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प्रकृति और पर्यावरण

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मुसीबत बनता प्लास्टिक कचरा
-डॉ कृपाशंकर तिवारी


चमत्कारी पदार्थ के रूप में प्लास्टिक ने भारत में साठ के दशक में प्रवेश किया था। आज इसको लेकर अजीब -सा विवाद है। पर्यावरणविद भी इसको लेकर अपने-अपने तर्क रखते हैं। कुछ का कहना है कि पारिस्थितिक तंत्र के लिए खतरनाक है, पर पिछले कुछ वर्षों में इसका उपयोग कई गुना बढ़ चुका है, इसके पक्षधारों का दावा है कि यह 'इको फ्रेंडली' यानी पारिस्थितिक तंत्र का मित्र है, क्योंकि लकड़ी और कागज़ का उत्तम विकल्प है। पैकेजिंग के बढ़ते इसका प्रयोग लकड़ी और कागज़ को बचा रहा है और साथ ही वनों का संरक्षण भी हो रहा है। भारत में एक अनुमान के मुताबिक इसका उपयोग भविष्य में बढ़ेगा ही, क्योंकि इसकी उपयोगिता अतुलनीय रही है। बिजली, इलैक्टॉनिक्स और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में इसका कोई विकल्प नज़र नहीं आता। केवल आटोमोबाइल के क्षेत्र में इसकी वर्तमान उपयोगिता ५००० टन वार्षिक है। भविष्य में इसकी उपयोगिता २२,००० टन तक पहुँचने का अनुमान है।
 
वास्तव में देखा जाए तो प्लास्टिक अपने उत्पादन से लेकर फेंके जाने तक सभी अवस्थाओं में पर्यावरण और समूचे परिस्थितिक तंत्र के लिए खतरनाक है। चूँकि इसका निर्माण पेट्रोलियम से प्राप्त रसायनों से होता है। अत:पर्यावरणविदों की मान्यता है कि यह उत्पादन अवस्था में ही ऊर्जा के पारंपारिक ऐसे स्रोत का क्षय करता है जो प्राकृतिक नियमानुसार फिर से प्राप्त नहीं हो जाते हैं। इससे निकली हुई जहरीली गैस स्वास्थ्य के लिए एक अन्य खतरा है। इसके उत्पादन के दौरान व्यर्थ पदार्थ निकलकर जल स्रोतों में मिलकर जल प्रदूषण को जन्म देते हैं। इसके अलावा एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि इसका उत्पादन अधिकांशत: लघु उद्योग के क्षेत्र में होता है, जहाँ गुणवत्ता नियमों का पालन नहीं हो
पाता।

प्लास्टिक बैग्स का डिस्पोजल एक अन्य समस्या है, क्योंकि उनकी 'रिसाइक्लिंग' आसानी से संभव नहीं है। इनको जलाया जाए तो जहरीली गैस निकलती है। फिर भी भारत में रद्दी प्लास्टिक या तो जला देते हैं या जमीन में गाड़ देते हैं। जमीन के अंदर गाड़ देना प्लास्टिक नष्ट करने का आदर्श और उचित ढंग नहीं है, क्योंकि एक तो जमीन भी कम है दूसरे यह प्राकृतिक ढंग से अपघटित नहीं होता है। इसको अपघटित होने में ५०० वर्ष लग जाते हैं। साथ ही यह मिट्टी को प्रदूषित करती है और सतही जल को बेकार कर देती है। इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कचरा प्लास्टिक तकनीक का विकास किया जा रहा है। भारत में प्लास्टिक कचरे को पुन: उपयोग में लानेवालों के पास प्रतिदिन लगभग १,००० ट
न वेस्ट प्लास्टिक इकठ्ठा होता है। इसका ७५ प्रतिशत हिस्सा सस्ती चप्पलों के बनाने में काम आ जाता है।

