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परिक्रमा लंदन पाती

दिल और दिमाग से – (खोया सम)

—शैल अग्रवाल

रों के अन्दर उगते कई–कई सर . . . खून की आखिरी बूंद तक चूस–चूस बढ़ते जा रहे हैं और बिना दिल और दिमाग की कुरसियों के बड़े बड़े हाथ–पैर पूरी इन्सानियत को जकड़े अकड़े, डरा–भगा रहे हैं . . . रेतीले अंधड़ में – सायरन की गूंजती आवाजों में . . . पल भर पहले सुन्दर इमारतों, शहरों, सपनों के टूटे बिखरे मलबों में . . . पर दुश्मन है कि डरता ही नहीं . . . मरता ही नहीं। बस पांच लाख ईराकी हर तरफ से घिरकर कैद हैं और प्रार्थना कर रहे हैं शीघ्र ही हमारे भाग्य या दुर्भाग्य का फैसला करो . . . इसपार या उसपार ––

जलता हुआ ईराक, सीरिया, लैबनान और पैलेस्टाइन – चिनगारियां दूर–दूर तक़ . . झुलसते अमेरिका, लंडन, फ्रांस, जर्मनी, रूस, भारत, चायना; वास्तव में पूरे विश्व की शान्ति–प्रिय आत्मा। व्यर्थ की लड़ाइयों के प्रति असंतोष दिखलाती – खून में लिपटी – बच्चों का प्रतिनिधित्व करती सैंकड़ों खून से सनी बेजान गुड़ियां – रस्सी से बंधी और उलटी लटकी हुई . . . यह तो बस सेनफ्रांसिस्को के शान्ति प्रदर्शन का अंदाज है  . . . वीभत्स और झकझोरता हुआ . . . पूरे विश्व में ही प्रदर्शन हो रहे हैं। लोग अपने तरीकों से अपना असंतोष प्रदर्शित कर रहे हैं। लड़ाई से शायद ही शान्ति आ पाए . . . कहकर, इसकी भद्दी शकल दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। ब्लेयर और बुश के पुतले जल रहे हैं। आतंकवाद के खिलाफ आतंक ही आतंक स्वीकार ही नहीं किसी को।

तपते रेगिस्तान में बैठे युवा सैनिक इंतजार कर रहे हैं, अपने घरों को पत्र भेज रहे हैं . . . शायद मैं अब कभी वापस न लौट पाऊं पर एकबार अपने होने वाले बेटे को गोदी में तो उठाना ही है मुझे . . .

कितनी और कैसी भी बेबसी क्यों न हो पर अब यह लड़ाई तो सबको लड़नी ही होगी . . . अमेरिका यही चाहता है और करीब–करीब पूरा विश्व वहीं करेगा जो अमेरिका चाहता है। ब्रिटेन भी वही करेगा जो अमेरिका चाहता है क्या हुआ जो सरकार के अपने एक तिहाई से ज्यादा सांसद रजामंद नहीं . . . फ्रांस जर्मनी और रूस सहमत नहीं  . . विश्व की आधी से ज्यादा जनता इसे गैरकानूनी निरर्थक व वहशी लड़ाई कह रही है . . . पर लड़ाई तो होगी ही . . . अवश्य होगी . . . इराकियों और उनके नेता को अड़तालिस घंटे का समय दिया गया था कि वह अपने बेटों सहित स्वेच्छा से देश छोड़कर चला जाए वरना लड़ाई अवश्यंभावी है। इराकियों को बमों के साथ पर्चे भी फेंके गए हैं . . . हथियार छोड़ दो हम तुम्हें छोड देंगे। अगर तुमने हमारा साथ दिया तो तुम्हें खाना कपड़ा सुरक्षा सब मिलेगी पर डरे लोग कहीं तो सफेद झंडियों के पीछे से आत्म समर्पण कर गए तो कहीं उनकी घायल अस्मिता विक्षिप्त सी टैकों और आधुनिकतम बन्दूकों से लैस सिपाहियों के साथ मरने के लिए नंगे पैर ही जा भिड़ी।

