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परिक्रमा लंदन पाती

घर से घर तक

—शैल अग्रवाल

दो किनारे दो देश . . .दो घर और बीच में तरल व उद्वेलित, तटों से जुड़े रहने की अदम्य चाह लिए निरंतर पिघलता बहता मन . .  प्यार और आवाहन के शीशे में अक्स सा उतरा, मातृभूमि पर खड़ा, खुद से पूछता 'कौन है तू . . .भारतीय या बस एक भारतवंशी?' जवाब उलझते हैं और अंतस किनारे झाग बन बिफर जाते हैं। आसान तो नहीं अस्मिता से जुड़ना, टूटना और एक ही जन्म में भारतवासी से भारत–वंशी मात्र रह जाना।

इतना अकेला और अनाथ तो पहले कभी नहीं महसूस किया था। सड़कों पर घूमते, अपनों से मिलते–जुलते, कम से कम वह एक भारतीय होने का भ्रम तो बना ही रहता था पर आज इस प्रवासी खेमें ने सबकुछ बदल दिया था। बिल्कुल ही अलग खड़ा कर दिया था . . .अपने ही घर में मेहमान–सा बनाकर। दूर हरे पीले नीले रंगों की लाइनों के पीछे खड़ी मन की सारी असुरक्षा, सारा भय चन्द पंक्तियों में फूट पड़ा . . .
एक सड़क तो बना रहे हो तुम मेरे घर से घर तक
ध्यान रहे खुद न जाएं कहीं ज़हन की वो वादियां।

पिछले महीने के चन्द चलचित्र से दिन बारबार घूम रहे हैं, आंखों के आगे अपना टेक और रि–टेक देते हुए . . .बड़ी–बड़ी हस्तियां, बड़े–बड़े नाम . . .पहुंच से दूर . . .बहुत दूर . . .बड़ी और चर्चित हस्तियां। लालकृष्ण अडवानी, मुकेश अम्बानी, अरूण शौरी, यशवन्त सिन्हा, ज्योतिर् आदित्य सिन्धिया, रूबी भाटिया और विनोद खन्ना भी . . .हीरो विलेन सब . . .विश्वसनीय अविश्वसनीय से चन्द नाम . . .एहसास दिलाते, भले ही परदेसी खेमें में ही सही पर ये चन्द दिन विशिष्ट हैं। हंसी और कहकहों के बीच, मेल–मिलाप के बीच, लोग नाम व पते बदलते। मंच नहीं तो आपस में ही लम्बे–लम्बे चिठ्ठे खोलते–पढ़ते। जनवरी की गुनगुनी धूप में सब कुछ बहुत ही आरामदेह और बेपरवाह सा था। चारो तरफ बस फुरसत ही फुरसत। लोग बिना दुल्हे–दुल्हन के (खास मकसद या मुद्दे के) बारातियों की तरह खातिर करते और कराते . . .दो सौ डॉलर की पाई–पाई वसूलते . . .मस्त और बेझिझक . . .मानो इस आज का कोई कल ही नहीं। मानो पूरे भारत का आतिथ्य यहां चन्द दिनों के लिए सिमट आया हो . . .खाने पीने और मनोरंजन के इतने वृहद और रंगारंग आयोजन . . .खुद को रोक पाना असंभव ही था। भागदौड़ का एक व्यस्त पहलू और भी था . . .इस सबके साथ व्यापार, पौंड और डॉलर के मुद्दे भी तो जुड़े हुए थे . . .दुनिया भर के देशों में बिखरे भारतीयों का एक काल्पनिक घर जिसकी छत और दीवारें विदेशी मुद्रा से चुनी जानी हैं। अतिथि मेजबान सभी गागर में सागर भर रहे थे।

बस एक वह सरल और छोटी सी राष्ट्रपति से मुलाकात ही मन नहीं भूल पा रहा था, गहरी सफेद भवों के नीचे बच्चों सी मन को भेदती जिज्ञासु आंखें और सरल सा दर्शन . . .एक आवाज़ भीड़भाड़ में भी प्रेरणा स्त्रोत . . .'भारतीय हो तो भारतीयता में गर्व करो। ध्येय और जीवन दोनों को ही पूरी ईमानदारी और काबिलियत से जिओ। फिर देखना तुम अपने देश का गौरव कहलाओगे। क्योंकि तुम सभी तो उन दूर–दराज किनारों पर भारत के बेताज राजदूत हो।'

