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पर्यटन

हिमालय के हमसफर
अम्बरीश मिश्रा

 

हिमालय की गोद में डन्कार और स्पीति घाटी

 

हिमालय के दुर्गम स्थानों की अपनी पदयात्राओं की याद आते ही स्वर्गीय भास्कर जी की छवि तथा उनकी बातें स्मृति पटल पर उभर आती है। उनके बिना हिमालय की यात्राओं के कार्यक्रम कई बार बनाये पर योजना कागज तक ही सीमित रह गयी। वे हम लोगों के प्रेरक तथा हमारी यात्राओं के पथ प्रदर्शक थे।

भास्कर जी यात्राओं के समय कहा करते थे कि हिमालय के मूड का किसी को पता नहीं कि साफ सुथरा दृश्य कब घने बादलों से ढक कर सघन अन्धकार में बदल जाये। इसीलिए उनके साथ अप्रैल १९९२ में हिमालय के पिन्डारी ग्लेशियर के आस-पास के भागों की पैदल यात्रा का अभियान त्याग कर ९५०० फीट पर स्थित धाकुड़ी खाल (दर्रा) पहुँच कर दूसरा कार्यक्रम बनाना पड़ा था, क्योंकि उस भाग में बर्फ के पहाड़ों के फटने से पिन्डारी का रास्ता ही बन्द हो गया था। हम लोग हलद्वानी से बस द्वारा भवाली, अल्मोड़ा, कौसानी, बैजनाथ, बागेश्वर होते हुए सौंग पहुँचे फिर वहाँ दो पोर्टरों को साथ लेकर पैदल यात्रा करते हुए लोहार खेत में एक रात रूक कर फिर तीन पहाड़ों के घुमावदार रास्तों को पार करके पहुँचे थे, धाकुड़ी खाल।

भास्कर जी के मस्तिष्क में हमेशा पूरा हिमालय अंकित रहता था, इसलिए दूसरे स्थान का चयन करने में कठिनाई नहीं हुई, और हम लोग १२००० फीट पर स्थित चिल्टा टॉप के लिये चल पड़े उसी दिन तथा शाम होने से पहले ही पहुँच गये। एकदम सुनसान स्थान, लाल फूलों से लदे बुरास (रोडोडेनड्रान) के पेड़ों के घने जंगल से घिरा, ऊँचा नीचा ढलावदार मैदान, जिसकी चोटी के एक भाग में एक टूटा-फूटा ग्राम देवता का मन्दिर था। अधिक ऊँचाई होने के कारण जगह-जगह बर्फ जमी हुई थी। चिल्टा शिखर से पिन्डारी की बर्फ से ढ़की पर्वतमालाएँ साफ-साफ दिखाई दे रही थी। वहाँ से पिन्डारी
का करीब दो दिन का रास्ता था।

चिल्टा चोटी पर स्थित मन्दिर में हर वर्ष नन्द अष्टमी का मेला आषाढ़ माह में लगता है तथा नन्दा देवी की पूजा करने लोग आते हैं। दूर दराज के गाँवों से आते हैं भोले भाले लोग, बूढ़े, बच्चे तथा जवान, सभी कष्ट उठा कर इतनी ऊँचाई पर। न जाने कितनी मनौतियाँ मन में साध कर आते होगे वे लोग और कुछ आते होंगे अपनी पिछली मन्नत पूरा होने पर देवी का आभार प्रकट करने। आँखों के आगे कल्पना में उन भोले भाले, रंग बिरंगी पोशाकों से सज्जित लोगों का
मेला उतर आया।