इतवार की गुनगुनी धूप और लंडन की एक संपन्न और खुशहाल सजी बस्ती के सुन्दर सजे रेस्टॉरन्टस के बाहर का दृश्य . . .रंग–बिरंगी छतरियों के नीचे आराम से धीरे–धीरे चाय की चुस्कियां लेते लोग, सजी–संवरी औरतें, कितना सहज और सुन्दर दिख रहा है सब। पर पास ही बीच लंडन की रूपरेखा आज कुछ और है। राइट गीयर से लैस डरी सड़कें और पुलिस। लड़ाई के खिलाफ शान्ति मार्च करने के लिए हजारों सरफिरे जो जमा होनेवाले हैं।

सद्दाम और उसके दो बेटे— तीन आदमियों को पकड़ने के लिए तीस हज़ार की सेना— जिधर देखो उधर आतंक ही आतंक। वह रावण तो हजारों साल पहले ही मर चुका था, फिर यह कैसा धर्मयुद्ध छिड़ा है आज जिसमें राम और रावण के चेहरे एक से ही दिख रहे हैं। लोग मर रहे हैं खुद से, दुश्मनों से, बिना जाने कि आखिर क्यों और किस सच के लिये यह सब?  और इस अपराध के लिए पकड़े जाने पर पिंजरों में बन्द शेरों की तरह उनका सरकस भी दिखाया जा रहा है – दूरदर्शन की हर चैनल पर। चारों तरफ कुहासा ही कुहासा है . . . भ्रान्ति ही भ्रान्ति है पर कुरसियां कह रही हैं हमारा साथ दो, कम से कम बलिदानों की गरिमा और सम्मान के लिए तो हमारे साथ रहो! जलते तेल के कुएं अट्टाहास कर रहे हैं, पूछ रहे हैं . . . कैसा है यह हकलाता, लड़खड़ाता स्वार्थी काठ का विश्वास, यह किसी सच से आंख क्यों नहीं मिला पा रहा? शायद सभी जानते हैं कि यह कोई वाइल्ड वेस्ट या स्टार वार नहीं, इन बमों और गोलियों से फूटकर जो बहेगा वह रंग नहीं, खून ही होगा और आंख बंदकर के जो गिरेंगे वे परदा गिरने पर भी उठ नहीं पाएंगे।

भारतीय विद्या भवन का सभागार और त्रिदिवसीय सफल विश्व हिन्दी सम्मेलन . . . एक सुन्दर सांस्कृतिक समारोह के साथ शुरूआत के बाद अगले दिन बुद्धि उत्तेजक विचारों का आदान प्रदान और अब आज यह समापन समारोह . . . आयोजकों ने परचे, चरचे और खरचे सभी का जिक्र कर लिया है . . . भारत क्रिकेट में विश्व कप हार चुका हैं और सामने मंचपर सभापति जी, जो खुद कवि भी हैं, तिथियों में इतिहास ढूंढ़ रहे हैं . . 21 – 22 – 23 मार्च . . . 22 मार्च जन–नायक श्री जयप्रकाश नारायण द्वारा 1977 में चलाए गए लोकतांत्रिक आंदोलन की तिथि और 23 मार्च शहीद सम्राट भगत सिंह से जुड़ी हुई – (20 मार्च उनका अपना जन्मदिऩ . .) घर आकर पता चलता है कि खुदको पलकों की कोर पे रखकर 22 और 23 ही नहीं, 21 मार्च 2003 भी इतिहास में दर्ज हो गया है। एक ऐसी शख्सियत जिसका नाम देखते ही पत्रिका या किताब उठा लिया करती थी, अब कभी नया नहीं लिख पाएगी़ . . जी हां इसी तारीख को हम सबकी प्यारी कालजयी लेखिका शिवानी काल की काली गर्तों में धुएं–धुएं तिरोहित हो चुकी हैं।

