संक्रांति और पतंगों की उड़ान
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पूर्णिमा वर्मन
संक्रांति और पतंगों की उड़ान का गहरा साथ है। गुजरात
और राजस्थान में इस दिन पतंगों की रौनक देखते ही बनती
है। बाजार पतंगों से भरे नजर आते हैं और लोग भीड़
लगाकर उन्हें खरीदते हैं। सक्रांति के दिन शहर
का आकाश इन पतंगों से भरा दिखाई देता है। पतंग उड़ाने
की इस प्रथा का आरंभ कैसे हुआ इसके कुछ सामाजिक,
आर्थिक और धार्मिक कारण आज भी पाए जाते हैं लेकिन यह
प्रथा कब प्रारंभ हुई उसके विषय में ठीक से कुछ कहना
संभव नहीं है।
तमिल भाषा में लिखी गयी तन्दनान रामायण के अनुसार,
श्री राम ने बाललीला करते हुए एक पतंग उड़ाई थी। यह
पतंग राजा दशरथ ने उन्हें सरयू के किनारे चलने वाले
संक्रांति के मेले से खरीदकर दी थी। इससे पता चलता है
कि पतंग उड़ाने की यह परंपरा बहुत प्राचीन है। कथा में
आगे पता चलता है कि राम की पतंग उड़ते उड़ते स्वर्ग तक
पहुँच गयी थी जहाँ उसे जयंत की पत्नी सरमा ने कौतूहलवश
पकड़ लिया था और इस बात पर अड़ गयी थी कि पतंग तभी
वापस करेगी जब उसे उड़ाने वाला स्वयं आकर दर्शन देगा।
इससे पता चलता है कि पतंग उड़ाना उस समय भारत के
अतिरिक्त अन्य देशों में सामान्य बात नहीं थी।
पतंग संस्कृत में सूर्य को भी कहते हैं। सूर्य क्योंकि
इस दिन उत्तरायण में आ जाता है, दिन गर्म होने शुरू हो
जाते हैं और सर्दियों का संकट टल जाता है इसलिये सूर्य
का प्रतीक मानकर पतंग को उड़ाने की बात को समझा जा
सकता है। इस तरह पतंग खुशी, उल्लास, जड़ता से मुक्ति
और गरमाहट के शुभ संदेश की वाहक है।
ज्योतिष के अनुसार, इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश
करता है और इसी के साथ सभी शुभ काम शुरू हो जाते हैं।
विवाह, पूजा-पाठ, अनेक प्रकार के संस्कार तथा स्नान,
दान आदि अनेक पुण्य कार्यों में संक्रांति का विशेष
महत्व है। इस शुभता को आकाश की ऊँचाई तक पहुँचाने के
लिये पतंग उड़ाने की परंपरा ऐसा भी माना जाता है।
सर्दी के दिनों में मानव शरीर को भी सूरज के प्रकाश की
बहुत आवश्यकता होती है। संक्रांति के गुनगुनी धूप में
सारे दिन छत पर सारे परिवार के रहने के कारण शरीर को
विटामिन डी की भरपूर प्राप्ति होती है। जो सर्दी में
जकड़ी हड्डियों को तो राहत देता ही है कैलशियम को भी
ठीक से अवशोषित कर के हड्डियों तक पहुँचाता है। धूप
हमें खाँसी और सर्दी से बचाती है इसलिये भी लोग पतंग
उड़ाते हैं। धूप से त्वचा की अनेक बीमारियाँ भी ठीक हो
जाती हैं इसलिये यह त्वचा के लिये भी लाभदायक है। पतंग
उड़ाने का संबंध शुद्ध हवा से भी है। जब लोग कमरे से
बाहर निकलकर छत पर घंटों बिताते हैं तो उन्हें शुद्ध
हवा मिलती है जो शरीर के लिये बहुत लाभदायक है।
पतंग उड़ाना एक पारिवारिक उत्सव भी है। परिवार का एक
सदस्य मांझा पकड़ता है तो डोर किसी दूसरे के हाथ में
होती है। छत पर एक ओर महिलाएं खिचड़ी पका रही होती हैं
तो दूसरी ओर बच्चे खेल रहे होते हैं। सारा परिवार एक
साथ छत पर जमा होता है। आकाश पतंगों से भरा होता है और
पतंगबाजी की होड़ लगी होती है। कभी पतंग इसके हाथ तो
कभी उसके...वो काटा जैसी अनेक आवाजों से सारा शहर
गूँजता रहता है। शाम तक यह खेल चलता है और साथ ही चलता
रहता है खाने पीने का दौर। ताजी भुनी लोगों का आना
जाना भी लगा रहता है। फिर इतने रौकन वाले दिन को लोग
भला कैसे न मनाएँगे।
पतंग उड़ाना एक बेहतर संतुलन बनाने का अभ्यास भी देता
है। हाथों, पैरो आँखों और दिमाग के अद्भुत संतुलन का
खेल है पतंग। हाथ पैर आँख और दिमाग का सही संतुलन सही
समय पर न हो तो पतंग उड़ाना संभव नहीं है। इसे ऊँचाई
तक ले जाना, कटने से बचाना और दूसरे की पतंग को काट
पाना एक दर्लभ अभ्यास है। शायद इसी अभ्यास को बनाए
रखने के लिये लोग बरसों से पतंग उड़ा रहे हैं।
इसके
अतिरिक्त पतंग का ऐतिहासिक महत्व भी है। माना जाता है
कि चीन के बौद्ध तीर्थयात्री भारत से पतंगबाजी सीखकर
गए और चीन में इसका प्रसार किया। एक हजार वर्ष पूर्व
संत नाम्बे ने भी अपने गीतों में पतंग का वर्णन किया
है। मुगल काल में भी पंतगबाजी और पतंग प्रतियोगिताओं
का उल्लेख मिलता है। ऐसा विवरण मिलता है कि लखनऊ,
रामपुर, हैदराबाद आदि शहरों के नवाब पतंगों में
अशरफियाँ बाँधकर कर उड़ाया करते थे। पतंग कट जाने पर
गाँव के लोग पतंग में लगी अशरफियाँ लूट लेते थे। वर्ष
१९२७ में 'साइमन कमीशन' का विरोध करने के लिे 'गो बैक'
लिखी हुई पतंगों को उड़ाया गया था। आजादी की खुशी को
प्रकट करने के लिये भी १५ अगस्त १९४७ के दिन दिल्ली
में पतंगें उड़ाए जाने का उल्लेख मिलता है।
१ जनवरी २०२२ |