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पर्व परिचय


सिंदूर खेला
दुर्गा पूजा की आनंदमयी प्रथा
- पूर्णिमा वर्मन


जब गुनगुनाती हवा के झोंकों में शरद की शीतलता का मखमली एहसास हो, प्रकृति काँस के फूलों से सजकर सफेद फूलों का कालीन बिछा दे, धूप की सुनहरी चमक से जगमग हर ओर का वातावरण उत्सवों के आगमन से उल्लसित नजर आए, तो यह समझ लेना चाहिये कि उत्सवों के दिन आ गए है और दुर्गा पूजा की शुरुआत होने वाली है। दुर्गा पूजा अर्थात शारदीय नवरात्र, जिसमें नौ दिन जहाँ एक ओर रामलीला खेली जाती है और दसवें दिन दशहरे का पर्व मनाया जाता है वही दूसरी ओर नौ दिन दुर्गापूजा होती है और दसवें दिन सिंदूर खेला के साथ दुर्गापूजा का कार्यक्रम पूरा होता है।

नवरात्रि का आरंभ

अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शारदीय नवरात्रि की शुरुआत होती है और इस दौरान देश का कोना-कोना त्यौहार की पवित्रता से सुवासित होकर उसकी चमक दमक से आलोकित हो उठता है। इससे एक दिन पहले ही दुर्गापूजा का आरंभ पितृपक्ष के अंतिम दिन से ही शुरू हो जाता है, जिसे महालया कहते हैं। ब्रह्ममुहूर्त में रेडियो/टीवी पर “महिषासुरमर्दिनी” की गाथा प्रसारित होने की परंपरा है। महालया के अगले दिन शारदीय नवरात्रि की प्रतिपदा (शुक्ल पक्ष का पहला दिन) शुरू होती है। इसी दिन देवी पक्ष की शुरुआत मानी जाती है। पूजा के पंडाल सज चुके होते हैं, घटस्थापना होती है और पूजा का प्रारंभ हो जाता है। यह तैयारी माँ दुर्गा के मायके आने की है।

माँ दुर्गा का आगमन

जैसे एक बेटी जब मायके आती है वैसे ही माँ दुर्गा अपने ससुराल कैलाश पर्वत से पृथ्वी पर अपने मायके पधारती हैं। यहाँ यह जानना रोचक रहेगा कि बंगाल में बेटी को भी माँ कहा जाता है। तो इस बेटी के स्वागत की तैयारी- भक्ति पूजा और भजन प्रतिपदा के एक दिन पहले से शुरू हो जाते हैं। माँ पाँच दिन बाद षष्ठी के दिन अपने बच्चों भगवान गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी और कार्तिकेय के साथ पाँच दिनों के लिये (षष्ठी से दशमी तक) पधारती हैं। यही पाँच दिन दुर्गा पूजा के रूप में मनाए जाते हैं। जिस तरह किसी कन्या के मायके आने पर उसकी आवभग की जाती है, उसी तरह इन पाँच दिनों में माँ दुर्गा की भी खूब सेवा की जाती है।

पंडाल में उनके पधारने के बाद धूमधाम से उनके शृंगार और प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान होता है। बेल वृक्ष पूजन, देवी का "बोधन" (आवाहन), और मूर्ति का अनावरण किया जाता है। ढाक नामक नगाड़े और झाँझ के साथ माँ दुर्गा की पूजा, आरती और अंजलि के लिये लोग सुबह शाम दो समय पंडाल में उपस्थित होने लगते हैं। जैसे एक बेटी जब मायके आती है वैसे ही माँ दुर्गा अपने ससुराल कैलाश पर्वत से पृथ्वी पर अपने मायके पधारती हैं। यहाँ यह जानना रोचक रहेगा कि बंगाल में बेटी को भी माँ कहा जाता है। तो इस बेटी के स्वागत की तैयारी- भक्ति पूजा और भजन प्रतिपदा के एक दिन पहले से शुरू हो जाते हैं। माँ पाँच दिन बाद षष्ठी के दिन अपने बच्चों भगवान गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी और कार्तिकेय के साथ पाँच दिनों के लिये (षष्ठी से दशमी तक) पधारती हैं।

