सामयिकी भारत से


शब्दाचार्य अरविंद कुमार

दयानंद पांडेय


अरविंद कुमार ने हिंदी थिसारस की रचना का जो विशाल और सार्थक और श्रमसाध्य कार्य किया है, उसने हिंदी को विश्व की सर्वाधिक विकसित भाषाओं के समकक्ष लाकर खड़ा किया है। उनका यह प्रयास न सिर्फ़ अद्भुत है बल्कि स्तुत्य भी है। कमलेश्वर उन्हें शब्दाचार्य कहते थे। हिंदी अकादमी, दिल्ली ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें वर्ष २०१०-२०११ के हिंदी अकादमी शलाका सम्मान से सम्मानित करने का निर्णय लिया है।

अरविंद कुमार ने ८१ वर्ष की उम्र के इस पड़ाव पर भी खामोशी अख्तियार नहीं की है। वह लगातार काम पर काम कर रहे हैं। उनका नया काम अरविंद लैक्सिकन है। आजकल हर कोई कंप्यूटर पर काम कर रहा है। किसी के पास न तो इतना समय है न धैर्य कि कोश या थिसारस के भारी भरकम पोथों के पन्ने पलटे। आज चाहिए कुछ ऐसा जो कंप्यूटर पर हो या इंटरनेट पर। अभी तक उनकी सहायता के लिए कंप्यूटर पर कोई आसान और तात्कालिक भाषाई उपकरण नहीं था। अरविंद कुमार ने यह दुविधा भी दूर कर दी है। अरविंद लैक्सिकन दे कर। यह ई-कोश हर किसी का समय बचाने के काम आएगा।

अरविंद लैक्सिकन पर ६ लाख से ज्यादा अँग्रेज़ी और हिंदी अभिव्यक्तियाँ हैं। माउस से क्लिक करें – पूरा रत्नभंडार खुल जाएगा। किसी भी एक शब्द के लिए अरविंद लैक्सिकन अँग्रेजी और हिंदी पर्याय, सपर्याय और विपर्याय देता है, साथ ही देता है परिभाषा, उदाहरण, संबद्ध और विपरीतार्थी कोटियों के लिंक। उदाहरण के लिए सुंदर शब्द के इंग्लिश में २०० और हिंदी में ५०० से ज्यादा पर्याय हैं। किसी एकल इंग्लिश ई-कोश के पास भी इतना विशाल डाटाबेस नहीं है। लेकिन अरविंद लैक्सिकन का सॉफ्टवेयर बड़ी आसानी से शब्दकोश, थिसॉरस और मिनी ऐनसाइक्लोपीडिया बन जाता है।

इसका पूरा डाटाबेस अंतर्सांस्कृतिक है, अनेक सभ्यताओं के सामान्य ज्ञान की रचना करता है। शब्दों की खोज इंग्लिश, हिंदी और रोमन हिंदी के माध्यम से की जा सकती है। रोमन लिपि उन सब को हिंदी सुलभ करा देती है जो देवनागरी नहीं पढ़ सकते या टाइप नहीं कर सकते।

अरविंद लैक्सिकन को माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के साथ-साथ ओपन ऑफ़िस में पिरोया गया है। इसका मतलब है कि आप इनमें से किसी भी एप्लीकेशन में अपने डॉक्यूमेंट पर काम कर सकते हैं। सुखद यह है कि दिल्ली सरकार के सचिवालय ने अरविंद लैक्सिकन को पूरी तरह उपयोग में ले लिया है।

अरविंद कहते हैं कि शब्द मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है, प्रगति के साधन और ज्ञान-विज्ञान के भंडार हैं, शब्दों की शक्ति अनंत है। वह संस्कृत के महान व्याकरणिक महर्षि पतंजलि को उद्धृत करते हैं, ‘सही तरह समझे और प्रयोग किए गए शब्द इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं।’ वह मार्क ट्वेन को भी उद्धृत करते हैं, ‘सही शब्द और लगभग सही शब्द में वही अंतर है जो बिजली की चकाचौंध और जुगनू की टिमटिमाहट में होता है।’ वह बताते हैं, ‘यह जो सही शब्द है और इस सही शब्द की ही हमें अकसर तलाश रहती है।’

दरअसल इसके लिए भाषाई उपकरण बनाने का काम भारत में हजारों साल पहले ही शुरू हो गया था। जब प्रजापति कश्यप ने वैदिक शब्दों का संकलन ‘निघंटु’ बनाया और बाद में महर्षि यास्क ने संसार का सब से पहला ऐनसाइक्यलोपीडिक कोश ‘निरुक्त’ बनाया। इसे पराकाष्ठा पर पहुँचाया छठी-सातवीं शताब्दी में अमर सिंह ने ‘अमर कोश’ के द्वारा। और १९९६ में जब समांतर कोश नाम से हिंदी थिसॉरस नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया तो हिंदी में बहुतेरे लोगों की आँखें फैल गईं। क्यों कि हिंदी में बहुत सारे लोग थिसॉरस की अवधारणा से ही परिचित नहीं थे। और अरविंद कुमार चर्चा में आ गए थे। वह फिर चर्चा में आए हिंदी-अंगरेज़ी थिसॉरस तथा अंगरेज़ी-हिंदी थिसॉरस और भारत के लिए बिलकुल अपना अंगरेज़ी थिसॉरस के लिए। इसे पेंग्विन ने छापा था। अब वह फिर चर्चा में हैं अरविंद लैक्सिन तथा हिंदी अकादमी शलाका सम्मान से सम्मानित हो कर।

