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पर्व परिचय

 किशोरियों का अश्विन पर्व भोंडला- मालती शर्मा

१ अगस्त २०२२

कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता था कि क्यों हमारे ऋषि-महर्षियों ने बसंत-वर्षा जैसी ऋतु छोड़कर ‘सौ शरद’ जीने की कामना-प्रार्थना की है? मगर जैसे-जैसे लोक के ओक में पैठती गई, बैठती गई, बात खुलती चली गई। शरद ही तो धरती के वृद्धिमान ऐश्वर्य की चरम सीमा है। शरद छोड़ सृष्टि के निर्मल निष्कलुष किशोर सौंदर्य की अनूठी छटा की कोई ऋ तु भी तो नहीं! तभी तो पूरे भारत में किसी अन्य ऋतु में लोकोत्सवों की ऐसी रेल-पेल धक्कम-धक्का भी नहीं। विशेषकर किशोर-किशोरियों के व्रत-पर्व, खेल-उत्सव तो जैसे अपना सारा कोटा शरद में ही पूरा कर लेते हैं। आसोज के नवरात्र में देश के किसी कोने में कोई वर्ण, कोई वय ऐसी नहीं बचती, जो विश्व पोषक माँ शाकंभरी और प्रत्येक ‘दु’ विनाशिनी दुर्गा की आराधना में गीत-नृत्यमय फेरे न लगाती हो। दीपक न धरती हो। शरद के फूल न चढ़ाती हो।

शारदीय नवरात्र में यदि गुजरात की किशोरियाँ गरबा नाचती हैं, बुंदेलखंड की सुअटा खेलती हैं तो महाराष्ट्र के विदर्भ खानदेश अंचल की बालिकाएँ ‘भुलाबाई’ और पक्षिमी अंचल के घर-घर की बालाएँ ‘भोंडला’ या ‘हादगा’ मनाती हैं। भोंडला आश्विन मास में सोलह दिन खेला जाता है। हस्त नक्षत्र लगते ही इसकी शुरुआत होती है, मगर संप्रति यह अब नौ दिनों में ही सीमित हो गया है।

भोंडला या हादगा नाम क्यों पड़ा?

भोंडला हस्त नक्षत्र की गीत, नृत्य और चित्रमय आराधना है, जिसमें कुमारी और सौभाग्यवती दोनों ही योग देती हैं। मुख्य पुरोहित तो कुमारियाँ हैं, मगर सौभाग्यवती गृहणियाँ भी नित्य नवीन नैवेद्य बना हादगा देव की पूजा करती हैं। भोंडला के गीतों में हस्त नक्षत्र का अपरिमेय महत्त्व बताया गया है। हस्त क्या है? वह तो दुनिया का राजा है। उसी की दुग्ध-धाराओं से सींची यह खेती हरी-भरी हीरे-मोती जड़ी परवान चढ़ी है। मगर प्रश्न है कि इस उत्सव का नाम हादगा और भोंडला क्यों-कैसे पड़ गया? हादगा देव तो पूजा के लिए दीवार पर और फेरी के लिए पाट पर उकेरे हाथी के चित्रों को कहते हैं, मगर भोंडला का कोई संतोषजनक समाधान लोक ज्ञाता वृद्धाओं से नहीं मिलता है। मराठी में भोंड ज्वार के दानों को कहते हैं। कृष्णाजी पांडुरंग कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोष में भोंड का अर्थ धान्यवृद्धि भी दिया हुआ है। वैसे यही समय होता है, जब भुट्टों में दाने पड़ने शुरू होते हैं और ज्वार-मक्का का एक-एक अंकणा (तना, पेड़) सात-सात कणस (भुट्टे) देता है—
अंकणा तुझी सात कणस,
भोंडला तुझी सोला बरस।

मगर अधिक समीचीन यही प्रतीत होता है कि भोंडला मराठी की ‘भोवना किया’ से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है चारों ओर घूमना। लड़कियाँ हस्ति चित्रांकित पाट के चारों ओर नाचकर ही भोंडला करती हैं। कदाचित् घूम-घूमकर मनाने के कारण इसे भोंडला कहने लगे हों। नाम क्यों-कैसे भी पड़ा हो, मगर अपनी समग्रता में यह उत्सव वर्षा के देवता इंद्र और महालक्ष्मी की सुख-समृद्धि हेतु की गई पूजा है। हाथी के चित्र सबका सम्मिलित प्रतीक हैं।