अँधेरा सघन होने से पहले ही तीन टेन्टों को जल्दी -जल्दी लगाया गया क्योंकि तेज चलती ठन्डी हवाओं ने चरम सीमा तक वातावरण में सर्दी होने का आभास दिला दिया था। बूँद-बूँद टपकने वाले जल से बनी एक छोटी सी झील से पानी लाकर खाना बनाया तथा जल्दी-जल्दी निगल कर टैन्टों में घुस गये हम सभी लोग। तेज चलती हवा के टेन्टों से टकराने से ही ह़ी क़ी आवाज निकलने से वातावरण कुछ डरावना सा हो गया था, इसलिए नींद भी नहीं आ रही थी। जो कुछ कपड़े थे हम लोगों के पास उनमें ठन्ड लग रही थी। वह रात अपने आप में अनोखी तथा उत्तेजना भरी थी, कान लगाकर जंगल का संगीत सुनने की चेष्टा करते रहे, क्योंकि रात में जंगल का अपना ही एक अलग संगीत होता है। जानवर बाहर निकल कर अपनी-अपनी आवाजें निकाल कर अपने भावों का प्रदर्शन करते हैं। अपनी मार्च १९८८ में हिमालय के नाग टिब्बा की यात्रा के समय रात में सुरक्षा की वजह से जगते रहने के समय भी ऐसा ही अनुभव हुआ था। रात भर नाखुरा पक्षी की आवाज सुनने में एक अनोखा अनुभव हुआ। दूर कही एक पक्षी अपनी आवाज से संगीत की शुरूआत करता, जैसे ही वह समाप्त करता दुसरा शुरू करता और इसी तरह पक्षियों के स्वर के क्रम से पूरा जंगल संगीतमय वातावरण में बदल गया। ठन्ड तथा जंगल के संगीत में बाते करते हुये कब आँख लग गई, शायद सुबह की बेला में ही लगी होगी। सीधी धूप की किरणों के ताप से हम लोगों की आँखे खुली थी जाकर उस दिन।

डन्कारभास्कर जी हमेशा हिमालय की यात्राओं में हम लोगों से भिन्न-भिन्न विषयों पर चर्चा करते रहते थे, कभी बांग्ला के पुराने साहित्य पर, कभी देश की आजादी की क्रान्ति के समय की बाते कि कैसे उनके पिता तथा साथियों ने अपने जीवन को बलिदान कर दिया एक जोश के साथ। दूसरे दिन दोपहर के बाद ही हम लोग चिल्टा टॉप से वापस धाकुड़ी के रेस्ट हाउस के लिये निकल पाये। पोर्टरों से विचार विमर्श के बाद पता लगा कि एक और शॉर्टकट है, जिससे जल्दी पहुँच जा सकता था। उत्तेजना के वातावरण में किसी को आगे आने वाली विपदा का आभास तक नहीं था, क्योंकि भास्कर जी के रहते कौन इन सबके लिये अपनी माथा पच्ची करे। थोड़ा आगे चलकर घुमाव दार रस्ते से मुड़ते ही ग्रुप दो भागों में कैसे बट गया, किसी को पता ही नहीं चला। हमारे साथ एक पोर्टर तथा भास्कर जी सहित तीन और साथी ने, जबकि दूसरे ग्रुप में दूसरा पोर्टर तथा एक साथी। दोनों ग्रुप में पोर्टर थे, इसलिए बहुत अधिक चिन्तित होकर खोज खबर नहीं की। हम लोगों के साथ तो भास्कर जी थे अत: समय से धाकुड़ी पहुँचने की पूरी निश्चिंतता थी। पिछली यात्राओं के समय हिमालय में रास्त की लीक से हटने तथा उसके बाद घन्टों भटकते रहने के कष्ट से अच्छी तरह सभी लोग परिचित थे।

