड़ियों की संख्या ९० फीसदी तक कम हो गई है। कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि यदि इन पौधों की खेती में कमी न लाई गई तो जल्दी ही इसके कुछ और व्यापक रूप से हानिकारक प्रभाव सामने आने लगेंगे।

सर्वेक्षणों के मुताबिक भारत में भी पक्षियों की ७८ प्रजातियों के लुप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया है। भारत के बाहर हर आठ में से एक पक्षी की प्रजाति पर संकट है जबकि भारत में १२०० में से ७८ पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई हैं। पक्षी वैज्ञानिकों का मानना है कि समय रहते यदि उपाय नहीं किए गए तो मौजूदा पक्षियों में से कई प्रजातियाँ अगले दस वर्षों में समाप्त हो जाएँगी। सर्वेक्षणों के अनुसार भारत में पक्षियों के समाप्त होने की दर लगातार बढ़ रही है। मनुष्य द्वारा खेत को बचाने के लिए पक्षियों को मारना, उनका शिकार करना और पकड़ कर बाज़ार में बेचना इन पक्षियों के लुप्त होने का कारण बन रहा है।

बांबे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के अधिकारी आइजेक केहिमकर के अनुसार हालाँकि पक्षियों का लुप्त होना समयबद्ध प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन दुनियाभर में पर्यावरण पर मानवजनित प्रभाव पड़ने से पक्षियों के समाप्त होने में इसका असर ज़्यादा दिखाई पड़ रहा है। उनका कहना है कि स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है। हर पक्षी की प्रजाति सौ वर्ष में समाप्त होती है लेकिन रिकार्ड बताते हैं कि पिछले सौ वर्षों में पक्षियों की १२८ प्रजातियाँ समाप्त हुई हैं। वर्ष १८०० के बाद से १०३ प्रजातियों के लुप्त होने का अनुमान है।

इंटरनैशनल यूनियन फार कंजरवेशन ऑफ नेचर के अनुसार दुनिया भर में पक्षियों की १८२ प्रजातियाँ ख़तरे में है। ऐसे भी संकेत मिले हैं कि जिस तरह से इनका अस्तित्व मिट रहा है, अगले दस वर्षों या तीन पीढ़ियों बाद ये प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी। पक्षियों पर लगातार किए जा रहे अध्ययन से पता चला है कि भारत में जिन सात पक्षियों के विलुप्त होने का सर्वाधिक ख़तरा है उनमें गुलाबी गर्दन वाला बतख रेहनोदोनेसा केरियोसाइला लुप्त प्राय: है। लगभग ११७ साल बाद फिर से खोजी गई उल्लू की दुर्लभ प्रजाति अथेने बेलविटटी और ८६ वर्ष बाद खोजी गई जर्मन की टाइनोपेलिस विटोक्यूयस भी ख़तरे की स्थिति में है। यही नहीं हिमालय की कंदराओं में पाया जाने वाला बटेर ओपरेसिया सुपर सिलीओसा के भी समाप्त होने की आशंका है। साईबेरिया का सारस ग्रुस ल्यूकोगेनोरस भी कम होता जा रहा है।

मंदार नेचर क्लब (भागलपुर) के पूर्व सचिव अरविंद मिश्र का कहना है कि भारत में पक्षियों की ७६ प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह स्थिति तब है जब देश में वन्य जीवों के संरक्षण के उद्देश्य से ७५ राष्ट्रीय उद्यान, ४४७ अभयारण्य, २२ व्याघ्र परियोजनाएँ और ८ बायोस्फेयर हैं। बिहार की स्थिति अन्य राज्यों की तुलना में बद से बदतर है। मिश्र बताते हैं कि अब हर्गिल, गरूड़, धींक, चोई, कालजंगा, सारस, टिमटिमिया तो नज़र ही नहीं आते जो हाल-हाल के वर्षों तक देश और ख़ास कर बिहार में देखे जाते थे। इसके अलावा छोटा गरूड़, मछरंग, खेरमुतिया, लोहासांरग, चमचा बजा, क्रोंच, बड़ी सिल्ली के भी दर्शन कभी-कभार होते हैं।

वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए प्रयोग में लाए जा रहे कई कीटनाशक, जो विश्व में प्रतिबंधित हैं, वे भारत में धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे हैं। पशु-पक्षियों की प्रजातियों को बचाने के लिए यह ज़रूरी है कि कृषि विभाग प्रतिबंधित कीटनाशकों को कड़ाई से प्रतिबंधित करे ताकि कोई भी उनका उपयोग न कर सके, तभी जाकर इस तरह की घटनाओं से बचा जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार कीटनाशक प्रभावित चारा खाकर मरने वाले पशु-पक्षियों का माँस गिद्धों के लिए भी काल बन रहा है और यही वजह है कि दुनियाभर में गिद्ध आज लुप्त होते जा रहे हैं।

पक्षी एवं उनके माध्यम से संपूर्ण जैव-विविधता का संरक्षण करने के लिए अमेरिका, यूरोप सहित अन्य देशों में 'महत्वपूर्ण पक्षी स्थल कार्यक्रम' शुरू किया गया है। इस कार्यक्रम के तहत भारत में शुरू हुए अभियान में 'इंडियन वर्ड कंजरवेशन नेटवर्क' ने इस दिशा में काम करने वाली संस्थाओं को एकजुट करके उन्हें प्रशिक्षण देना शुरू किया है और महत्त्वूपर्ण पक्षी स्थलों की पहचान की जा रही है। इस कार्य में देश की दो संस्थाओं वर्ड लाईफ इंटरनैशनल और रॉयल सोसायटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स की भी मदद मिल रही है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नेटवर्क ने विभिन्न राज्यों में पक्षियों के क्षेत्र में विशेष अनुभव और दिलचस्पी रखने वाले लोगों को राज्य समन्वयक नियुक्त किया है।

लंदन के पक्षी विशेषज्ञ ग्राहम माडेज ने तो पंछियों ख़ासकर चिड़ियों को बचाने के लिए जनता से अनुरोध किया है कि वह अपने घरों में चिड़ियों के रहने के लिए घोंसले जैसे बक्से बनाएँ। ख़ासकर प्रजनन के समय और जाड़े में चिड़ियों को खाने की सुविधा प्रदान करें और अपने घर के बाहर बगीचों में थोड़ी जगह चिड़ियों के लिए भी छोड़े ताकि वे वहाँ आकर अपने घौंसलें बना सकें।

पक्षी विशेषज्ञ पक्षियों को लुप्त होने से बचाने के लिए जनचेतना और जनसहभागिता को ज़रूरी समझते हैं। कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इडेनगार्ड स्पीशिज और नेशनल बायोडाइवर्सिटी स्ट्रेजिस एँड एक्शन प्लान तो पक्षियों को बचाने और जनचेतना पैदा करने के अभियान में बढ़-चढ़ कर जुटी है। पक्षियों को विलुप्त होने से बचाने के लिए एक दीर्घकालीन कार्य योजना को अमल में लाने की आवश्यकता है। प्रदूषित होते वातावरण और धरती के बढ़ते तापमान पर भले ही हमारा वश न चले लेकिन पक्षियों की चहचहाट को ज़िंदा रखने के लिए हम एहतियाती उपाय तो कर ही सकते हैं। आख़िर चिड़ियों की चहचहाट से सूना होता आँगन भला किसको अच्छा लगेगा।

२४ दिसंबर २००५

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