यही पाँच दिन दुर्गा पूजा के रूप में मनाए जाते हैं। जिस तरह किसी कन्या के मायके आने पर उसकी आवभग की जाती है, उसी तरह इन पाँच दिनों में माँ दुर्गा का भी खूब सत्कार किया जाता है। पंडाल में उनके पधारने के बाद धूमधाम से उनके शृंगार और प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान होता है। बेल वृक्ष पूजन, देवी का "बोधन" (आवाहन), और मूर्ति का अनावरण किया जाता है। ढाक नामक नगाड़े और झाँझ के साथ माँ दुर्गा की पूजा, आरती और अंजलि के लिये लोग सुबह शाम दो समय पंडाल में उपस्थित होने लगते हैं। यह उत्सव एक बेटी के घर आने का उत्सव है जिसमें भक्ति भाव, राग रंग, भोजन और भजन सभी की प्रचुरता रहती है। अनेक प्रकार के भोजन बनते हैं जिसमें माँ दुर्गा की पसंद के भोजन शामिल होते हैं। इसलिये इन उत्सवों को दौरान मांस-मछली का भोग भी लगाया जाता है।

माँ दुर्गा का विसर्जन

यों तो देश भर में नवरात्रि धूमधाम से मनाई जाती है, पर सबसे ज्यादा चर्चा रहती है पश्चिम बंगाल में मनाई जाने वाली दुर्गा पूजा की। दुनिया भर से लोग पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा में शामिल होने के लिए भारत आते हैं। पाँच दिन माँ पृथ्वी पर रहती हैं और दशमी का दिन माँ दुर्गा के ससुराल वापसी का होता है। बंगाल में जिस तरह एक विवाहित बेटी को सिंदूर लगाकर, अखंड सौभाग्य की कामना के साथ विदा किया जाता है वैसे ही माँ दुर्गा कों सिंदूर लगाकर देवी को विदा करते हैं और सिंदूर खेला की परंपरा निभाते हैं। माँ दुर्गा को सिंदूर लगाने की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है विशेष रूप से बंगाली समाज में इसका बहुत महत्व है पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में लगभग चार-साढ़े चार सौ साल पहले सिंदूर खेला की रस्में शुरू हुई थीं, जब माँ दुर्गा को खुशी-खुशी ससुराल विदा करने से पहले महिलाएँ नए वस्त्र आभूषण पहनकर माँ दुर्गा को विभिन्न प्रकार के मिष्ठान्न एवं भोग चढ़ाकर, एक दूसरे को सिंदूर लगाकर आनंद मनाते हुए विसर्जन में भाग लेती थीं।

सिंदुर खेला का महत्व

हिंदू धर्म में सिंदूर का बहुत महत्व है। इसे सदियों से महिलाओं के सुहाग की निशानी माना जाता है। भारतीय शृंगार परंपरा को सोलह शृंगार का भी यह प्रमुख अंग है। बंगाल में एक दूसरे से मिलने या विदा लेने के समय भी विवाहित महिलाओं में एक दूसरे को सिंदूर लगाने की प्राचीन परंपरा है। इस परंपरा के साथ कई मान्यताएं भी जुड़ी हुई है ऐसा माना जाता है की दशमी के दिन सिंदूर खेला करने से सुहागिनों के पति की आयु लंबी होती है। इस क्रिया में एक दूसरे का शृंगार करना, आदर करना और आशीर्वाद देने के अनेक भाव छुपे हैं।

इन्हीं भावों से विदा के क्षण में महिलाएँ दुर्गा माँ को सिंदूर लगाकर उनके प्रति अपना भक्ति प्रकट करती हैं और उनका आशीर्वाद लेती हैं। इसके बाद वे आपस में सिंदूर लगाकर एक दूसरे के अमर सुहाग के कामना और खुशहाली की कामना करते हुए पर्व का आनंद मनाती हैं। इस अवसर पर बंगाल में पारंपरिक चौड़े लाल बॉर्डर के सफेद साड़ी पहने, माँग में सिंदूर भरे, अत्यंत सज-धज कर पंडाल में एकत्रित महिलाओं को सिंदूर खेलते देख अलग ही छटा बनती है। यह दृश्य त्यौहार की भव्यता को और भी बढ़ा देता है।

माँ दुर्गा की विदाई के अनुष्ठान की शुरुआत महाआरती से होती है जहाँ देवी को एक शीतला भोग अर्पित किया जाता है, जिसमें कोचूर शाक (कच्चू के पत्तों का साग) पांता भात (रात के रखे चावल) और दोई-चीरा (दही और चिवड़ा) शामिल होते हैं। पुजारी फिर अंतिम विसर्जन पूजा आयोजित करने की ओर अग्रसर होता है। पूजा के बाद दुर्गा माँ की मूर्ति के सामने एक दर्पण और एक परात में पानी रखा जाता है, दर्पण में भक्त देवी के चरणों के दर्शन करते हैं। यह माना जाता है कि दर्पण में देवी के चरणों को देखने से घर में सुख और समृद्धि आती है, और यह सौभाग्य प्राप्त करने का एक तरीका है। परात के पानी में लोग अपने हाथ डुबोते हैं और इसके पीछे यह मान्यता है कि परात के पानी में हाथ डुबोने वाला पाक-कला में दक्ष होगा। इसके बाद पंडित जी सभी के सुख और समृद्ध भविष्य के लिए सभी की बाहों पर अपराजिता फूल की बेल बाँधते हैं।

