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भोजपुरी में
नीम, आम और जामुन
-राजेंद्र प्रसाद
सिंह
डॉ
भ़ोलाशंकर व्यास ने प्रो प्रजीलुस्की के हवाले से बताया है
कि "म्ब" "बु" ध्वनिवाले संस्कृत शब्दों में से अधिकतर
शब्द मुंडा भाषाओं से आए हैं। "निंब, अंब और जंबु ऐसे ही
शब्द हैं। नीम का एक नाम "कीटक" है और "कीटक" मगध की
प्राचीन जनजाति थी। मगध प्रदेश का प्राचीन वैदिक नाम
"कीटक" था और साथ ही इस भू -भाग में बसने वाली प्राचीन
अनार्य जाति को भी "कीटक" कहा जाता था। "कीटक" और "कीटक"
में वर्ण -विपर्यय है। तब यह माना जाना चाहिए कि नीम के
वृक्ष कीटक प्रदेश में बहुतायत होते थे।
नीम (लोक
गीत)
रहि जइहें निबिया अकेल
बाबा निबिया के पेड़ जनि काट हुँ
निबिया चिरइया बसेर, बलइया लेइं बीरन।।
बाबा बिटिया के जनि केहू दुख देहूँ
बिटिया चिरइया के नाइं, बलइया लेइं बीरन।।
सब त चिरइया रे उड़ि -उड़ि जइहें
रहि जइहें निबिया अकेल, बलइया लेहूँ बीरन।।
सब के बिटियवा रे जइहें ससुररिया
रहि जइहें मइया अकेल, बलइया लेइं बीरन।। |
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हिंदी प्रदेश के इस पूरबी इलाके में नीम के बागान थे।
ऐसे कि कई गाँवों के नाम इस वृक्ष विशेष पर बन गए हैं।
नीमा, निमिया, निमियाडीह जैसे स्थानवाचक नामों को
नमूने के तौर पर देखा जा सकता है। निमाड़, नीमच और गंधीनीम जैसे क्षेत्र, शहर
और मुहल्ले का नाम फारसी से प्रभावित है। भोजपुरी अंचल
के प्राय: गाँवों में पूरब की तरफ काली -स्थान होता
है। काली -पूजा का इस क्षेत्र में ख़ास महत्तव है।
इसके पूरब में बंगाल सदा से शक्ति -पूजा का केंद्र रहा
है। आज भी बंगाल में काली की उपासना प्रधान है। इसीलिए
इधर के लोकगीतों में काली को "बंगालियों की देवी" कहा
गया है।
कवने बरने तोरा घोड़वा एक सीतलि कवना बरने असवार।
बांगालिनी देवी हो, लीहींना पुजवा हमार।। |
काली शब्द आर्यभाषा का
नहीं है। कारण कि काल (काला) द्रविड़ भाषा से आया है।
द्रविड़कुल की भाषाओं में इसके कई प्रतिरूप मौजूद हैं,
मिसाल के लिए तामिल काड़, कन्नड़ काड़
(कालापन), कड़गु(काला होना) आदि। काली अग्नि की सात
जिह्वाओं में से एक हैं। काली का स्वभाव उग्र है जैसे
शीतला का शीतल। शीतल आर्यभाषा का शब्द है, पर उनकी सवारी
"गर्दभ" आर्य शब्द नहीं है। हालाँकि
यह शब्द ऋग्वेद तक में पाया जाता है। संस्कृत के शब्द
-निर्माण की प्रक्रिया में "भ" की
भूमिका नगण्य है। शलभ, वृषभ, रासभ, गर्दभ जैसे थोड़े से
शब्दों में "भ" प्रत्यय का व्यवहार होता है वह भी
मनुष्येतर प्राणियों के नामों के साथ। पूरबी इलाके में जब
किसी को शीतला की बीमारी होती है तब उसकी कोई दवा नहीं की
जाती है। रोगी की झाड़ -फूँक के
लिए मालिन आती है और वह नीम की डाली से रोगी को झाड़ती है।
इसी नीम की डाल पर शीतला माँ झूला लगाती हैं। इनका
निवास-स्थान नीम का वृक्ष है।
निमिया की डाढ़ी मइया,
लावेली हिंड़ोलवा कि झूली -झूमी
मइया मोरी गावेली गीत कि झूमी।।
नीम की डाली से शीतला का मरीज वैसे ही नीमन (अच्छा) हो
जाता है जैसे अछवानी से प्रसूता स्त्रियाँ अच्छी हो जाती
हैं। नीम-वृक्ष की पूजा आज भी यहाँ की जनजातियों में
प्रचलित हैं। इसकी पत्तियों का प्रयोग दुष्ट प्रेतात्माओं
को भगाने के लिए इस क्षेत्र में खूब किया जाता है।
भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि यूरोपीय भाषाओं में आम के
लिए कोई शब्द नहीं था। पुर्तगाल के लोग मलय देश में गए तथा
यह फल यूरोप में ले आए। इस फल के साथ -साथ वे आम का मलय
नाम "मंगा" भी ले आए। मंगा के विभिन्न रूप यूरोपीय भाषाओं
में प्रचलित हुए हैं जैसे अंग्रेजी में "मैंगो", पुर्तगाली
में मंगा आदि। तमिल में कच्चे आम को "माङगय" कहते हैं मगर
आम को "माम्पकम्"। द्रविड़ क्षेत्र में आम और मंगा दोनों
एक साथ मौजूद हैं। एक आस्ट्रो-एशियाटिक का और दूसरा
आस्ट्रोनेशियन का। आम की बारी हर हालत में आस्ट्रिकों की
देन है।
आम (लोक गीत)
धिया बिनु सून ऊँगनवा ए बेटी
काहे बिनु सून ऊँगनवा ए बाबा, काहे बिनु सून
लखरांव
काहे बिनु सून दुअरवा ए बाबा, काहे बिनु पोखरा
लहार।
धिया बिनु सून ऊँगनवा ए बेटी, हंस बिनु पोखरा
हमार।
कइसे के सोहे ऊँगनवा ए बाबा, कइसे सोहे लखरांव
कइसे के सोहे दुअरवा ए बाबा, कइसे सोहे पोखरा
तहार।
धरम से ऐ बेटी, बेटी उपजिहें, सेवा से आम
तइयार
तपता से ए बेटी, पुतवा भेंटइहें, दान से हंसा
मंझधार।
का देइ बेटी समोधव ए बाबा, का देइ अमवा के
गाँछ
का देइ पुतवा समोधब ए बाबा, का देइ समोधब
लखरांव
भुंइ देइ पुतवा समोधन ए बेटी, अन देइ हंसा
मंझधार।
धन देइ बेटी समोधन ए बेटी, जल देइ समोधन
लखरांव
भुंइ देइ पुतवा समोधन ए बेटी, अन देइ हंसा
मंझधार।
का देखि मोहे जनवासा ए बाबा, का देखि रसना
तहार
का देखि हिसरा जुड़इहें ए बाबा, का देखि नैना
जुड़ाय।
धिया देखि मोहे जनवासा ऐ बेटी, अमवा से रसना
हमार
पुतवा से हियरा जुड़इहें ए बेटी, हंसा देकि
नैना जुड़ाय। |
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पाणिनि ने आम्रवण के
रूप में आम्र का प्राचीनतम उल्लेख किया है। वेदों में
यह शब्द नहीं है। आम को गुजराती में "आंबो" कहा जाता
है और सिंधी में "अंबु"। पंजाबी और सिंहली में इसका
रूप "अंब" है तथा बंगला और उड़िया में "आंब"। मराठी
में "आंबा" कहा जाता है ओर हिंदी की लोकबोलियों में आम
के टिकोरे को "अंबिया" कहा जाता है। तब ऐसा लगता है कि
मध्य भारतीय आर्यभाषा का "अंब" प्राचीनतम है। संस्कृत
का आम्र वर्ण-संकोच का नमूना है। यदि शब्दों के अंत
में "म्ब" वाले ध्वनिसूत्र को याद करें तो "अंब" मुंडा
परिवार का शब्द है। |
पूरबी इलाके में कई गाँवों के
नाम इस शब्द को लेकर हैं। अमरा, अमरी, अमरथा, अमझोर, अमलोरी,
अमवलिया, अमाडाढ़ी, अमावाँ, अमियावर, अमिया, अमियावं, अमुआँ,
अमैठी, अमौना - ऐसे न जाने कितने हैं। अमराई पूरबी बोली का
शब्द है जिसका अर्थ है "आमों का बगीचा"। जैसे केरल में नारियल
की बारी होती है, वैसे पूरबी इलाके में आम की बारी। केरल में
आम की बारी के लिए कोई ख़ास शब्द नहीं है जबकि नारियल का बाग
"तेंडिन तोप्पु" कहलाता है। हिंदी प्रदेश के पूरबी इलाके में
नारियल की बारी के लिए कोई ख़ास शब्द नहीं है जबकि आम का बाग
"अमराई" कहलाता है। भोजपुरी क्षेत्र में आम के बड़े-बड़े
बगीचे को "लखराँव" भी कहते हैं जिसमें कोई एक लाख वृक्ष हुआ
करते थे। इस प्रदेश में लखराँव नाम से भी कई गाँव हैं। इसी
तर्ज पर ससरांव (सहसराम-सासाराम) है जिसे गल़ती से
सहस्त्रबाहु के नाम से जोड़ा जाता है। पालि साहित्य में हज़ार
-हज़ार वृक्षों वाले आम के वनों का उल्लेख है। ऐसे घने और
ऊँधेरिया बागों को "सहस्संब" वन कहते थे।
