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पर्व-परिचय

1कबायली संस्कृति की प्रतीक

सिरमौर की बूढ़ी दिवाली
—राजेन्द्र तिवारी


हिमाचल प्रदेश कला, संस्कृति और सभ्यता के लिए देश में अपना अलग स्थान रखता है। इस प्रदेश की कबायली सभ्यता और संस्कृति काफ़ी समृद्ध है।

सिरमौर की बूढ़ी दिवाली, दिआली या मशराली कबायली संस्कृति का जीता जागता प्रमाण है। गिरीपार इलाके में इस त्यौहार को सामान्य दीपावली के ठीक एक महीने बाद तीन से सात दिनों तक बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। जैसा कहा जाता है कि भगवान रामचंद्र से लौटने के बाद खुशी में नागरिकों ने घी के दीप जलाए और खुशियाँ मनाईं उसी परंपरानुसार आज भी पहाड़ी क्षेत्रों में दिवाली मनाई जाती है।

एक मान्यता यह है कि इस क्षेत्र में महाभारत काल की सभ्यता दिखाई देती है और 'बुड़ी दियाली' नाम बुड़ा नृत्य के कारण पड़ा।

कहा जाता है कि एक ही माता–पिता की संतानों का बुद्धि और कार्यक्षमता के आधार पर जाति में विभाजन हुआ। एक पिता की दो संतानें एक बेटा जो समझदार व कार्यकुशल था वह राजपूत (खश) यानि खशिया (बलवान) और दूसरा कोली (खशाण) हुआ। परंपरानुसार पहले बेटे को समाज के सभी अच्छे कर्म करने का अधिकार मिला जबकि छोटे बेटे को छोटी जाति का दर्जा मिला जिनमें कोली, चमार, डूम, चनाल आदि संबोधन मिले। इन्हीं कार्यों में त्यौहारों पर वाद्य यंत्र बनाने और उसे बजाने का ज़िम्मा भी छोटे भाई को मिला। उसी परंपरा को निभाते हुए ये लोग आज भी डमरू, हुलक, दमामा, ढ़ोल, नगाड़ा व अन्य वाद्य बनाते भी हैं और बजाते भी हैं। हाटी कबायली संस्कृति में त्यौहारों के अनुसार वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं और बूढ़ी दिवाली में बुड़ों या बुड़ियाच संगठन का आयोजन होता है तो केवल हुलक या हुड़क ही बजाया जाता है और उसकी ताल पर बुड़याच गाँव के बाहर जाँघी (परकोटा) के मुख्य द्वार पर ग्राम देवता की स्तुति करते हैं जिसे सेवा गायन कहा जाता है –
थान गाउबे ठाहरी देबी दुरीगा माई जी
भूले देली बिसिरों बाट रसीता लाई जी
गाइंण देली बजाण कि हिगुल लाई जी

अर्थात मैं ऐसे पवित्र स्थान का वर्णन करता हूँ जिस भूभाग की अधिष्ठात्री (ठाहरी) दुर्गामाता हैं जो माँ भूले बिसरे को राह दिखाती है। अच्छे राह पर चलाती है व स्वर साधना मन लगाती है। इसी के साथ बुड़ियाच बनाने का पौराणिक महत्व स्थान वा काल का वर्णन गाया जाता है।
बुड़ज्ञे माई केथे शो आओं
बुड़ों माई कोने बणओं
बुड़ों माई केथके आओं
बुड़ों पांचों भाई पाणुओं बाणों
बुड़ो कुंता माता केई हुटो
शुपों–शुपों धानों को माँगो
बुड़ों नंदी पारों शो आओं
अर्थात बूढ़ी दिवाली में मनोरंजन, पौराणिक वीर गाथाओं को गाने के लिए बनाया गया तथा पांडव द्वारा आयोजन हुआ तथा सबसे पहले कुंती माता के पास गाते हुए अपनी दिनचर्या के लिए अनाज माँगना, हुलक बजा कर देवीगीत गाना। एक अन्य गीत में कहा गया है कि –
मेरे माँ रासे थले जाणों, मेरे माँ रासे थले जाणों
तु मेरो कुकडु केशों बाती, जाए न बेटी अंवासी केरी राते
अर्थात एक बालिका राधा अपनी माँ से रासलीला (रासे) में जाने के लिए अनुमति माँगती है परंतु माँ कहती है बेटी तू इतनी सुंदर है जैसे मुर्गी का सफ़ेद अंडा, इसलिए तू वहाँ अलग ही चमकेगी इसलिए तू वहाँ मत जा – मुखमंडल की सुंदरता का वर्णन एक साधारण भाषा में कितना सुंदर किया गया है।