देबी बोरोन की प्रथा

इसके बाद देबी बोरोन की बारी आती है, जहाँ विवाहित महिलाएँ व्यक्तिगत रूप से देवी को सालभर के लिये अंतिम विदाई दिने के लिये कतार बनाती हैं। विजयदशमी के दिन, प्रत्येक बंगाली-हिंदू विवाहित महिला अपनी पूजा थाली पर कुछ चीजें तैयार करती है, जिसमें सुपारी, पान के पत्ते (जिन्हें शुभता का प्रतीक माना जाता है) आलता, अगरबत्ती और मिठाइयाँ होती हैं। वे अपने दोनो हाथों में पान का पत्ता लेकर माँ दुर्गा का चेहरा पोंछती हैं। यह इस बात को सुनिश्चित करने के लिये हैं कि माँ दुर्गा अश्रुपूर्ण आँखों से विदा न हों। इसके बाद वे माँ की माँग सिंदूर से भरती हैं, माथे पर टीका करती हैं, उनके शाखा और पोला (विवाहित बंगाली महिलाओं द्वारा पहनी जानेवाली लाल सफेद चूड़ियाँ) पर सिंदूर लगाती हैं। इसके बात माँ के मुँह में मिठाई रखी जाती है और उन्हें पान-सुपारी चढ़ाई जाती है।

देवी दुर्गा के बोरोन के बाद भगवान गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्तियों पर भी सिंदूर लगाया जाता है उन्हें भी मिठाई खिलाई जाती है। अनुष्ठान समाप्त होने के बाद महिलाएं इस शुभ सिंदूर को अपने माथे पर और परस्पर एक दूसरे के माथे पर भी लगाते हुए दोनों के सुखी वैवाहिक जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं। देवी बोरोन और सिंदूर खेला के बाद माँ दुर्गा की मूर्ति को नदी में विसर्जन के लिए ले जाया जाता है माँ दुर्गा और उनके परिवार के सदस्यों को शंखनाद, उलूध्वनि और ढाक की थाप के साथ विदा किया जाता है। विसर्जन के पश्चात सभी लोग को पुनः मंदिर आते हैं, जहाँ पंडित जी सभी पर शांति जल का छिड़काव करते हैं लोग एक दूसरे को शुभ विजया के अभिवादन के साथ गले मिलते हैं और अपने-अपने घरों पर आमंत्रित करते हैं।

सिंदूर खेला और सामुदायिक सद्भाव

अब प्रश्न उठता है कि आखिर सिंदूर खेला इतना विशेष क्यों माना जाता है? सिंदूर खेला सामुदायिक एकता का प्रतीक भी है। इस रस्म के दौरान महिलाएँ आपसी हँसी-ठिठोली और प्यार के साथ भाग लेती हैं। इसे स्त्री-सौहार्द और बहनापे का उत्सव भी माना जाता है। इस कार्यक्रम में अविवाहित युवक युवतियाँ भी भाग लेते हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे उनकी शादी शीघ्रतिशीघ्र हो जाती है। परंपरागत रूप से यह रस्म केवल विवाहित हिंदू महिलाओं तक सीमित थी, पर अब कई जगहों पर अविवाहित, विधवा और यहाँ तक कि गैर-बंगाली महिलाएँ भी इसमें शामिल होने लगी हैं। पश्चिम बंगाल और प्रवासी बंगाली समुदायों में इसे एक सामूहिक उत्सव और संस्कृति के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। सोशल मीडिया और फ़ोटोग्राफ़ी ने इसे और लोकप्रिय बना दिया है—लाल-पसंदीदा साड़ियों और सिंदूर से सजी तस्वीरें दुर्गापूजा का विशेष आकर्षण बन चुकी हैं। सिंदूर खेला केवल एक धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि स्त्री-सौहार्द, सांस्कृतिक पहचान और सामूहिक उत्सव का प्रतीक बन चुका है। यही इसकी असली खूबसूरती है।

१ सितंबर २०२५

 
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