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प्रकृति और पर्यावरण

बिन चिड़िया का जंगल
-विश्वनाथ सचदेव


'एक थी चिड़िया नन्हीं मुन्नी, चीं चीं करती आती थी वो
मुझको रोज जगाती थी वो, मीठा गाना गाती थी वो
हाथ बढ़ाता था जब भी मैं, फुर्र से उड़ जाती थी वो।'
वह नन्हीं मुन्नी चिड़िया जो मेरे बचपन में फुर्र से उड़ जाया करती थी, अब सचमुच ही उड़ गई है।

कुछ ही दिन पहले मुम्बई के एक बड़े अखबार में इस छोटी सी चिड़िया के बारे में एक खबर छपी थी। खबर पक्षीविदों की यह चिंता उजागर करती थी कि मुम्बई में गौरेयों की संख्या लगातार घट रही है और कौओं की संख्या बढ़ती जा रही है। खबर को पढ़कर मुझे एक पुरानी घटना याद आ गई। एक दिन अचानक ही मुम्बई के एक व्यस्त इलाके में पौधों के एक झुरमुट में एक तितली को देखकर अचानक मुझे अहसास हुआ था -अरे, कितने दिनों बाद मैं देख रहा हूँ तितली को। मैं याद नहीं कर पाया था, पिछली बार मैंने तितली को कब देखा था।` तब मैंने अनुभव किया था सीमेंट -कंक्रीट के जंगल में रहने वाले हम नागरिक भी बेजान इमारतों की तरह संगदिल होते जा रहे हैं।- प्रकृति की कोमलता से जैसे हमारा कोई रिश्ता ही नहीं रहा।

उस दिन एक तितली का दिखना और आज नन्हीं गौरैया का न दिखना मात्र संयोग भी हो सकता है। यह भी हो सकता है, और शायद है भी यही बात कि हमारी शहरी सभ्यता ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करती जा रही हो, जिसमें घर में चार गमले रखकर जंगल का सुख भोगने का भ्रम हमें पालना पड़ता है और घर में दो बाई दो फुट का 'समंदर' बनाकर हम सातों समुन्दरों की रंग बिरंगी मछलियों को निहारने का सुख पा लेते हैं।

सच्चाई यह है कि इस तरह प्रकृति से निकटता का भ्रम हम भले ही पाल लें, पर शहरी जीवन की सीमाओं विवशताओं ने हमें प्रकृति के उन उपहारों से बहुत दूर कर दिया है जो हमारे अनजाने में ही हमारी झोली सौगतों से भर जाते थे। बच्चों का तितली के पीछे दौड़ना भले ही हमें निरा खेल लगे, पर सौन्दर्य को हाथों से समेटने सहेजने की यह चाह हमारे भीतर उस मनुष्य के जीवित होने का प्रमाण हैं, जो रंगों को देखकर चहक सकता है, जिसे एक नन्हीं तितली को छू पाना भी अच्छा लगता है और उसका उड़ उड़ जाना भी। जब चिड़िया का चहकना हमें अच्छा लगता है, तब भी हमारे भीतर का मनुष्य जी रहा होता है, जाग रहा होता है।

महानगरों और फ्लैट संस्कृति ने जो बहुत कुछ हमसे छीना है, उसमें वह आँगन भी है जहाँ सबेरे सबेरे सूरज की किरणें और चिड़ियों की चहक एकसाथ उतरा करती थी। जहाँ तुलसी चौरे में पानी देकर जीवन सूर्य की ऊष्मा को प्रणाम करता था। जहाँ बचपन खेलता था, जहाँ बुढ़ापा धूप सेकता था। अब फ्लैट की छोटी सी खिड़की से धूप आती भी है तो सहमी -सहमी सी। खिड़की की लोहे की जाली में से घुसकर भीतर आने में टुकड़े -टुकड़े हो जाती है बेचारी। और अगर गलती से कोई चिड़िया भीतर पहुँच गई तो उस अभागिन का आकाश ही छूट जाता है उससे। कहाँ-कहाँ टक्कर नहीं मारनी पड़ती उसे दीवारों से घिरे उस तथाकथित घर से बाहर निकलने के लिए।

ऐसे घरों में निवास करने वाला मन भी कितना संकुचित हो जाता है- न उस मन में रिश्तों की ऊष्मा के लिए जगह होती है, न किसी तितली या किसी नन्हीं चिड़िया की जिन्दगी से जुड़ने की उमंग। पत्थर होने का और क्या मतलब है? पत्थर न होते जा रहे होते अगर हम तो हमारे जीवन से चिड़िया की चहक का इस तरह फुर्र से उड़ जाना हमें कुछ तो
अखरता। अखबार में खबर पढ़कर ही हमें क्यों याद आता कि अरे हाँ, बहुत दिनों से चिड़िया दिखी नहीं।