दिवाली के पहले दिन को जिसे छोटी अमावस्या या मावस या 'रूदियाला' कहा जाता है। जिस तरह होलिका जालाई जाती है उसी प्रकार एक 'डाह' नामक लकड़ियों का ढेर बनया जाता है। इसको 'बिहुल के सनियाठे' बिहुल या मक्की के सूखे डंडे को इकठ्ठा करके बनाया जाता है व जलाया जाता है और गाँव के सभी बच्चे और नौजवान एक समूह में सनियाठा जला कर साँझे आँगन में जाते हैं और वहाँ से नाचते, गाते 'लिंबोर' लगाते हुए गाँव के बाहर जा कर 'बलराज' को जलाते हैं। इस अवसर पर ढोल, करनाल, दुमानू, हुड़क आदि बाजे बजाते हुए जाते हैं और बच्चे और नौजवान 'जले बलराज' कह कर डाह को जलाते हैं।

दिवाली के दूसरे दिन को अमावस्या होती है और इस दिन कोली और डोम जाति के लोग सफ़ेद रंग की पोशाक जिस पर रंगीन फूल कढ़े होते हैं, इसे 'चोला' या 'चुलना' या 'चुलटू' कहते हैं, पहन कर बुड़ा नृत्य करते हैं और हुड़क या हुलक बजाते हैं। कोली सुबह–सुबह गाँव के सबसे सम्मानित व्यक्ति, जिसे वह स्वामी या ठाकुर कहता है, के घर जा कर सेवा गाता है और उसके घर में अखरोट देता है जिसके बदले मालिक उसे उपहार स्वरूप मूढ़ा, पैसे आदि देता है। इस अवसर पर मुख्यतः हार या हारूल गाई जाती है। दिन में रासे लगाए जाते हैं और रात को घरों, खलिहान और कृषि यंत्रों पर दीप जलाए जाते हैं जिसे 'दुओड़ी' कहते हैं। शाम को सूखी लकड़ी इकठ्ठा करके साँझे आँगन में जलाया जाता है जिसे 'घियाना' कहते हैं।

तीसरा दिन 'पड़वा' या 'भिउरी' के नाम से जाना जाता है। इस दिन देवता के यहाँ पूजा होती है और बैलों को अनाज दिया जाता है। बैलों की सींघों में तेल लगाया जाता है। इस अवसर पर घरों में नाना प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं जैसे मूढ़े, साकुली, सीड़ो, गुलगुले आदि। दिवाली पर मेहमानों का आना–जाना अधिक होता है, ख़ासतौर पर दिवाली में लड़कियाँ अपने मायके आती हैं और उन्हें उनका दिवाली का हिस्सा दिया जाता है जिसमें मूढ़ा और अख़रोट दिया जाता है। इस अवसर पर भिउरी गाई जाती है जो बहुत ही मार्मिक होती है जैसे –
लोगों री धियाईणी आई – मेरी ने मिउरी आई – कालिया वुलू मेरा भाई – भिउरी रा वोईदू जाई।

दिवाली में परेटुआ का गीत अवश्य गाया जाता है –
मोले रे मुलाइये, हली केरी मुलाई।
एथे आगे परेटुआ, तेरी हारूलों आई।।
खशणीए देशोटी लाई दे कारेणा छुई।
मोयले मेरे कापड़े देणे छाइये धुई।।

इसके बाद बलराज जलाया जाता है, माना जाता है कि बलिराजा ने भगवान को पाताल ले जा कर द्वारपाल बनाया था ओर सभी देवता पाताल चले गए थे, अतः बलराज का अंत करके दूसरे दिन सभी देवता पृथ्वी पर लौट आए। उसी खुशी में उनकी पूजा अर्चना की जाती है और तेलपाकी, शाकुली, मूढ़ा व अख़रोट से पूजन होता है।

बूढ़ी दिवाली इन शब्दों के साथ समाप्त होती है – 'सदा रोई चेई ऐशिए' अर्थात सदा ऐसा ही रहे।

१ दिसंबर २००५  

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