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परिक्रमा मेलबर्न की महक

साहित्य–संध्या

हरिहर झा

बारिश का वातावरण ! ‘गार्डन–स्टेट’ विक्टोरिया की राजधानी मेलबर्न मे चारो तरफ फूलों की बहार। सभी साहित्य–प्रेमियो को तीन वर्षों से चली आ रही द्वैमासिक ‘साहित्य–संध्या’ का बेसब्री से इंतजार । आखिर आ ही गया शनिवार,  1 नवंबर का वह दिन। ऐसे मे एक साहित्य–प्रेमी के यहां टेलिफोन की घंटी घनघना उठती है। लंदन से आई लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार उषा राजे सक्सेना का फोन पाकर मेलबर्न की मिट्टी महक उठती है। साहित्य–प्रेमी अपना टेलिस्कोप रात्रि के 8 बजे वेवरलीमिडोज़ प्रायमरी स्कूल के सभागार पर लगाये बैठा है।

वह देख रहा है – गोष्ठी मे मेलबर्न के लगभग सभी जानेमाने साहित्यकार एवं साहित्य प्रेमी उपस्थित हैं। अध्यक्ष डा. नरेन्द्र अग्रवाल “छीनने आये हैं वे” – कविवर सर्वेश्वर दयाल की एक कविता से शुरूआत करते है
“..और अब छिनने आये हैं वे हमसे हमारी भाषा
..अब जब हम हर तरह से टूट चुके है”
हिन्दी के प्रति अनासक्ति और भारत मे ही हिन्दी प्रवासी हो चली है – इस वेदना से संत्रस्त नरेन्द्रजी के मुख से ये उद्गार निकल रहे हैं। वर्तमान मे हिन्दी के हिंगलिश होते जाने पर वे चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं।

“आज के काव्य–पाठ का शुभारंभ हम मेलबर्न के जाने माने और ‘अनुभूति’ वेबसाइट के कवि से करते हैं,” गोष्ठी का प्रारंभ करते हुये वे मेरी ओर माईक बढ़ाते हुये कहते हैं । मैं दीपावली पर लिखी गयी ‘अन्तर्ज्योति’ से काव्यपाठ का प्रारंभ करता हूं तदन्तर ‘न जाने क्यों’, ‘बोर’ व ‘विसंगति’ का।

अवसादमय वातावरण को बदलते हुये मैं राजनीति पर हास्य और व्यंग्य की कविता ‘आश्वासन’ सुनाता हूं—

“मन्त्रीजी स्वर्ग सिधारे
नरक के बदले
शायद चित्रगुप्त की भूल या
खिलाया कम्प्यूटर ने गुल
...देखा स्वर्ग मे खुले आम
सोमरस बांटती सुन्दरी का नर्तन
वे कह न पाये इसे
पाश्चात्य संस्कृति का वर्तन
... इच्छा हुई अपना झंडा गाड़ने की
हूक हुई अब उन्हे भाषण झाड़ने की...”

श्रोता मन्त्रमुग्ध हुये सुनते जा रहे हैं व माइक आगे की ओर बढ़ रहा है। डा नलिन शारदा श्रोताओं को हवायंन के समुद्रतट पर सैर कराते हुये कबूतर पर लिखी गई अत्यन्त सुन्दर व मधुर कविता का रसास्वादन कराते हुये कहते है़ –

“भोर हुई अब उड़ जा पंछी बीते कल का भूल जा रोना”

शारदाजी की भाव–प्रधान किन्तु चिंतनशिल कविता के बाद काव्यगोष्ठी आगे बढ़ती है।  
सरल सहज मृदुलाजी अपनी साहित्यिक एवं दार्शनिक मुक्त छंद की कविता

“अपने आंगन की दीवारें इतनी सख्त न करो 
कि उजाले जिन्दगी के समीप न पहुंच पायें”  
से संदेश दे रही है कि अपनी संस्कृति और धरोहर की रक्षा करते हुये भी हमे उदारमना और प्रतिपल विकसित होती सभ्यता के प्रति संवेदनशील और स्वागत–भाव रखना चाहिये।

अब माइक यू. के़..... से आई ‘पुरवाई‘ पत्रिका की सह–संपादिका और यू. के़..... हिन्दी समिति की उपाध्यक्षा के समक्ष आता है – उषा राजे सक्सेना। उषाजी यू. के़..... मे होने वाली हिन्दी की गतिविधियों के बारे मे बता रही हैं – बालकों एवं किशोरों के लिये यू. के़..... हिन्दी–समिति द्वारा आयोजित हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता मे भाग लिये 500 बच्चो मे से सफल विजेता 11 बच्चो की हुई भारत यात्रा। फिर वे दीपावली पर लिखी गयी कविता 'दीपावली के आलोक में' सुनाती है
इसके बाद उनकी कुछ लोकप्रिय ग़ज़लों को सुन रहे हैं श्रोता—

परिंदा याद का, मेरी मुँडेरी पर नहीं आया
कोई भटका हुआ राही पलट कर घर नहीं आया...”

रात भर काला धुआँ उठता रहा
दिल किसी खलिहान–सा जलता रहा...”

फिज़ा का रंग अब बदला हुआ–सा लगता है 
ये सारा शहर ही जलता हुआ–सा लगता है...”

अन्त मे वे मुक्त छन्द की ‘सांप और फरिश्ता’ सुना रही हैं। आपकी रचनायें सभागार मे बैठे श्रोताओं के हृदय को छू रही हैं।

अंत मे श्री एडविन वर्धाजी सत्र का समापन करते हुये अपनी दो कवितायें ‘शरद पूर्णिमा’ व ‘सूची’ पढ़ते है जो अत्यन्त रोचक व मौलिक विचारों से परिपूर्ण है –  
“समय आ पहुंचा है अब सोंचता हूं नाम घटाउं सूची से  
...समय के साथ कभी कभी कम हो जाती है सूची
...जैसे कम हो जाती है रूचि”  
आपकी कवितायें जीवन के प्रतिदिन के अनुभव मे मानव मन को छूती है।

दुसरे सत्र मे इस आयोजन की सफलता की सक्रिय धुरी श्री रतन मूलचंदानी जी अंग्रेजी के आतंक पर चुटकुला सुनाते हुये श्रोताओं को हंसा रहे हैं। उसी संदर्भ मे श्री हिमांशुजी ‘मच्छर अच्छे खासे मर्द को हिजडा बना सकता है’ को याद कर सब को हंसा हंसा कर लोट पोट कर रहे हैं। आई. टी. कन्सल्टेन्ट श्री सतीश दतजी बचपन में पढ़ी रचना ‘गाय’ तथा अन्य कवियों की रचनायें सुना रहे हैं। श्रीमती रश्मि दता भोजपुरी मे कजरी सुना कर दूसरे सत्र का समापन करती हैं।

किन्तु हमारे साहित्य–प्रेमी का टेलिस्कोप श्री राधेश्याम जी गुप्ता को फोकस मे लिये बिना नहीं छोडता जो शारदा कला केन्द्र की सभी गतिविधियों मे आधार–स्तम्भ हैं। वे चाहे कुछ न भी बोले पर उनकी उपस्थिति और उनकी लगन काफी कुछ कह जाती है।

नवम्बर 2003

 
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