आंखें अतीत की तरफ मुड़ने लगती हैं एक नन्ही सी मुलाकात हृदय में संजोए . . . मुलाकात जिसने कभी प्यार से कल्पना के क्षणों को एक चेहरे की पहचान दी थी। ब्रिटेन में आयोजित पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन, तरह–तरह के बड़े–बड़े नामों में एक प्यारा सा नाम – मन किशोरियों की तरह उत्साहित और भाव–विभोर हो चला – अच्छा तो मेरी शिवानी जी भी आई हैं और वह बोली भी थीं पर मैं तो उन्हें देख या सुन, कुछ भी नहीं पाई . . . एक ग्लानिमय दुःख मन सालने लगता है। अचानक भगवान को दया आ जाती है। बगल में गोमेधी रंग की सादी सिल्क की साड़ी में बैठी गोरी गरिमामय वृद्ध महिला से कोई आग्रह कर रहा था . . . शिवानी जी अपने हाथ से कुछ लिख दीजिए ना मेरी इस किताब पर . . . आंखों में चमक आ जाती है . . . मन पूरी तरह से उन्हें पहचानना और याद कर लेना चाहता है . . . होठ बुदबुदाते हैं . . . बताइये क्या है वह जादू जो एक आम कहानी को विशिष्ट बनाता है . . . चरित्र–चित्रण . . . पात्र ऐसा हो जिसे पढकर लगे – अरे इसे तो जानते थे . . . वह मुस्कुराकर बोल पड़ती हैं . . . पर मैं कहां कुछ सुन या समझ पा रही थी। मन बल्लियों उलझता कहे जा रहा था – हां मैं तो आपको दस वर्ष की उम्र से जानती हूं – शायद उससे भी पहले से . . . वह प्रिय शैल को सस्नेह . . . शब्द आज भी यादों के पन्नों पर मोतियों से चमक रहे हैं . . . द्रोणाचार्य की तरह मार्ग दर्शन कर रहे हैं। वह जो नहीं होकर भी साथ–साथ रहेंगी, मेरा उन्हें शत–शत प्रणाम।

क्या है यह जो हमें हजारों मील दूर बैठकर भी अपनों से, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति से जोड़े रखता है। कबीरदास ने कहीं कहा था कि "प्रियतम को पतियां लिखूं जो कहीं होय विदेश। तन में मन में नयन में वाको का संदेश।" शायद यही प्यार और अपनों से जुड़े रहने का हठी आग्रह ही है जो हमें बदलने नहीं देता़ . . वैसे भी स्रोत से कटकर तो बड़ी से बड़ी नदी तक सूख जाती है। शायद इसी खुद की तलाश में, जुड़े रहने की ललक में, सुख–दुख में डूबा मानव जड़ों सा आजीवन आकंठ एक तलाश में डूबा ही रह जाता है क्योंकि उसे प्यार के, पहचान के वे चन्द चमकीले मोती न सिर्फ ढूंढ़ने होते हैं वरन थाती की तरह आने वाली पीढ़ी को संभालने और देने भी होते हैं।

यही एक एकाग्र निरंतरता ही तो हैं जो हमें दूर रचनाओं के एकाकी संसार में ले जाकर लुभाती – भटकाती है . . . कल्पनाओं की उंची फुनगी पर बैठे जब हम दुनिया से दूर हो जाते हैं तो सचेत करती हैं कि सिर्फ समुद्र–मंथन में ही नहीं, हर तरह के मंथन से नवों रतन, विष और अमृत सबकुछ ही निकलते हैं और उन्हें जीने व झेलने की आदत भी डालनी ही पड़ती है। कहीं कुछ नहीं खोता, छूटता या टूटता – किसी दुराग्रह या दुर्वव्यवहार पर भी नहीं, बस आंख और मन से दूर हो जाता है कुछ समय के लिए – शायद इसे ही जिजीविषा ही नहीं जीवन भी कहते हैं। योग साधना जितनी ही यह रंग–बिरंगी दुनिया भी दुर्लभ और विषम ही है जहां हमारे पल–पल उस खोए सम को ढूंढ़ते ही बीतते हैं।