शाम का सुरमई धुंधलका धूप को अगले दिन के लिए समेट चुका था और नियोन लाइट्स की झिलमिल में माहौल और भी उल्लासमय व रंगीन लग रहा था। पंडाल के बीचोबीच, ठीक मंच के सामने गद्देदार कुरसियों पर सुरूचिपूर्ण सफेद आवरण चढ़े हुए थे। नेता, अभिनेता, रिश्वतखोर, मुफ्तखोर सब विराजमान थे उनपर, सिवाय प्रवासी अतिथियों के। प्रवासी दिवस के इस रंगारंग कार्यक्रम में एकबार फिर भेदभाव हुआ था। छोटी–छोटी प्लास्टिक की कुरसियों पर हरी, लाल लाइनों के पीछे पंक्तिबद्ध बैठे वह चुपचाप सब सह गए। दो सौ डॉलर की चुभन हर आंख से टपक रही थी। जो भारत को, देश को जानते थे चुप थे, पर जोशीलों का (एकाध पीढ़ी के बाद पहली बार भारत आए) दिस इज नॉट फेयर वाला धीमे–धीमे उभरता असंतोष ठंडी हवा में जाने कहां जमता चला जा रहा था, संचालकों के कानों पर जूं रेंगे बगैर ही . . .मचाने दो शोर इन्हें, यहीं ठीक हैं ये . . .क्या पता कोई आतंकवादी ही हो इनमें से, सुरक्षा तो पूरी होनी ही चाहिए . . .अनजान बुजुर्गों और प्रौढ़ों की तरफ अफसराना अन्दाज़ में देखते हुए, खुदको, अपनी सोच को तसल्ली दे ली थी उन्होंने। बढ़ते रंगारंग कार्यक्रमों के साथ–साथ वक्त और बातें दोनों ही बढ़ते चले गए।

थोड़ी देर बाद ही छोटी बड़ी कुरसियां, उम्र, वक्त सबको भूलकर लोगों ने एकबार फिर खालिस स्कॉच में गंगाजल का मजा लेना शुरू कर दिया। फिजी और सूरीनामी कलाकारों का नृत्य–संगीत मादक ही इतना था। इतनी फड़कती धुनें कि लगा ए आर रहमान के बाद भारतीय फिल्मी संगीत का अगला दशक बस इन्हीं का ही होना चाहिए। लुभाने को तो सोनू निगम और सुनिधि चौहान भी आए पर मानस पर कोबरे सी लिपटी और थिरकती रहीं वहीं कैरेबियन धुने। विश्वास नहीं हो पाया कि यह सब सीधे–साधे हनुमान चालीसा और रामचरितमानस पढ़ने वाले बिहारियों के वंशज हैं। भारतीय लोकगीतों का रम सा मादक कॉकटेल . . .पता नहीं उन नीले टापुओं की नशीली धूप का असर था या मात्र रिमिक्स युग का तकनीकी जादू। फिर प्रवासी दिवस के जोशीले माहौल का भी तो कुछ असर होना ही था . . .हर पैर ताल दे रहे थे और गंभीर से गंभीर सर उन तालों पर झूम रहे थे। बेहद धूम–धड़ाके के बाद अगली रात मुज़फ्फर अली का प्रोग्राम बेहद सुरूचिपूर्ण और कलात्मक था, पर एक लंबे विलंब की वजह से कितने जगे और देख पाए कहना असंभव ही है।

मेल–मिलाप की समापन शाम कवि–सम्मेलन बनकर आई। आयोजन अक्षरम् का था और मेला अपनों का। कुछ मुस्कुराते चेहरे कुछ फैली बांहें और ढेर सारे तेवर व रंग बिरंगी कविताएं। जोशीली आह और वाह–वाह के बीच कई ऐसे भी थे जो सुन और समझ रहे थे। माहौल वाकई में चटपटी चाट जैसा ही था पर भूखी काव्य आत्माओं के लिए छप्पन भोग व्यवस्था के साथ।