भोजपुरी प्रदेश में आम से बने कई खाद्य पदार्थ हैं - अमचूर,
अमझोरा, अमावट। आम के छोटे -छोटे पौधों के लिए भी शब्द है -
अमोला। दाग लगा आम के लिए भी शब्द है - कोलासी। आम के फलों के
सिरे से निकले रस के लिए भी शब्द है - चोप। आम के फूल को
भोजपुरी में "मोजर" कहते हैं तथा इसके छोटे -छोटे फल को
"टिकोरा"। आम को लेकर कई गीत प्रचलित हैं। लोकगीत की नायिका एक
नहीं बल्कि पूरे सौ आम का पेड़ लगाती है।
एक सौ अमवा लगवलीं सवा सौ जामुन हो।
अहो रामा तबहुँ न बगिया सोहावन एक रे कोईलिया बिनु।।
मैथिल कवि विद्यापति दूल्हे को गम्हार का पीढ़ा देते हैं जबकि
भोजपुरी क्षेत्र के दूल्हे को आम का पीढ़ा दिया जाता है। आम का
पीढ़ा शुभ है। आम का "पल्लो" (पल्लव) पवित्र है। आम्र-वृक्ष का
आर्यीकरण हुआ तब इसके पत्ते पवित्र हुए।
नायिका
आम के सौ गाछ लगाती है और जामुन के सवा सौ। ऐसा क्यों?" जामुन
के पेड़ ज़रूर ज़्यादा थे इस इलाके में। "जमुआर" कहा जाता है -
जामुन के सघन जंगल को। जमुआर या जमुहार नाम के कई गाँव इधर बसे
हैं। आज भी जंबु वृक्ष के लिए यह क्षेत्र अनुकूल है। "जमवट" इस
इलाके का आम शब्द है जो इधर की जनता के बीच धड़ल्ले से चलता
है। "जमवट" कहा जाता है जहाँ ईंट की जुड़ाई शुरू होती है।
पानी के अंदर "जमवट" सड़ता नहीं है जैसे कि अन्य लकड़ियाँ सड़
जाया करती हैं। ऐसे में इस क्षेत्र की जनता "जमवट" का प्रयोग
ऐसे कई मौकों पर करती हैं जहाँ पानी और काठ का अनवरत संपर्क
हो।
पालिग्रंथों में जंबुद्वीप की चर्चा बारंबार आई है जो प्राय:
मगध, उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की तस्वीर प्रस्तुत
करते हैं।
जामुन (लोक
गीत)
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छोटी -छोटी जामुन गँछिया
भूँइया सोहरल जाए।
छोटका देवरवा जमुनिया तुरी हो खाए।।
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टूटी गइले जामुन गँछिया
मुरुकल पिया के बाँह।
हाली से बोलाव बाबा बढ़ई हो लोहार।।
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जबले ना कटिहें बाबा
जामुन के हो डाढ़।
तब ले पिरात रहिहें जियरा हो हमार।। |
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जंबुखादक
-संयुत्त में जंबुखादक नामक परिव्राजक का वर्णन है।
संभवत: यह परिव्राजक
जामुन खाया करता था। जातकों में एक जंबुखादक जातक भी है।
जंबुध्वज नामक एक पालि व्याकरणाचार्य भी हुए हैं जिन्होंने
१६५० ई म़ें "संवण्णनानयदीपनी" की रचना की थी। महावंस में
उल्लेख आया है कि श्रीलंका के राजा ने अपने भानजे महारिष्ठ
प्रधानमंत्री, पुरोहित, मंत्री और गणक इन चार व्यक्तियों
को दूत बनाकर बहुमूल्य रत्नादि देकर सेना रहित पाटलिपुत्र
भेजा था। इन दूतों के मार्ग का वर्णन भी है, "जंबुकोल से
नाव चढ़कर सात दिनों में वे बंदरगाह पहुँचे। वहाँ से फिर
एक सप्ताह में पाटलिपुत्र पहुँचे।" जंबुकोल क्या है?" मगही
और भोजपुरी में कोली शब्द का व्यवहार दो मकानों के बीच की
गली के अर्थ में होता है। जंबुकोल वह मार्ग है जहाँ से
पूरबी इलाके यानी जंबुद्वीप जाया जाता था। यहाँ कोल को
संस्कृत के कलह (पथ) तथा कन्नड़ कलि एवं ब्राहूई कार से
जोड़कर देखना रोचक होगा। कलि और कार "जाना" से संबंधित
शब्द हैं। |
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