सृजन–समाधि में डूबे ये योगी दो तरह के होते हैं– एक तो वह जो कुशल गोताखोरों की तरह डूबकी मारते, तलाशते–तराशते हैं। दूसरे वे जो इन चमकीले मोतियों को जौहरी तक पहुंचाते हैं। वैसे देखा गया है कि अक्सर यह पहली और दूसरी श्रेणी की दूरी बहुत क्षीण और कृत्रिम ही होती हैं क्योंकि मोतियों को ढूंढ़ना संभव नहीं, जब तक मोतियों की पहचान न हो। शायद यही वजह है कि हर संपादक का लेखक या संवेदनशील और निष्पक्ष रूपसे जागरूक होना जरूरी है। लिखने का नहीं तो कम–से–कम पढ़ने का अदम्य शौक तो उसे होना ही चाहिए और आंखों में अच्छे लेखन की पहचान। जैसे जेवरातों की गढ़न की प्रक्रिया में सुनार के साथ–साथ पटुए आदि की भी उतनी ही जरूरत होती है इस सृजन प्रक्रिया में भी रचनाकार की कृति को समाज तक पहुंचाने के लिए हमें प्रकाशक और वितरक के साथ–साथ अनुवादक की भी जरूरत पड़ सकती है़ . . और जहां तक मैं समझती हूं, एक सहृदय मेधावी ही एक अच्छा अनुवादक हो सकता है। जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं' की तरह जबतक खुदको भूले नहीं, दूसरे की रचना में डूबे नहीं अनुवादक एक अच्छा अनुवाद नहीं कर सकता।

जीवन की अन्य विधाओं की तरह साहित्य और भाषा भी आदान–प्रदान चाहती है़ . . इसीके सहारे फलती–फूलती है। अगर येट्स ना होते तो टैगोर की गीतांजली को यूरोप में लोग कैसे जान पाते़ . . अनुवादकों की ही कृपा है कि हमारी यह सुलझी–सुलझी पंचतंत्र की कहानियां रूस, हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में धूम मचा पाई। लोग प्रेमचंद और नागार्जुन को जान सके। अज्ञेय को समझने का प्रयास कर सके और हम गोर्की, टोलस्टॉय और चेखव से परिचित हो सके। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं यदि कोई अनुवाद करने का साहस न करता तो भला हम उत्तरी भारतवासी शरद और बंकिम को कैसे पढ़ पाते। हर आदमी इतना विद्वान नहीं कि विश्व की क्या, अपने देश की भी हर भाषा सीख पाए़ . . सोचिए भला यदि अनुवादक न होते तो कालिदास, भवभूति घर–घर कैसे पहुंचते – भृतहरि को कौन पहचानता? गालिब हर जुबां पर कैसे होते ओर जिब्रान व अरस्तु कैसे हर दिल–दिमाग पर राज कर पाते़ . . ?

एक सफल अनुवादक होने के लिए शोध और लक्ष दोनों भाषाओं का ज्ञान होने के साथ–साथ उन दोनों संस्कृतियों का ज्ञान होना भी उतना ही आवश्यक हैं, तभी भाषा की संवेदनशीलता रह पाती है और कथ्य प्रभावशाली, वरना अंग्रेजी में कही बात ' मैंने उंगली काट ली' हिन्दी में 'मेरी उंगली कट गई' बनकर ही रह जाती और वह चेतना–विहीन अपरिचित साहित्य सेंस से उठकर नॉनसेंस में चला जाता।

भाषा पर देश और काल के साथ–साथ राजनीति का भी असर पड़ता ही है – विशेषतः प्रवासियों की भाषा पर। अक्सर देश को छोड़ने के साथ–साथ अपना बहुत कुछ पीछे छोड़ना पड़ता है, जिससे कि नए परिवेश से सामंजस्य और समझौता किया जा सके। रोटी रोजी की इस लड़ाई में हम नित नई भाषा और नई–नई आदतों को अपनाते और सीखते हैं। चन्द नारे, चन्द सभाओं, और चन्द महोत्सवों के सहारे किसी भी बदलते समाज में थोड़ी बहुत जागरूकता तो आ सकती ही पर गतिशीलता नहीं। यदि हिन्दी को जन साधारण तक पहुंचाना है तो हमें हिंदी को उनतक ले जाना होगा। नई पीढ़ी की रूचि आकृष्ट करनी होगी। एक सशक्त बोलने वाली जुबां की तरह इसे जिन्दा रखना होगा वरना संस्कृत और लैटिन की तरह यह भी बस शोध और विद्वानों की ही भाषा बनकर रह जाएगी और हम चंद विदेशियों के साथ बैठकर कुछ परचे पढ़कर हर साल इसका श्राद्ध मनाते रहेंगे।