ऐसा भी नहीं कि वे तीन चार दिन बस मौज–मस्ती के लिए ही याद रहेंगे, बहुत कुछ था जो चुपचाप साथ हो लिया . . .अंतरंग हो गया जैसे कि भाई कुंवर बेचैन जी की प्यार से दी हुई किताब 'आंगन की अलगनी'।

उद्वेलित और उत्साही भावुक मानसिकता और ढेर सारी अपेक्षाएं . . .खुद–ब–खुद यादों की गठरी में आ सिमटती हैं जब भी कोई प्रवासी या निवासी घर की ओर कदम उठाता है . . .दूर बसा वह घर मां–बाप, भाई–बहन, मित्र–रिश्तेदारों, किसी का भी हो सकता है या फिर मात्र यादों की गलियों में बसा एक ढहता खंड़हर। जैसे–जैसे बाहर के रिश्ते छूटते हैं, आदमी अंतर्मुखी होता चला जाता है। प्रकृति, जड़, चेतन सब उसके रिश्तेदार बन जाते हैं। गांव की सरहद पर खड़ा पेड़ मित्रों सा चहककर स्वागत करता है और घर के बाहर खड़ा बिजली का खंभा जिसके नीचे कभी बेचैन मां–बाप इन्तज़ार करते थे, ललक के साथ कन्धे पर हाथ रखकर पूछता है 'आ गई बेटा'। मन्दिरों में खड़ी मूर्तियों से बैठकर, दो मिनट बात करने को, अपना दुख–दर्द कहने को मन करता है। ऐसी उद्वेलित मानसिकता और यादों के दलदल में फंसा प्रवासी जब भारत की भूमि पर पैर रखता है तो हर्षातिरेक और चुभन दोनों का ही अहसास होना स्वाभाविक ही तो है। जब अपने से दिखते अजनबी हाथ बढ़ाकर मुस्कुराकर स्वागत करते हैं तो स्वर्ग मिल जाता है और हरे पीले अलग–अलग रंगों में अस्तित्व बांट दे तो मन रो पड़ता है।

माना परछाइयों से नाता तोड़ना आसान नहीं पर हमें याद रखना चाहिए कि परछाइयां साथ तो जरूर चलती हैं पर उन्हें भी मूर्त होने के लिए एक दूरी की जरूरत होती है। तभी ये साथ–साथ चल पाती हैं। आधुनिक और सामायिकी संदर्भ में हम इस दूरी को एडजस्टमेंट या समन्वय का नाम दे सकते हैं। एक दूसरे को समझते हुए, एक दूसरे की जरूरत जानते हुए साथ–साथ चलना . . .यही सफलता की कुंजी है। मात्र कोरी भावुकता भीगे कम्बल सी भारी है और कोरा यथार्थ पैरों की बेड़ी। अगली पीढ़ी तक शायद कोरी मिट्टी सी कच्ची देश के प्रति हमारी यह मानसिकता यथार्थ की धूप में सूखकर, व्यावहारिकता की आंच में तपकर एक ठोस ईंट का रूप ले ले . . .ईंटें जिनसे इमारत खड़ी की जाती हैं . . .इमारतें जिनमें इन्सान, उनकी जरूरतें, सामान सबकुछ सहेजा और रखा जा सकता है। ईंटें जिन्हें नेह या अवहेलना की सीलन तेजी से नम नहीं कर पाती, ना ही दुर्व्यवहार के कीड़े इनका अंतस खोखला कर पाते हैं।

नई पीढ़ी तटस्थ है, दोनों तटों पर बहती भारतीय संस्कृति और वंशागत परम्पराओं की नदी उन्हें कैसे जोड़े रख सकती है . . .अर्थार्जन के साथ–साथ जीवन के विविध रत्नों को कैसे अपनी मिट्टी के साथ उन वादियों तक बहाकर ला सकती है, शायद यही हर दूरदर्शी राजनीतिज्ञ और सहृदय प्रवासी व निवासी भारतीयों का संकल्प हैं जो आज प्रवासी–दिवस के रूप में प्रस्फुटित हुआ है और एक सराहनीय कदम है। भीड़ की इस रेलचेल में हमें बस इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम एक दूसरे की सीमा का अतिक्रमण न करें . . .पैरों को न कुचलें।

