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पर्व परिचय

-महेश कटरपंच

राधा कृष्ण हिन्दी कविता के सबसे अधिक शृंगारिक नायक और नायिका हैं। उनकी क्रीडास्थली बृज भूमि, उनकी रासलीलाओं, क्रियाकलापों और खेल की उछल-कूदों को आज भी याद करतीं है। आज भी उस धरती के निवासी कभी-कभी विशेष अवसरों पर उन क्रियाकलापों को साकार कर देते हैं।

होली का त्यौहार बृजक्षेत्र का सर्वाधिक रगीन उत्सव है, जबकि वहाँ होली से कई दिन पूर्व गली-गली और मोहल्लों में होली के रास रचाये जाते हैं, फाग और स्वांग खेले जाते हैं। आज यद्यपि इस क्षेत्र में स्वांग की सीमाएँ उतनी घनघोर नहीं रह गई हैं, फिर भी वहाँ के गाँव में स्वागों की वही भावभीनी रसधारा प्रवाहित हो रही है। जगह-जगह मंचों पर स्कूलों और कॉलेजों के प्रांगणों में राधा कृष्ण के अभिनय से वहाँ का सांस्कृतिक जीवन आज भी परिपूर्ण हैं।

फागुन मस्ती का महीना है। फली-फूली प्रकृति के साथ ही नर-नारियों के हृदय में भी मस्ती और उमंगें अठखेलियाँ करती हैं। राधा और कृष्ण की इस कार्य स्थली भूमि पर हर हृदय में नया जोश और नया उत्साह भर जाता है। युवक ही नहीं वरिष्ठ नागरिक भी होली के अवसर पर अपनी उमंगों को प्रकट करने के लिए अत्यंत उतावले हो उठते हैं। जी हाँ, और तो और यदि अपनी कोई उनकी सगी भाभी और साली नहीं होती हैं तो कोसों दूर पड़ोस के गाँव में वे किसी को भी अपनी भाभी बनाकर होली खेलने की तमन्ना पूरी करते हैं। संभवत: ऐसे वरिष्ठ हृदय की यौवन भरी मनोभावनाओं को व्यक्त करने के लिए ही बृजभाषा की ये कहावतें आज भी प्रचलित हैं - "फागुन में बाबा देवर लागे" अथवा "फागुन में जेठ कहे भाभी"।

इन्हीं रसभरी कहावतों में छिपी पड़ी हैं राधा और कृष्ण की होली की उमंग, होली की अठखेलियाँ जो होली के त्यौहार से रस लेकर उन वरिष्ठ हृदयों को भी रसिया बना देती है - ये 'रसिया' परंपरा बृज में होली के पर्व की आत्मा ही बन गई हैं, जो जनमानस में व्याप्त हो गई हैं। तभी तो बृज क्षेत्र में होली के अवसर पर गाँव-गाँव की गलियों में एक समवेत स्वर गूँजता है - "आज बिरज में होरी हे रसिया" इस रसिया को झांझ और ढोलक को ध्वनि में लय मिलती है और आबाल, वृद्ध, नर-नारी अपना स्वर देते हैं।

शोभा यात्राओं में अनेक नवयुवक और नवयुवतियाँ राधा कृष्ण का अभिनय करते चलते हैं- राधा कृष्ण के वेश और परिधान में सुशोभित। कहीं गुलाल उडाते जाते हुए, कहीं बाँसुरी बजाते और कहीं अठखेलियाँ करते कृष्ण का अभिनय लाज से शर्माती राधा के साथ देखते ही बनता है। राधा कृष्ण का हाथ पकड़ कर रंग न डालने का अनुग्रह करती हैं - "कान्हा तुम मत मारो पिचकारी" पिचकारी के रंग से राधा और उसकी सखियाँ भीग जाएँगी। रंग से उनके कपड़े बदरंग हो जाएँगे और शरीर पर चिपकने पर तंग हो जाएँगे।

अरे भर पिचकारी मारी,
मेरी चोली सुरख बिगारी,
और अंखियन में भरौ गुलाल,
मैं कैसे होरी खेलूँगी,
या साँवरिया के संग।
याने रंग यों मो पे मारो,
तो मेरी चुनरी जाएगी रंग,
मेरी चोली होगी तंग,
रंग में कैसे होरी खेलूँगी,
या साँवरिया के संग

चाहे यह सब बातें राधा को डराती रहें, परंतु होली के रंग भरे, त्यौहार की मस्ती में राधा भी सराबोर हो जाना चाहती है - वह चाहती हैं कि कृष्ण स्वयं उसके घर पर आएँ और उनसे होली खेलें। अत: खुद ही कृष्ण को न्यौता भी दे गईं - "कान्हा बरसाने में आ जाइयो, बुलाय गई राधा प्यारी।" इन्हीं लोकगीतों की भावनाएं मुखरित होती हैं, बृज के स्वांगों में।

ग्वाल-बाल सहित कृष्ण का जमघट और ग्वालिन सहेलियों (अहीर की छोरियाँ) के साथ राधा के पारी संवाद होते हैं : आँखों के इशारे चलते हैं और इस सब अभिनय के साथ हाथों में गुलाल ले कर अहीर की छोकरियाँ कृष्ण और उनके साथियों को पकड़ कर गुलाल मल देती हैं। उनके चेहरों पर बिखरते गुलाल और प्रत्युत्तर में कृष्ण की पिचकारी की रंगीन धाराओं के प्रहार को देख हजारों दर्शक भी स्वांग में गा उठते हैं -
"होरी खेल रहे नंदलाल, बिरजन की कुंज गली में, मथुरन की कुंज गली में।"

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