दूसरी संस्कृति, दूसरे साहित्य की तरफ समृद्धि के लिए देखना तो सही है पर अपने साहित्य और समाज की अवहेलना किए बगैर। जो खुदको जानता है वही दूसरों को भी जान सकता है और यदि हम खुद को सम्मान देंगे तभी विश्व भी हमें सम्मान देगा। हिन्दी की असली पहचान विश्व को भारतीय मूल के व्यक्ति ही दे सकते हैं . . विविधता बस आकर्षित करती है भूख नहीं मिटा सकती। हमारी ममतामयी संस्कृति और भाषा का आंचल बहुत बड़ा है़ . . ताज़ी हवा की बात दूसरी है वरना दर–दर भटकना किसी भी संदर्भ में एक संतुष्ट प्रवृत्ति नहीं। ना ही यह सोचकर डरना कि तेजी से विश्वीकरण की तरफ बढ़ते इस युग में हम सब अपनी–अपनी अस्मिता खो देंगे़ . . एक से ही कपड़े पहनेंगे – वही जीन्स . . . एक सा ही खाना खाएंगे – वही पीजा और बर्गर वगैरह . . . एक सी ही जुबां बोलेंगे – (नाम लेने की जरूरत नहीं) और यही नहीं पॉप कल्चर के इस युग में एक सा ही संगीत सुनेंगे – कहीं से भी सही नहीं यह बात . . . क्योंकि आत्मा में रचे संस्कार तो मरकर भी खत्म नहीं होते फिर मीडिया और विज्ञापन इसे क्या खत्म कर पाएंगे – सैंकड़ों सालों से विदेशों में बसे प्रवासी उनकी मानसिकता इसकी गवाही है – कहते हैं कि हमारे कुछ अंग्रजों को जब जंजीरों में बांधकर क्रिस्चियन बनाकर, सब्ज बाग दिखाकर विदेशों में ले जाया जा रहा था तो वे रास्ते में नदी देखकर हर–हर गंगे कहकर कूद पड़े थे। पुनः स्फूर्तिमय हो गए थे और अधिकारियों के असंतुष्ट होने पर बोले थे कि तुम्हारे कहने से हम क्रिस्चियन तो हो गए पर इसका मतलब यह तो नहीं कि अपनी गंगा मैया को भूल जाएं, पूजा छोड़ दें। और काफी हद तक इसी बात को साबित कर रहे थे वह वैज्ञानिक भी जिन्होंने वह प्रयोग किया था जिसमें कुछ चूहों ने पिंजड़े के अन्दर पनीर तक पहुंचाने का रास्ता ढूंढ़ लिया था और कुछ थे जो यह नहीं ढूंढ़ पाए थे पर बाद में आश्चर्य और चौका देनेवाली बात यह भी थी कि जो चूहे रास्ता ढूंढ़ पाए थे उनके नवजात बच्चे भी, बिना बताए या ढूंढ़े, खुदही पनीर तक पहुंचने का रास्ता जानते थे। जब अधिकांश समस्याओं का जवाब हमारे अपने अन्दर ही पूर्वजों के आशीष स्वरूप उपस्थित रहता है तो फिर क्यों भटकते रहते हैं हम दर–दर . . . जंगल–जंगल़ . . उस खोए सम को ढूंढ़ते – कभी एक चालाक लोमड़ी से शिकार की तलाश में तो कभी खुद ही भूखे भेड़िये के हाथों चिथड़े – चिथड़े . . .

जाते–जाते एक बार और पूछना चाहूंगी, आपकी यह नन्हीं पाती एक वर्ष की होने जा रही है़ . . क्या यह अपनी तुतलाती भाषा और लड़खड़ाते कदमों के साथ आपतक पहुंच पाई, यदि हां तो विकसित होकर आप इसे किस रूप में देखना चाहेंगे . . . बताइयेगा जरूर।

इन्तजार में आपकी अपनी अनुभूति व अभिव्यक्ति

मार्च 2003

 
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