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						रक्षाबंधन इतिहास और पुराण से 
						
						- वरुण कुमार सिंह  
                            भारत 
							की सांस्कृतिक विशष्टता के मूल में गहरी ऐतिहासिक 
							परंपरा है। भारतीय परम्पराओं में सामाजिक जीवन दर्शन 
							के गहरे सूत्र छिपे हैं। प्राचीन विचारकों ने जब विविध 
							सामाजिक पर्वों के चलन को प्राथमिकता दी होगी, तो उसके 
							पीछे इन पर्वों के मानवीय और कल्याणकारी सरोकार अवश्य 
							रहे होंगे। श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाये जाने वाला 
							”रक्षा बंधन” एक ऐसा ही पर्व है, जिसके कच्चे धागों 
							में बंधा स्नेह इतना पक्का है कि सदियाँ गुजर जाने के 
							बाद भी उसकी प्रासंगिकता अक्षुण्ण बनी हुई है।  
							 
							इतिहास के पन्नों को देखें तो इस त्योहार की शुरुआत की 
							उत्पत्ति लगभग छह हजार साल पहले बतायी गई है। कई 
							साक्ष्य भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। रक्षाबंधन 
							का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा हुआ है। वह भी 
							तब जब आर्य समाज में सभ्यता की रचना की शुरुआत मात्र 
							हुई थी। 
							‘भविष्य पुराण’ के अनुसार एक बार देवताओं और दानवों 
							में युद्ध शुरू हो गया? देखते ही देखते दानव देवों पर 
							भारी पड़ने लगे। देवराज इंद्र घबराकर गुरु ब्रहस्पति के 
							पास पहुँचे, इन्द्र की पत्नी यह सब देख-सुन रही थी। 
							उसने रेशम का एक धागा मंत्र शक्ति से अभिमंत्रित करके 
							इंद्र की कलाई पर बांध दिया। आश्चर्यजनक ढंग से पराजय 
							के समीप पहुँची देव सेना ने राक्षसों पर विजय प्राप्त 
							की। देवताओं ने माना की यह विजय इंद्र के हाथ में बंधे 
							धागे के कारण ही संभव हो सकी। वह दिन श्रावण पूर्णिमा 
							का ही दिन था। इसके बाद अनेक प्रसंगों में एक दूसरे से 
							रक्षा का वचन लेने हेतु रक्षा-सूत्र के बाँधने के 
							प्रसंग दृष्टिगोचर होते हैं। दक्षिण अफ्रीका के एक 
							कबीले टुंगेटोम्ब में आज भी पत्नियाँ अपनी सुरक्षा 
							हेतु पतियों को राखी बाँधती हैं। अनेक भारतीय साधक 
							कुलों में श्री गणेश और भगवान शिव को भी रक्षा सूत्र 
							बाँधने का रिवाज है। 
							 
							एक पौराणिक प्रसंग यह है कि १०० यज्ञ पूर्ण कर लेने पर 
							दानवेन्द्र राजा बलि के मन में स्वर्ग का प्राप्ति की 
							इच्छा बलवती हो गई तो इन्द्र का सिंहासन डोलने लगा। 
							इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की 
							प्रार्थना की। भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का 
							वेष धारण कर लिया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुँच 
							गए। उन्होंने बलि से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली। 
							बलि के गुरु शुक्रदेव ने ब्राह्मण रुप धारण किए हुए 
							विष्णु को पहचान लिया और बलि को इस बारे में सावधान कर 
							दिया किंतु दानवेन्द्र राजा बलि अपने वचन से न फिरे और 
							तीन पग भूमि दान कर दी। वामन रूप में भगवान ने एक पग 
							में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरा 
							पैर कहाँ रखें? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। यदि 
							वह अपना वचन नहीं निभाता तो अधर्म होता। आखिरकार उसने 
							अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप 
							मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने वैसा ही किया। 
							पैर रखते ही वह रसातल लोक में पहुँच गया। 
							 
							जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल 
							से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया 
							और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा। भगवान के 
							रसातल निवास से परेशान लक्ष्मीजी ने सोचा कि यदि 
							स्वामी रसातल में द्वारपाल बन कर निवास करेंगे तो 
							बैकुंठ लोक का क्या होगा? इस समस्या के समाधान के लिए 
							लक्ष्मीजी को नारदजी ने एक उपाय सुझाया। लक्ष्मीजी ने 
							राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई 
							बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने 
							साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी 
							यथा रक्षा-बंधन मनाया जाने लगा। 
							
							महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ 
							पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी 
							संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने 
							उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार 
							मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस 
							रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से 
							मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को 
							तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई 
							उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से 
							सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी 
							मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध 
							किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय 
							अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह 
							श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार 
							का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर 
							चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग 
							की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ 
							हुई। 
							 