हादगा गांधारी पूजित

हादगा देव की पूजा की यहाँ प्रचलित एक लोककथा महाभारत में भी प्राप्त होती है। कहते हैं, किसी समय गांधारी ने नारदजी से हस्त नक्षत्र (हादगा देव) की पूजा विधि पूछी। नारदजी के बताए विधि-विधान से पूजा की। कौरवों ने रथ बनाया। गांधारी ने उसमें बैठकर नगर भर में बायना बाँटा, दान दिया। कुंती के यहाँ भी गई और उसकी गरीबी को देखकर बहुत कुछ ले गई। कुंती ने कहा, मैं दान देने की पात्र हूँ, लेने की नहीं। गांधारी अपना सा मुँह लेकर लौट आई। मगर कुंती इस प्रसंग से बहुत दुःखी हुई। कुंती को व्यथित देख अर्जुन-भीम ने कहा, ‘माँ हम तुम्हारी पूजा के लिए इंद्र का ऐरावत हाथी लाएँगे। तुम भी अगले वर्ष पूजा करना।’ दूसरे वर्ष हस्त नक्षत्र लगा। अर्जुन ने इंद्र को बाण से पत्र भेजा। इंद्र का ऐरावत आया। कुंती ने प्रसन्न मन पूजा की। समृद्धि हुई। दान दिया। बायना बाँटा। गांधारी के यहाँ जब गई तो गांधारी बहुत लज्जित हुई, तभी से हादगा देव का महत्त्व है।

भोंडला के गीतों में भी यह उल्लेख बार-बार आता है कि गांधारी हादगा पूज रही हैं। सखियों को बुला रही हैं। लौंग, सुपारी, इलायची युक्त बीड़े, दूध के पेड़े, मोटे-मोटे केले अर्पण कर रही हैं। उसी तरह मैं भी सखियों के साथ हादगा देव की पूजा कर रही हूँ। हादगा देव पाहुने आए हैं। द्वार पर शहनाई-चौघड़ा बज रहा है। तुलसी, दौना, जुही, मल्लिका, शेवंती फूल रही हैं। तरह-तरह के फूल फूले हैं। हादगा देव तुम्हारा स्वागत है। तुम दुनिया के राजा हो। तुम्हें नमस्कार है—
बाजे चौघडा रुणझुणा/आला ग हादगा पावणा
दारी तुलस दवण्गा/जाई जुई शेवती दुपारीं
फुले ग नाना परी/हादगा देव भी पूजिते
सखंयाना बोला विते/लवंगा सुपारी वेल दौड़े
करुन ठेवले विडे/आणरवीन दुधांतले दूध पेड़े
हादगा गांधारी पुजिते/सखंयाना बोलाविते।
आमचा भोंडला घुमू द्या-नृत्य गीत झनकारते आगन

यह पूजा और कुमारियों के फेरे-गाने परंपरा से घर की प्रथा और सामर्थ्यानुसार १६ दिन चलते हैं। किसी घर में १ दिन, किसी में ३-५ दिन या ७-९ दिन। ऐसे विषम संख्या दिनों तक भोंडला होता है। मगर वर्तमान की मार ने भोंडला को एक दिन में ही सीमित कर दिया है। नौ गीत नौ नैवेद्य चढ़ाकर, गा-नाचकर अब लड़कियाँ किसी भी दिन भोंडला कर लेती हैं। भोंडला के फेरे-गाने दिन-छिपे से शुरू हो रात आठ नौ बजे तक चलते हैं। पूजा के लिए घर के भीतर दीवार पर रंगों व खडि़या से आमने-सामने सूँड़ किए खड़े व सूँड़ों में माला लिये हाथी के चित्र उकेरे जाते हैं। आँगन में रखने को यही आकृति रंगोली या ऋतु के विभिन्न फल-फूलों से लकड़ी के पट्टे पर बनाई जाती है। फेरा व नृत्य के लिए यह आकृति रोज नई बनती है। पूजा के लिए सभी तरह के फूल चाहे बाग-बगीचे के हों या जंगली, जरूरी होते हैं। हाथियों के गलों में ऋतु की उपज, विविध फल, शाक-भाजी, जैसे तुरई, बैंगन, करेला, परवल, ककड़ी, मिर्ची, सीताफल, भिंडी इत्यादि की माला पहनाई जाती है। रोज सायंकाल आसपास की कुमारियाँ बड़ी संख्या में एकत्र होती हैं। गीतों में निमंत्रण का भी उल्लेख है—
गंगू रंगू तंगू या/हिलमिल हादगा गाऊँगा।