विदेशी प्लास्टिक का उत्पादन लगातार जारी है। सन् १९९१ में यह नौ लाख टन था जिसके भविष्य में बहुत अधिक बढ़ जाने की संभावना है। अब डर इस बात का है कि प्लास्टिक के बढ़ते उत्पादन और उसी अनुपात में निकली बेकार प्लास्टिक के 'रिसाइक्लिंग' के लिए कोई व्यवस्था नहीं हो पाएगी। कुछ पलीस्टाइरीन टाइप की प्लास्टिक को 'रिसाइकल' किया ही नहीं जा सकता। एक चिंताजनक तथ्य यह भी है कि आर्थिक उदारीकरण से संभवत: प्लास्टिक डंपिंग को भारत
में बढ़ावा मिलेगा।

कचरे से ईंधन

उपयोग करने के बाद फेंक दो' की संस्कृति के खतरनाक परिणाम पर्यावरण विनाश के रूप में सामने आ रहे हैं और कचरे के ढेर बढ़ रहे हैं। बढ़ते औद्योगिकीकरण ने प्लास्टिक को जीवन का अविभाज्य अंग बना दिया है। कुल कचरे का चार से पाँच प्रतिशत भाग प्लास्टिक का ही होता है। लेकिन इसके व्यापक उपयोग के कारण सभी जगहों, रेलवे लाइनों, रोड़ के किनारे, राज़मार्गों, होटलों और सार्वजनिक स्थानों पर बिखरा पड़ा रहता है। यही कचरा बिखरकर नालियों में इकठ्ठा होता है। जो नालियों, गटरों, सीवेज डिस्पोजल पाइपों में अवरोध पैदा कर देता है। इससे नई मुसीबत पैदा हो जाती है। इसी कचरा प्लास्टिक को ऊर्जा उत्पादन स्रोत के रूप में प्रयोग किया जाए तो भविष्य के ईंधन का विकल्प भी हो सकता है। सन् १९९२ में पश्चिमी यूरोप में १६ प्रतिशत प्लास्टिक कचरे से ऊर्जा उत्पादन किया गया। जापान के प्लास्टिक वेस्ट प्रबंधन संस्थान द्वारा चलाए जा रहे शोध से मालूम हुआ है कि इसके क्योटो स्थित केन्द्र में प्रति एक टन प्लास्टिक से ऊर्जा क्षमता में १७ प्रतिशत वृद्धि हुई है। भारत में प्लास्टिक कचरे और उससे जुड़ी उद्यम क्षमता को देखते हुए आज द
स लाख कचरा इकठ्ठे करनेवाले हो गए हैं, जिनमें प्लास्टिक कचरा बीननेवाले भी शामिल हैं। आज छोटे-बड़े लगभग २०,००० उद्यमी हैं। यह तीन लाख टन प्लास्टिक कचरे की री-प्रोसेसिंग करते हैं। पिछले पच्चीस वर्षों में भारत में प्लास्टिक कचरा उद्योग से अनेक लोग जुड़े हैं। रोजगार और व्यवसाय की बढ़ती संभावनाओं को देखते हुए भारत में प्लास्टिक कचरा व्यापार एशिया का सबसे बड़ा बाज़ार बनने को अग्रसर है। इस व्यवसाय की वृद्धि और नए आयामों को देखते हुए लगता है कि प्लास्टिक कचरे के लिए नई 'रिसाइक्लिंग' तकनीक की आवश्यकता है। अनुमान है कि भविष्य में इस कचरे की मात्रा दस लाख टन तक बढ़ जाएगी।

भारतीय प्लास्टिक कचरा उद्योग के बढ़ते आकार और प्रबंधन कार्यप्रणाली से एक सच्चाई सामने आई है कि समाज में हर स्तर पर प्लास्टिक कचरा प्रबंधन में सभी ने अपना-अपना योगदान किया है। इसको बीननेवाले डीलर तथा रिप्रोसेसर्स सभी ने मिलकर प्रबंधन क्षमा को मजबूत किया है। यदि ऐसा न होता तो यही प्लास्टिक कचरा न जाने किस -किस तरह मुसीबतों को बढ़ाता। आज लगभग ८० प्रतिशत प्लास्टिक कचरा इकठ्ठा कर उसे पुन: उपयोग में लाने लायक बनाया जा रहा है।