रास्ते का अनुसरण करते-करते सभी लोगों ने अपने आप को नीचे की ओर जाते नाले नुमा रास्ते में पाया, जिसमें पेड़ों के सूखे पत्तों की चादर सी बिछ जाने से आगे की दिशा पहचानना कठिन हो रहा था। इसलिए नीचे खाई में चलते रहने के अलावा कुछ सुझ नहीं रहा था। पत्तों पर पैर फिसलने के कारण जल्दी-जल्दी चलना भी कठिन हो गया था। हिमालय की अनेक यात्राओं के नायक भास्कर जी भी कई बार गिरे। शुरू में तो हम लोग बारी-बारी से गिरने की गिनतियाँ गिनते हुये एक दूसरे की हँसी उड़ाते हुये अपनप आप को भय से अलग रखने की कोशिश करते रहे, पर जब देखा कि हमारा लीडर ही धड़ाम-धड़ाम गिर रहा था तो हैसियों की खिलखिलाहट सन्नाटे में बदल गई। हमारा पोर्टर कमल सिंह तो काफी दूर तक फिसलता ही चला गया और सामान सहित हम लोगों से काफी आगे पहुँच गया। दो घन्टे से अधिक उस नाले नुमा रास्ते में किनारे पर लगे बाँस के सूखे पेड़ों की टहनियों को पकड़ -पकड़ कर उतरने की चेष्टा करते रहे, पर रास्ते का अन्त नहीं समझ पा रहे थे। ऊपर देखने पर आसमान की हल्की झलक दिखाई दे रही थी तथा सभी को तब आभास हुआ कि हम लोग काफी नीचे खाई में आ गये थे। यह जान कर आतंक तथा भय के चिह्न सभी के चेहरों पर नज़र आने लगे थे। अगर विचलित नहीं थे समुद्र की गहराई जैसे धैर्य रखने वाले भास्कर जी। अपनी हिमालय की यात्राओं में कई बार कठिनाइयों से गुजरने के बाद भी उनकी यह इच्छा अभी तक पूरी नहीं हो पाई थी कि हिमालय में कहीं वे खो जाये और भटकते रहें। कटाक्ष करते हुए हमने भास्कर जी से कहा- "लो अब होगी आपकी इच्छा पूरी, जब इस खाई में ही रहना पड़ेगा रात भर जंगली जानवरों के साथ-साथ।"

काफी देर शान्त रहने के बाद भास्कर जी ने मुँह खोला - "लगता है हम लोग डन्कार तक पहुँच गये, यानी वह जगह जहाँ खाई में जाकर रास्ता सामने सीधा पहाड़ आ जाने से समाप्त हो जाये।"
डन्कार का शब्द तथा उसका विश्लेषण भास्कर जी से सुनते ही सभी के मुँह से चीख सी निकल गई, क्योंकि रात में जंगल के जानवरों का निकलना तथा ऊपर से पहाड़ के टूट -टूट कर खाई में गिरने की सम्भावनाओं की कहानियाँ सभी लोग सुन चुके थे। हम लोग भूले नहीं थे जब मार्च १९८८ में हिमालय के 'तराग लाल' तथा 'देवरिया ताल' की अपनी पहली यात्रा के समय भास्कर जी के एक साहसिक निर्णय के कारण घन्टों रात्रि के दूसरे पहर तक पानी में भीगते हुये भटकते रहे थे। तब भास्कर जी को हमने अपनी कायरता वश बहुत कुछ कहा था उस रात्रि में, पर भास्कर जी चुपचाप सुनते रहे। बाद में हमें अपने व्यवहार के लिये बहुत दुख हुआ था, इसलिये इस बार दुर्गम
स्थिति में घिर जाने पर भी आतकित होते हुये कुछ भी नहीं बोलना चाह रहे थे।