क्या है जो हमें जोड़े रख सकता है . . .स्नेह निश्चय ही पहली शर्त हो सकती है और स्नेह के लिए परिचय जरूरी है . . .परिचय अपनों से . . .अपनेपन से। जब तक हम यह याद न रखें कि चप्पल चौके के बाहर उतारी जाती हैं मां नेह की थाली कैसे परोस पाएगी। और जब तक मां यह न जाने कि बरसों से बाहर भटका बेटा तीन वक्त की रसोई नहीं खा सकता . . .उसका पानी फरक होगा . . .वह स्वस्थ कैसे रह पाएगा और यदि स्वस्थ नहीं होगा तो मां से मुस्कुराकर गले कैसे मिल पाएगा। सारांश यह है कि हमें एक दूसरे की बदलती जरूरतों को ध्यान में रखकर ही आगे बढ़ना होगा।

हर भाषा की अपनी एक संस्कृति होती है और हर संस्कृति का अपना एक इतिहास। और संस्कृति व इतिहास जानने के लिए भाषा जानना जरूरी है। यदि हम भारतीय संस्कृति के अनुसार अपने अतिथि का स्वागत करना चाहते हैं तो 'अतिथि देवो भव' से पहले हमें देव शब्द को समझना पड़ेगा। और उसके लिए मनु स्मृति को खोलना पड़ेगा जहां लिखा है कि माता पिता गुरू और पति पत्नी एक दूसरे के लिए देव होते हैं। शब्दकोष को खोलना होगा जहां सृजन और सज्जन का साथ देनेवाले को देव कहा गया है। जो दे वही देव है। यानि कि सत्कार करवाने के लिए भी देव बनना पड़ता है। कुछ भी ठीक–ठीक और बारीकी से जानने के लिए भाषा के महत्व को नहीं नकारा जा सकता क्योंकि यही तो संस्कृति और विचार–वाहिनी है। नदी सा अगला–पिछला सब लेकर चलती है . . .नींव के पत्थर, सोच की मिट्टी सभी कुछ। पगडंडियां क्या यह तो बहते–बहते टापू और वादियां तक बना जाती है। वादियां जहां नए पंखों वाले परिन्दों का जन्म होता है . . .परिन्दे जो अपने नए पंखों से नई उड़ान की सामर्थ्य रखते हैं।

समय के प्रवाह से आए बदलाव को हम रोक नहीं सकते पर जरूरतों के हिसाब से उन्हें मनचाहा मोड़ देना, अपनी व्यक्तिगत जरूरत, पसंद–नापसंद के हिसाब से एक दूसरे का हाथ पकड़कर चलना ही आज के इस विश्वीकरण के युग में सफलता की कुंजी हैं। पर हर समन्वय में बराबर की साझेदारी ही ठीक से काम कर पाती है।

भारत की विस्तृत जनसंख्या जहां भारत के लिए एक अभिशाप है वहीं आज उसकी शक्ति भी बन सकती है। चीन यह बात साबित कर चुका है। सोचिए विदेशों में गया हर भारतीय आज यदि अपनी मातृभूमि से जुड़ा रह पाए तो भारत की और साथ में खुद की भी कितनी मदद कर सकता है। माना कि नए घरों की जरूरतें नई होती हैं। नए पर्यावरण को, नई संस्कृति को अपनाने के लिए पुराना कुछ छूटना स्वाभाविक है। बदलने में बुराई नहीं पर जड़ों से उखड़ना मूर्खता है। बस अर्थ की ही ज़रूरत नहीं होती जीवन में। जरूरतों के कई और भी अर्थ हैं जैसे कि आगे बढ़ने के लिए मात्र एक लकड़ी की लाठी ही सहारा नहीं। इन बदलती परिस्थितियों में यदि हम अतीत के गौरव को, वर्तमान के यथार्थ को और भविष्य के विश्वास को बचाकर रख पाएंगे तो रास्ते खुद–ब–खुद आसान होते चले जाएंगे। अब सवाल यह उठता है कि यह सब संभव कैसे हो? ज्ञान, सहृदयता और समझ। आज के इस बिखरते परिवेश में यह जरूरी है कि सबको साथ लेकर आगे बढ़ा जाए। कोई भी पीछे छूटा न महसूस करे। आहत या घायल न हो। क्योंकि आहत शक्ति निरर्थक और नाशकारक है। शायद यही वजह है कि हमारे यहां क्षत प्रतिमा की पूजा नहीं की जाती।