हाँ, जीवन में ऐसे क्षण अब भी आते हैं जब हमें चिड़िया का कम दिखना खलता है, तितली का न दिखना हैरानी या पीड़ा दे जाता है। ये वे क्षण होते हैं जब हमारे भीतर मनुष्य बनकर जीने की इच्छा जगती है तब हमें सवेरे -सवेरे घास पर चलते हुए अचानक आशंका होती है कहीं हमारी ठोकर लग कर ओस का मोती बिखर न जाए। कहीं हमारे पांव तले दुर्वादल कुचल न जाए। वे क्षण मानवीय करूणा को महसूसने -जीने के क्षण होते हैं। अपने भीतर के देवत्व के निकट
होने के क्षण होते हैं वे। काश, वे क्षण हमारे जीवन का स्थाई भाव बन सकें ! काश !

एक बार जापान जाने का मौका मिला था मुझे। तब मैं हिरोशिमा भी गया था। दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम की विभीषिका झेलने वाले इस शहर को जापानियों ने बहुत ही सुन्दर रूप दिया था। खूब सारे बगीचे हैं वहाँ। पेड़ तो असंख्य हैं। एक दिन पेड़ों की दो कतारों के बीच से गुजरते हुए अचानक मुझे लगा कि वहाँ कौए बहुत हैं। उन कौओं का आकार भी हमारे यहाँ के कौओं से बड़ा था। तभी मुझे यह भी महसूस हुआ था कि वहाँ कौए ही कौए हैं, दूसरे पक्षी नहीं हैं। बहुत अजीब लगा था मुझे। मैंने अपनी मार्गदर्शिका से पूछा था - यहाँ कौए ही क्यों दिखते हैं? दूसरे पक्षी नहीं होते क्या यहाँ के ? उसने जरा हैरानी से मेरी ओर देखा था। 'के', हाँ वह चाहती थी उसे इसी एक अक्षरी नाम से पुकारा जाए, पहले भी एक-दो बार बता चुकी थी- आप पत्रकार लोग बहुत अजीब सवाल पूछते हैं। इस बार उसने मुँह से यह कहा तो नहीं था, पर देखा कुछ इसी तरह से था। फिर तनिक सोचकर 'के' नाम जवाब दिया था, 'सच तो यह है कि मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। पर मुझे लगता है इस स्थिति का कुछ रिश्ता दूसरे विश्वयुद्ध से जरूर होगा।'

उसे इसके आगे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी। दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम का विभीषिका सिर्फ जापानी जनता ने ही नहीं झेली थी। जापान के पेड़ -पौधे भी झुलसे थे उस आग में, और वहाँ के पशु-पक्षियों ने भी भोगा था उस जहर का परिणाम। जापान आज भी परमाणु बम जनित रेडियोधर्मिता के दुष्परिणाम भुगत रहा है। कोई अचरज नहीं कि मनुष्य के सिरजे उसी जहर ने नन्हीं गौरेया को भी मार दिया हो। बचती भी कैसे वह नन्हीं-सी जान थी। मर गई। मैंने मन ही मन सोचा था तब, शुक्र है, कौए बच गए। अपने छोटे -छोटे पंखों से खुले आकांक्षा को नापने की आकाश का कोई भी प्रतीक बचा है।

कहते हैं, युद्ध में सबसे पहले मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ की बलि चढ़ती है। उसके भीतर की करूणा मरती है। एक-दूसरे से जुड़ने-जोड़ने वाली संवेदना मरती है। उसकी मनुष्यता समाप्त होती है। 'आधुनिकता' और 'विकास' के नाम पर आज जो अघोषित लड़ाई लगातार चल रही है जीवन में, उसमें सांस्कृतिक मूल्य सबसे पहले बलि चढ़ते हैं। विकास की इस अंधी दौड़ में हम इसे महसूस ही नहीं कर रहे कि अपना कितना कुछ लुटाकर, गंवाकर हम आगे जा रहे हैं। (सच तो यह है कि यह आगे जाना भी एक भ्रम ही है।) हमें इसका पता भी नहीं कि जिस जेब में अपनी उपलब्धियों को हम रखते जा रहे हैं, वह जेब फटी हुई हैं। कुछ भी तो नहीं बच पा रहा हमारे पास।