							मध्यकालीन इतिहास की सबसे प्रसिद्ध घटना रानी कर्णावती 
							और हमायूँ की मिलती है। चित्तौड़ की हिन्दू रानी 
							कर्णावती ने दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायूं को अपना 
							भाई मानकर उसके पास राखी भेजी थी। हुमायूँ ने उसकी 
							राखी स्वीकार कर ली और उसके सम्मान की रक्षा के लिए 
							गुजरात के बादशाह बहादुरशाह से युद्ध किया। महारानी 
							कर्णावती की कथा इसके लिए अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसने 
							हुमायूँ को राखी भेजकर रक्षा के लिए आमंत्रित किया था। 
							रानी कर्णावती ने सम्राट हुमायूँ के पास राखी भेजकर 
							उसे अपना भाई बनाया था। सम्राट हुमायूँ ने रानी 
							कर्णावती को अपनी बहन बनाकर उसकी दिलों-जान से मदद की 
							थी। राखी के पवित्र बन्धन ने दोनों को बहन-भाई के 
							पवित्र रिश्ते में बाँध दिया था। मर्मस्पर्शी 
							कथानुसार, राजपूत राजकुमारी कर्णावती ने मुगल सम्राट 
							हुमायूँ को गुजरात के सुल्तान द्वारा हो रहे आक्रमण से 
							रक्षा के लिए राखी भेजी थी। यद्यपि हुमायूँ किसी अन्य 
							कार्य में व्यस्त था, वह शीघ्र ही बहन की रक्षा के लिए 
							चल पड़ा। परन्तु जब वह पहुँचा, तो उसे यह जानकर बहुत 
							दुख हुआ कि राजकुमारी के राज्य को हड़प लिया गया था तथा 
							अपने सम्मान की रक्षा हेतु रानी कर्णावती ने ‘जौहर’ कर 
							लिया था। 
							
							चंद्रशेखर आजाद का प्रसंग है- बात उन दिनों की है जब 
							क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद स्वतंत्रता के लिए 
							संघर्षरत थे और फिरंगी उनके पीछे लगे थे। फिरंगियों से 
							बचने के लिए शरण लेने हेतु आजाद एक तूफानी रात को एक 
							घर में जा पहुंचे जहां एक विधवा अपनी बेटी के साथ रहती 
							थी। हट्टे-कट्टे आजाद को डाकू समझकर पहले तो वृद्धा ने 
							शरण देने से इनकार कर दिया लेकिन जब आजाद ने अपना 
							परिचय दिया तो उसने उन्हें ससम्मान अपने घर में शरण दे 
							दी। बातचीत से आजाद को आभास हुआ कि गरीबी के कारण 
							विधवा की बेटी की शादी में कठिनाई आ रही है। आजाद ने 
							उस महिला को कहा, ‘मेरे सिर पर पांच हजार रुपए का इनाम 
							है, आप फिरंगियों को मेरी सूचना देकर मेरी गिरफ्तारी 
							पर पांच हजार रुपए का इनाम पा सकती हैं जिससे आप अपनी 
							बेटी का विवाह सम्पन्न करवा सकती हैं।’ 
							 
							यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- “भैया! तुम देश की आजादी 
							हेतु अपनी जान हथेली पर रखे घूमते हो और न जाने कितनी 
							बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा 
							हरगिज नहीं कर सकती।” यह कहते हुए उसने एक रक्षा-सूत्र 
							आजाद के हाथों में बाँध कर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह 
							जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के 
							नीचे 5000 रूपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा 
							था- “अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।” 
							 
							मुम्बई के कई समुद्री इलाकों में इसे नारियल-पूर्णिमा 
							या कोकोनट-फुलमून के नाम से भी जाना जाता है। श्रावण 
							की पूर्णिमा को समुद्र में तूफान कम उठते हैं और 
							नारियल इसीलिए समुद्र-देव (वरुण) को चढ़ाया जाता है कि 
							वे व्यापारी जहाजों को सुरक्षा दे सकें। 
							 
							श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले रक्षाबंधन 
							से संबंधित अनेक कहानियाँ हैं, जो रक्षा करने के भाव 
							से जुड़ी हुई हैं। भारतीय सामाजिक चिंतकों ने लगभग 
							प्रत्येक रिश्ते के लिए किसी न किसी उत्सव की अवधारणा 
							को बल दिया है। रक्षा बंधन चूँकि श्रावण मास की 
							पूर्णिमा को मनाया जाता है अतः इसे ‘सावनी’ या ‘सलूनो’ 
							के नाम से भी जाना जाता है। समग्र अर्थों में यह 
							त्यौहार रक्षा की संवेदनात्मक भावना का प्रतीक है।  
							 
							रक्षाबंधन भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है। 
							उत्तर भारत में आमतौर पर इसे भाई-बहन के स्नेह व उनके 
							आपसी कर्तव्यों के लिए जाना जाता है। भाई द्वारा बहन 
							की रक्षा और इसके लिए बहन द्वारा भाई की कलाई पर 
							रक्षा-सूत्र या राखी बांधने का रिवाज ही रक्षाबंधन 
							पर्व कहा जाता है। किन्तु यह प्राचीन भारतीय संस्कृति 
							में देश और राष्ट्र की रक्षा, जीवों की रक्षा, समाज व 
							परिवार की रक्षा और भाषा व संस्कृति की रक्षा से भी 
							जुड़ा हुआ है। वर्तमान में रक्षाबंधन के संकल्प को 
							पर्यावरण की रक्षा के साथ भी जोड़कर देखा जा रहा है। कई 
							लोग वृक्षों को राखी बांधकर वृक्षाबंधन के रूप में 
							पर्यावरण के प्रति जागरूकता ला रहे हैं।  
							
							रक्षा का संकल्प व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास लाता है। 
							रक्षा करने का भाव ही व्यक्ति को ऊर्जस्वित बना देता 
							है और वह अंतस की ऊर्जा से ओतप्रोत हो, इस ऊर्जा के 
							वशीभूत बड़े से बड़े काम कर जाता है।  
														
														१५ 
														अगस्त
							२०१६							  |