जब हमारे पास ज्ञान और व्यवहारिकता का इतना बड़ा भंडार है, एक सशक्त और मार्गदर्शक दर्शन हैं तो हमें भटकने की क्या जरूरत? ज़रूरतों की ज़रूरत तेज़ हो तो समझ भी खुद ही आ ही जाती है। और तैयारी समझ व धैर्य के साथ की गई हो तो ध्येय खुद–ब–खुद साध्य हो जाता है। आज के इस संचार युग में ज्ञान और अर्थ का आदान–प्रदान इतना सहज हो चुका है कि जरा से ध्यान और समय से सबकुछ संभव है। विश्वीकरण अब मात्र एक सपना नहीं यथार्थ बन चुका है और अपनी मेहनत व लगन से हम भारतवंशी और भारतवासी इस यथार्थ को अपने भौतिक और आत्मिक विकास के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। सहयोग संस्था और व्यक्तिगत रूप दोनों तरह से मिल सकता है। 

आज दुनिया के हर देश, हर कोने में युवा भारतीय अपनी मेहनत और लगन से उत्कृष्ट से उत्कृष्ट संस्थानों और विभागों में ऊंचे से ऊंचे पद पर हैं। अमेरिका की पूरी सिलिकॉन वैली भारतीय रत्नों से जगमग हैं। इन सबका मात्र तकनीकी सहयोग ही भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि हो सकता है। स्वेच्छा से अगर साल में चार दिन भी वे भारत के लिए समर्पित कर सकें तो संभावनाएं असीमित हैं। प्रवासी दिवस यानी कि विश्व में फैले भारतीयों की एक अटूट कड़ी . . .निश्चय ही यह एक बहुत सोचा, सुलझा और सफल कदम है। अब बस सोचना यह है कि हम आपस में जुड़ मिलकर कैसे सफलता को एक मूर्त रूप दे सकते हैं। आधुनिक संचार तकनीकियों और सिमटते विश्व के साथ वास्तव में संभावनाएं असीमित हैं। कृषि, विज्ञान, शिक्षा व स्वास्थ्य . . .हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान का लेन देन हो सकता हैं पर यह व्यावहारिक, सामाजिक और आर्थिक उन्नति तभी संभव है जब हर भारतीय आत्मा और विचारों से भारत से जुड़ा रह पाए . . .अपने को भारतीय समझे, भारतीय कहलाने में गौरवान्वित हो। पर इसके लिए हम सभी को अपनी स्वार्थी और छोटी सोच से ऊपर उठना होगा। 

जरूरी है कि देश विदेश ही नहीं गांवों और शहरों को भी जोड़ा जाए। सड़कों और गांवों तक सहज यातायात और आधुनिक संचार तकनीकियों का क्रियात्मक उपयोग किया जाए। हर बच्चे के लिए पढ़ाई की सुविधा हो और वह आधुनिक तकनीकियों से पूरी तरह से अवगत हो पाए। तकनीकी जानकारी और ज्ञान–विज्ञान के साथ–साथ छोटी–छोटी स्थानीय भाषा और ज्ञान प्रतियोगिताएं होनी चाहिए जो बच्चों को लिपि से अवगत कराएंगी पर सस्ंकृति और दर्शन से जोड़ेगा साहित्य जिसके लिए भांति–भांति की किताबों की सहज उपलब्धि एक नितांत जरूरत है। एक्सचेन्ज और कम्यूनिकेशन के ब्यूरो बनाए जाएं जो चौबीस घंटे इंटरनेट आदि की सााइट पर उपलब्ध हों। ऐसे डे सेन्टर बनाएं जाएं जहां बच्चे और बड़े अपनी इच्छा और सुविधानुसार आ–जा सकें, अलग अलग विषयों का अध्ययन कर सकें और ज़रूरत पड़े तो सलाह मशवरा भी ले सकें। ये जगहें तभी सफल होंगी जब वातावरण स्वाभाविक और आम जनता के अनुकूल होगा। 