प्लास्टिक के पेड़


अब पर्यावरणविदों और स्थानीय अधिकारियों को सावधानीपूर्वक इस बात पर पुनर्विचार करना चाहिए कि प्लास्टिक कचरा बीनने और इकठ्ठा करनेवालों पर प्रतिबंध उचित है या अनुचित?" ये तो वे लोग हैं जो समाज में चुपचाप पर्यावरण के प्रति जागरूकता को बढ़ा रहे हैं और प्लास्टिक कचरा उद्योग का देश में सफलतापूर्वक प्रबंधन भी कर रहे हैं। समूची दुनिया के जंगल कटने से मौसम-चक्र, जल-चक्र में परिवर्तन, वायुमंडल में तापक्रम में बेतहाशा वृद्धि अब चिंता का विषय है। पिछले कुछ वर्षों में यह चिंता और अधिक गहराई है।

पिछले दशक में १५ करोड़ हैक्टेयर से भी अधिक कटिबंधीय वनों का सफाया हुआ है। पुन: वनीकरण के प्रयास निर्धारित लक्ष्य से बहुत कम हैं। अब तक केवल ३ करोड़ ७० लाख हेक्टेयर में ही वृक्षारोपण हो पाया है। लेटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया सर्वाधिक प्रभावित महाद्वीप हैं। लगातार जंगल कटने से पर्यावरण असंतुलन बढ़ा है। स्पेन के एक इंजीनियर एँटोनियों इवानेज अल्वा ने कुदरती पेड़ों के संभावित विकल्प के रूप में प्लास्टिक के पेड़ों को विकसित किया है। पोली पेरेथेन से बने ये कृत्रिम पेड़ रात में अपनी सतह पर जमा होनेवाली ओस को सोखते हैं और दिन में धीरे-धीरे हवा में मुक्त करते हैं। इस प्रक्रिया से आसपास का तापमान कम हो जाता है। तापक्रम में यही कमी वर्षा को प्रेरित करती है। प्लास्टिक के इन कृत्रिम पेड़ों को अगर रेगिस्तान में उगनेवाले प्राकृतिक पौधों के साथ पर्यावरण सुधार के लिए प्रयोग में लाया जाए तो इसके अच्छे परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। इनमें वर्षा क्रम भी नियमित करने में मदद मिल सकती है। जिससे प्राकृतिक वनस्पतियों के पनपने में सहायता मिलेगी और पर्यावरण में उत्तरोत्तर सुधार और हरियाली के विस्तार का क्रम चल पड़ेगा। देखने में ताड़ के समान ये पेड़ पोलीयूरेथेन और फिनोलिक फोम के होते हैं।

ये पेड़ जमीन से पानी या अन्य तत्व सोखने की क्षमता नहीं रखते। तने की संरचना पोलीयूरेथेन की कई परतों की होती है जिनका घनत्व अलग -अलग होता है। ये पेड़ ७० डिग्री से ५ डिग्री सेंटीग्रेड तक के तापक्रम में प्रभावी ढंग़ से काम कर सकते हैं। प्लास्टिक के पेड़ों की विशेषता यह भी है कि उनके रखरखाव पर कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। लीबिया, मोरक्को, अल्जीरिया, मारतानिया सहित कई अफ्रीकी देश अपने रेगिस्तानों में हरियाली की वापसी के लिए इन कृत्रिम पेड़ों की सहायता लेने का प्रयास कर रहे हैं। प्लास्टिक का विश्व पर्यावरण से संबंध अति महत्तवपूर्ण है। प्लास्टिक ऊर्जा पैदा करे, प्लास्टिक हरियाली लाए, प्लास्टिक मानव कल्याण की दिशा में आगे बढ़े ये तो सब चाहेंगे। पूर्ण सतर्कता इस बात में बरतनी है कि प्लास्टिक पर्यावरण विनाश का कारण न बने।

१६ जुलाई २००४

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