वह नन्हीं -सी चिड़िया जो कभी चीं-चीं करती हमारे आँगन को भरा-भरा बना जाती थी, अब कम दिखने लगी है। पक्षीविद कहते हैं, हम उन परिस्थितियों को समाप्त करते जा रहे हैं, जिनमें ऐसे नन्हें जीव पल सकें। परन्तु प्रश्न सिर्फ उन परिस्थितियों के समाप्त होते जाने का नहीं है। प्रश्न उस मानवीय एहसास को लगातार खोते जाने का भी है, जो किसी नन्हीं-सी जान के होने को महत्त्वपूर्ण बनाता है, अर्थवान बनाता है। प्रश्न उन संवेदनाओं के भोथरी होते जाने का भी है जो प्रकृति के साथ मनुष्य के रिश्तों को आकार देती है, उस विराट के साथ जोड़ती हैं जो मनुष्य की लघुता को समाप्त कर देता है।

किसी महानगर में चिड़ियों के कम होने का समाचार महज एक अदद जानकारी नहीं हैं। उस समाचार का अर्थ यह भी है कि हम कुछ गँवा रहे हैं। अगर उस समाचार को पढ़कर हमारे भीतर खलबली नहीं मचती है और हम सिर्फ यह कहकर रह जाते हैं कि अरे हाँ, मैंने भी बहुत दिन से चिड़िया नहीं देखी, तो इसका अर्थ यह भी है कि हमारे भीतर की मनुजता का एक महत्त्वपूर्ण अंश निष्प्राण होता जा रहा है।

पिछली सदी के एक महत्त्वपूर्ण चिंतक शूमाकर ने कहा था, स्माल इज ब्यूटिफुल ज़ो छोटा है, वही सुन्दर है। सत्य, शिव, सुन्दर मात्र शब्द बनकर रह गए हैं हमारे लिए। हम इन शब्दों को जिएंगे कब? कब हमें यह चीज चुभेगी, खलेगी कि चिड़िया हमारे आँगन में चहकती फुदकती क्यों नहीं? तितली हमें दर्शन क्यों नहीं देती?

हमारी त्रासदी तो यह है कि अब हमें कोयल की कूक भी अच्छी नहीं लगती। अरसा हो गया उस घटना को, पर आज भी वह याद है मुझे। मुम्बई की एक ऊँची इमारातों वाली कालोनी के ऊँचे लोगों ने एक कोयल पर पानी डाल -डाल कर उसे अपने यहाँ से भगा दिया था। उसका कसूर यह था कि वह पौ फटने से पहले ही गाना शुरू कर देती थी। उसकी कुहू कुहू से कालोनी के बड़े लोगों की नींद खराब हो गई थी। शामे-अवध और सुबहे-बनारस छोड़कर मुम्बई आए शायर सरदार जाफरी इस बात से हैरान थे कि कारों, ट्रंकों, बसों, रेलगाड़ियों, हवाई जहाजों की कानफोडू आवाज में जीने वाले सीमेंट के जंगल के लोगों को कोयल की मीठी आवाज से परेशानी क्यों है? ये वही लोग हैं न जो अपने घरों की घण्टियों में कोयल की आवाज भरकर अपना अभिजात्य प्रकट करना चाहते हैं- यह जताना चाहते हैं कि उन्हें कोयल की आवाज के मीठेपन की जानकारी है। कोयल की कूक का अच्छा लगना एक फैशन की तरह स्वीकार है इन्हें। अब, कोई फैशन हमेशा के लिए तो बना नहीं रहता। नहीं पैदा हुई होगी कीट्स की बुलबुल मरने के लिए। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हवाई
जहाज की तरह किसी चिड़िया को भी नींद में खलल डालने का अधिकार दे दिया जाए !

ऐसी हालत में कोई चिड़िया हमारे आँगन में क्यों चहके? क्यों कोई तितली हमारे जीवन में रंग भरे? आखिर हम कब समझेंगे कि कोयल की कुहू कुहू सिर्फ मीठी आवाज नहीं होती, तितली के रंग -बिरंगे पंख सिर्फ सुन्दर नहीं होते। यह आवाज यह सौन्दर्य फूल के खिलने जैसे रहस्यों जैसा है। अब हम इस रहस्य को भी नहीं जानना चाहते। हम भूल गए हैं कि रहस्य को समझने की इसी प्रक्रयिा ने हमें पशु से मनुष्य तक पहुँचाया है। आखिर हम पीछे क्यों लौटना चाहते हैं?

२४ अगस्त २००४

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