हर शहर में एक मोबाइल लाइब्रेरी दूसरा अच्छा जरिया है। यदि जनसाधारण रोटी–रोजी की मारामारी में हम तक नहीं आ सकते तो हम उनके पास जाएं। जरूरत बस सक्रिय और स्वार्थहीन नियोजित प्रोग्रामों की है . . .जिम्मेदारी हर भारतीय के थोड़े–थोड़े वक्त की है। भारतीय और भारतीयता में गर्व लेने की है। ज्ञान के साथ–साथ भाषाओं का प्रचार प्रसार भी उतना ही जरूरी है क्योंकि जब तक किसी को पूरी तरह से जानो नहीं, उसके प्रति अपनापन नहीं महसूस कर सकते। स्पष्ट इरादे और इरादों का स्पष्टीकरण ही विश्वास जीतता है। हमें अपनी अविश्वास करने की भावनाओं से भी ऊपर उठना होगा।

यूरो की तरह एशियाई देशों के संघटन और एक कॉमन करेंसी के बारे में हमारी सरकार ने भी सोचना शुरू कर ही दिया है। निश्चय ही विश्वीकरण की तरह यह एक सहज और स्वाभाविक कदम होगा। तभी 21 वी सदी भारत की सदी हो पाएगी। पूंजीवाद समाज में जिन्दा रहने के लिए हमें भी पूंजीवाद को अपनाना ही पड़ेगा पर भारतीय मान्यताओं के साथ–साथ। अगर हम अपनी दान और मिल बांटकर खाने और रहने की परंपरा को दूर रहकर भी जीवित रख पाए तो गरीबी भारत से ही नहीं, विश्व से भी खुद–ब–खुद दूर हो जाएगी। कई योग्य और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ इस महत्व को पहचान चुके हैं। पहले जब गांधी जी आए थे, उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी, आज भी हमारे सामने एक ऐसी ही लड़ाई है, विचारों की मुक्ति की। हम सब मिलकर भारत को ही क्या हर भारतीय को आर्थिक और सामाजिक सफलता की ओर ले जा सकते हैं। प्रवासी दिवस या मेला इसी महायज्ञ की शुरूवात है पर किसी भी बड़े काम के लिए एक सच्चा और ईमानदार सहयोग दोनों तरफ से ही जरूरी है। एक दूसरे पर विश्वास करके, यथार्थ की धरती पर खड़े होकर ही हम विश्व कुनबे में पहुंच पाएंगे और मेरे ख्याल से विश्व के कोने–कोने में बिखरे भारतीयों के लिए इससे अच्छा और कोई नए साल का संकल्प हो ही नहीं सकता। हर नए काम में मुश्किलें तो आती ही है। गौर करने की बात बस इतनी है कि आज हर चीज भारतीय और खुद भारत पूरे विश्व की नजर में हैं।

चलते चलते नए साल का एक नायाब तोहफा . . .आप सबके लिए, मेरे अपनों के लिए . . .प्रस्तुत हैं चन्द विचारों के चमकते मोती जो चार दिन के उस सतत् मानसिक मंथन से हाथ लगे . . .

'आजादी का अर्थ है जिम्मेदारी और विश्वसनीयता . . .कर्मों की जिम्मेदारी जिससे लोग हमारी बातों पर भरोसा कर सकें।' – यशवन्त सिन्हा

'जब भी तुम कोई काम या आन्दोलन शुरू करोगे तो पहले लोग तुम्हारी अवहेलना करेंगे फिर तुमपर हंसेंगे और फिर तुमसे लड़ेंगे भी और जब लोग लड़ना शुरू कर दें तो जान लो कि जीत तुम्हारी ही है।' – महात्मा गांधी

अन्त में 'भारतीयता – एक वैश्विक सपना – प्यार और विचारों की एक सांझी धरोहर' . . .लक्ष्मीमल सिंघवी।

जनवरी फरवरी 2004

 
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