अन्धेरा सघन होने का आसार शुरू हो गये थे, ऊपर से टैन्ट आदि आवश्यक सामान दूसरे ग्रुप के पोर्टर के पास होने से हमारी समस्याओं में और चार चाँद लग गये थे। जोर -जोर से दूसरे पोर्टर को आवाज लगाई, जो गूँज कर वापस हम लोगों के पास ही आ रही थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। एक विचार बना कि वापस जिस रास्ते से आये हैं उसी से ऊपर चिल्टा टॉप पर चला जाये, पर घन्टों उस फिसलने वाली जगह से चढ़ने का विचार आने पर ही सभी की हिम्मत टूट गई। ऊपर से चिल्टा टॉप पहुँचकर भी बिना टैन्ट तथा अन्य आवश्यक सामान के कैसे रहा जा सकता था। लग रहा था कि सारी रात यही बैठना पड़ेगा, ठन्ड में भूखे प्यासे। सभी ने करीब-करीब अपना मन इन परिस्थितियों से निपटने के लिये बना लिया, तभी पोर्टर कमल सिंह तथा भास्कर जी की आवाज सुनाई दी, जो एक किनारे से ऊपर चढ़कर कुछ खोज रहे थे- "आ जाओ, लगता है रास्ता इधर से जा रहा है ऊपर।" थके हारे मुर्दे जैसे हम लोगों में एक शक्ति सी आ गई कहाँ से। जो वे लोग कह रहे थे बाकी लोग उसे निश्चित करने के लिये उत्सुकता से एकदम उठकर भास्कर जी की ओर दो -तीन बार फिसलते हुये पहुँचे। बारी-बारी से सभी ने मायना किया उस रास्ते का, कुछ समझ
नहीं आया, लेकिन दूसरा कोई चारा नहीं था, इसलिए चुपचाप भास्कर जी के पीछे-पीछे चलने लगे।

उस सीधी खाई में कहाँ से रास्ता बनाया था किसी ने। ठन्ड बढ़ने के साथ-साथ अन्धेरा भी हो गया था तथा झी-झी की आवाज उस सूनसान वातावरण को चीर कर और भी भयावह बना रही थी। इस रास्ते में फिसलन कम होने के कारण लोग जल्दी-जल्दी चल कर रास्ता तय कर पा रहे थे। सभी जानते थे कि जब रास्ता है तो कहीं न कहीं ले ही जायेगा, अब सभी को उस रास्ते का ही सहारा था, क्योंकि डन्कार के मुँह से निकल कर आ रहे थे और नई जगह उससे कठिन तो नहीं होगी। सभी का बोतलों में साथ लाया पानी भी समाप्त हो चुका था तथा मुँह सूखने लगा था। तभी आगेवाले सदस्य ने टार्च की रोशनी से देखकर बकरी जैसे जानवरों के पैरों के निशानों को पाकर यह निश्चित कर दिया कि पास में अवश्य ही गाँव होगा। लोगों में आशा की भावना से हिम्मत और बढ़ गई। हम लोगों को घुमावदार रास्त से चढ़ने के बाद फिर एक सपाट रास्ता मिला, जिस पर कुछ देर चलने के बाद जैसे ही घने पेड़ों के जंगल को पार किया तो एकदम
सामने धाकुड़ी का रेस्टहाउस देख कर सभी लोग खुशी के मारे उछल कर एक दूसरे के गले से लिपट पड़े।

हमारे दूसरे ग्रुप के लोग जो शुरू में ही बिछड़ गये थे, पहले से ही धाकुड़ी पहुँच कर उत्सुकता से हम लोगों का इन्तजार कर रहे थे। वे लोग ढलान वाले रास्ते से न आकर सीधे ऊपर के रास्ते से पहुँचे थे, जिसको हम अन्तिम भाग में ढूँढ पाये थे। देर रात तक आपस में रोमान्चक क्षणों का आदान प्रदान करते रहे हम सभी। हमें लगा कि भले ही हम लोग शारीरिक तथा मानसिक रूप से बिखर चुके थे, पर बदले में जो पाया उसे दूसरो के साथ बाँटने में बड़ा ही आनन्द सा आ रहा था, क्योंकि ऐसे मौके कम ही आते हैं जीवन में। मुँह में पान दबाए भास्कर जी मुस्कराते हुए मन ही मन शायद हम लोगों को उन डरपोक क्षणों की याद दिला रहे थे, या फिर सुबह उठ कर अपनी अगली हिमालय की इससे भी कठिन किसी नये डन्कार में जाने की योजना बना रहे थे।

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