अरी! गंगा, रंभा, त्रिवेणी! आओ हिल-मिल हादगा गाएँ, फिर सभी कुमारियाँ पट्टे की आकृति के चारों ओर गोलाकार घूमती अनेक प्रकार के गीत गाती नाचती भोंडला करती हैं। कहीं-कहीं मिट्टी या लकड़ी का हाथी भी बीच में रख लिया जाता है। भोंडला को देखकर अनायास ही गुजरात का गरबा याद आने लगता है।

भोंडला में रोज एक नया गीत बढ़ाकर गाने की प्रथा है। गीतों की संख्या के अनुसार ही हाथियों के गले की मालाएँ व नैवेद्य वस्तुओं की संख्या भी बढ़ती जाती है। जिस घर भोंडला होता है, उसे तो रोज एक-एक कर बढ़ाते हुए अंतिम दिन नौ नैवेद्य तैयार करने ही होते हैं। भाग लेनेवाली हर लड़की कुछ-न-कुछ लाती है।

दमड़ीचं तेल भी आणू कशी आदि भोंडला के गीत बाल व किशोर खेल-गीतों के अंतर्गत आते हैं। इन गीतों की प्रकृति व विषय अन्य प्रांतों के साँझी, झाँझी, टेसू आदि खेल गीतों से मिलते हैं। गीतों के चरण छोटे मगर तुकांत हैं, जैसे मांझी वेणी मोकली। सोनियाची सांखली। प्रारंभ में निरर्थक शब्द भी हैं, जैसे मतुका, यतुका, चरणी, चतुका या अरडी, बाई, परडी इत्यादि। गति व लय तेज है लेकिन मधुर। विषय और प्रकृति की दृष्टि से इनमें किशोर मन की संपूर्ण प्रवृत्तियाँ समाई हैं। दमड़ी के तेल में हाथी बह जाने जैसी असंभव असंबद्ध और विचित्र कल्पनाएँ गुँथी हैं। प्रमुखतः इसमें किशोर मानस के मायके ससुराल के जीवन के साम्य-वैषम्यमय हास्य-व्यंग्य के रंगीन चित्र हैं।

कितना अच्छा था पीहर, जहाँ खेलने को मिलता था। कितनी बुरी है ससुराल कि बंद दरवाजा और मार है। यहाँ सास की चाबुक है, मगर खेल संसार की मस्ती कहाँ उतरती है। मामाजी लाई तैलंग साड़ी पहन किशोरी बुर्ज पर खेलने चढ़ जाती है। खेल-खेल में बिछुए खो जाते हैं। सास चाबुक दिखा उतरने को कहती है, मगर उसका बेफिक्र मन तो रत्नागिरी की खुल-खुल बजती चूडि़यों में खोया है। बुर्ज पर से वह अपना मायका पंढरपुर और ननसाल रत्नागिरी देखने में डूबी है। किशोर वय में घर-संसार भी खेल ही है। भोंडला का पहला गीत निर्विघ्न खेल संपन्न होने के लिए गणेश को अर्पित है—
एलमा पैलमा गणेश देवा
माँ झा खेल मांडून दे करीन तुझी सेवा।

किसी गीत में पागल पति की पत्नी के बेहाल हालचाल हैं, जिसका पागल पति गुझियों को नाव की तरह पानी में तैरा देता है। श्रीखंड को भस्म समझ शरीर में पोत लेता है और जलेबियों को चूडि़यों की तरह हाथ में पहन लेता है। यहाँ तक तो खैर है, हद तो तब होती है जब दोपहर को सोती पत्नी को मरी हुई समझ वह जला डालता है। किस्सा खत्म। पैसा हजम।

किसी कौवे द्वारा आँगन में डाली धान की बाली का गीत भी बहुत मनोरंजक है। इसी तरह से है दमड़ी के तेल की कहानी। सास की चोटी हो गई। ससुर की दाढ़ी बन गई। ननद का सिर बँध गया। बचा तेल ढककर रख दिया कि मोरनी का पैर लगा और तेल लुढ़ककर बहने लगा। बहता-बहता गाँव की सीमा पर पहुँचा। उसमें हाथी, घोड़ा, बैल सब बह गए।

भोंडला के प्रत्येक गीत की लय इतनी मधुर-मोहक होती है कि आश्विन का चाँदनी लिपा आकाश भी खिलखिला उठता है। सारा वातावरण स्वरों की मादकता में डूब जाता है।

खिरापत

मगर भोंडला में गीतों से भी कहीं अधिक कौतूहलपूर्ण एवं नाटकीय प्रसंग है खिरापत बताने-पहचानने का। भोंडला में सम्मिलित होनेवाली कुमारियाँ जो नैवेद्य लाती हैं, उसे ‘खिरापत’ कहते हैं। खिरापत के लिए खाने योग्य कोई भी चीज हो सकती है। लड़कियाँ यह खिरापत डिब्बा, थैला या कागज की पुडि़या में लपेट अपने परकर (लहँगा) में छुपाकर खड़ी हो जाती हैं। अपनी बारी पर प्रत्येक लड़की शेष से पूछती है—बताओ हम क्या लाए? बाकी लड़कियाँ भोज्य वस्तुओं के ज्ञान, अनुमान और सुगंध आदि से पहचानकर बताने की चेष्टा करती हैं। यदि किसी ने कहा, बड़े तो पूछा जाता है कौन सा बड़ा? आलू बड़ा! साग बड़ा कि दाल बड़ा! जब कोई नहीं बता पाता तो वह लड़की खिरापत खोल देती है और तब उपस्थित समुदाय विस्मयाविभूत रह जाता है। जब बड़े सुंदर ढंग से लिपटे बंडल या डिब्बे में उबले चने, भुने मटर इलायची दाने, बेर या ऐसी ही कोई वस्तु निकलती है, जिसकी सहज ही कल्पना नहीं होती।

इस तरह पूछने-बताने में कभी-कभी तो २-२ घंटे लग लाते हैं। यह खिरापत योजना एक ओर जहाँ गृहणी की पाक कुशलता और रोज अपरिचित व्यंजन तैयार करने की सामर्थ्य की कसौटी है, वहीं दूसरी ओर बालिकाओं के पक्ष में यह व्यंजनों के ज्ञान-अनुमान की परीक्षा है। खेल-खेल में मौसम, वातावरण, सुगंध वगैरह से चीजों को भाँपने-पहचानने की क्षमता विकसित करने का मनोरंजक आयोजन है।

जब सारे खिरापत खुल जाते हैं तो उपस्थित सभी को एक पंक्ति में बिठा केले के पत्तों पर बाँट दिए जाते हैं। हस्त की मूसलधार वर्षा से परिपुष्ट हुए केले के पत्ते भी तो हस्त नक्षत्र का ही वैभव हैं। यह हस्त नक्षत्र की ही वर्षा है, जो जंगली पौधों, कँटीली झाडि़यों तक के माथे रंगीन फूलों के तुर्रे सजा देती है। न जाने कितने प्रकार के चिटक्या-मिटक्या करंड फूल खिल उठते हैं, जो मानो हादगा देव के माथे सजा मोतियों का तुर्रा हैं। बालिकाओं की याद में हादगा देव की यही कलंगी वर्षभर चलती रहती है—

हतुका मतुका चरणी चतुका। चिटक्या मिटक्या करंड फूल
ते बाई फूल भी तोड़ील। हादगा देवा वाही ल
हादगा तुझा तुरारा मोतीयांचा भुरारा।

सितंबर २०२२

 
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