उम्र के ८१वें वसंत में अरविंद कुमार इन दिनों कभी अपने बेटे डॉक्टर सुमीत के साथ पांडिचेरी में रहते हैं तो कभी गाज़ियाबाद में। इन दिनों वह गाज़ियाबाद में हैं। अरविंद कुमार को कड़ी मेहनत करते देखना हैरतअंगेज ही है। सुबह ५ बजे वह कंप्यूटर पर बैठ जाते हैं। बीच में नाश्ता, खाना और दोपहर में थोड़ी देर आराम के अलावा वह रात तक कंप्यूटर पर जमे रहते हैं। उम्र के इस मोड़ पर इतनी कड़ी मेहनत लगभग दुश्वार है। लेकिन अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार के साथ यह काम कर रहे हैं।

समांतर कोश पर वे पिछले ३५-३६ सालों से लगे हुए थे। अरविंद हमेशा कुछ श्रेष्ठ करने की फ़िराक़ में रहते हैं। एक समय टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप से प्रकाशित फ़िल्म पत्रिका माधुरी के न सिर्फ़ वह संस्थापक संपादक बने, उसे श्रेष्ठ फ़िल्मी पत्रिका भी बनाया। टाइम्स ऑफ़ इंडिया गु्रप से ही प्रकाशित अंगरेज़ी फ़िल्म पत्रिका फ़िल्म फेयर से कहीं ज़्यादा पूछ तब माधुरी की हुआ करती थी। माया नगरी मुंबई में तब शैलेंद्र और गुलज़ार जैसे गीतकार, किशोर साहू जैसे अभिनेताओं से उन की दोस्ती थी और राज कपूर सरीखे निर्माता-निर्देशकों के दरवाजे़ उन के लिए हमेशा खुले रहते थे। कमलेश्वर खुद मानते थे कि उन का फ़िल्मी दुनिया से परिचय अरविंद कुमार ने कराया। और वह मशहूर पटकथा लेखक हुए। ढेरों फ़िल्में लिखीं।

बहुत कम लोग जानते हैं कि ख्वाज़ा अहमद अब्बास की फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के लिए स्क्रीन टेस्ट में अरविंद कुमार ने ही अमिताभ बच्चन को चुना था। तो ऐसी माया नगरी और ग्लैमर की ऊभ-चूभ में डूबे अरविंद कुमार ने हिंदी थिसॉरस तैयार करने के लिए १९७८ में १६ साल की माधुरी की संपादकी की नौकरी छोड़ दी। मुंबई छोड़ दी। चले आए दिल्ली। लेकिन जल्दी ही आर्थिक तंगी ने मजबूर किया और खुशवंत सिंह की सलाह पर अंतरराष्ट्रीय पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संस्थापक संपादक हुए। जब सर्वोत्तम निकलती थी तब अंगरेज़ी के रीडर्स डाइजेस्ट से ज़्यादा धूम उस की थी।

लेकिन थिसॉरस के काम में फिर बाधा आ गई। अंततः सर्वोत्तम छोड़ दिया। अब आर्थिक तंगी की भी दिक्कत नहीं थी। अरविंद कुमार कहते हैं कि थिसॉरस हमारे कंधे पर बैताल की तरह सवार था, पूरा तो इसे करना ही था। बाधाएँ बहुत आईं। एक बार दिल्ली के मॉडल टाउन में बाढ़ आई। पानी घर में घुस आया। थिसॉरस के लिए संग्रहीत शब्दों के कार्डों को टाँड पर रख कर बचाया गया। बाद में बेटे सुमीत ने अरविंद कुमार के लिए न सिर्फ़ कंप्यूटर ख़रीदा बल्कि एक कंप्यूटर ऑपरेटर भी नौकरी पर रख दिया- डाटा इंट्री के लिए। थिसॉरस का काम निकल पड़ा। काम फ़ाइनल होने को ही था कि ठीक छपने के पहले कंप्यूटर की हार्ड डिस्क ख़राब हो गई। लेकिन गनीमत कि डाटा बेस फ्लापी में कॉपी कर लिए गए थे। मेहनत बच गई। और अब न सिर्फ़ थिसॉरस के रूप में समांतर कोश बल्कि शब्द कोश और थिसॉरस दोनों ही के रूप में अरविंद सहज समांतर कोश भी हमारे सामने आ गया। हिंदी-अंगरेज़ी थिसॉरस भी आ गया।

अरविंद न सिर्फ़ श्रेष्ठ रचते हैं बल्कि विविध भी रचते हैं। विभिन्न देवी-देवताओं के नामों वाली किताब शब्देश्वरी की चर्चा अगर यहाँ न करें तो ग़लत होगा। गीता का सहज संस्कृत पाठ और सहज अनुवाद भी सहज गीता नाम से अरविंद कुमार ने किया और छपा। शेक्सपियर के जूलियस सीजर का भारतीय काव्य रूपांतरण विक्रम सैंधव नाम से किया, जिसे इब्राहिम अल्काज़ी जैसे निर्देशक ने निर्देशित किया। गरज यह कि अरविंद कुमार निरंतर विविध और श्रेष्ठ रचते रहे हैं।

एक समय जब उन्होंने सीता निष्कासन कविता लिखी थी तो पूरे देश में आग लग गई थी। सरिता पत्रिका जिस में यह कविता छपी थी देश भर में जलाई गई। भारी विरोध हुआ। सरिता के संपादक विश्वनाथ और अरविंद कुमार दसियों दिन तक सरिता दफ़्तर से बाहर नहीं निकले। क्योंकि दंगाई बाहर तेजाब लिए खड़े थे। सीता निष्कासन को लेकर मुकदमे भी हुए और आंदोलन भी। लेकिन अरविंद कुमार ने अपने लिखे पर माफी नहीं मांगी। न अदालत से, न समाज से। क्योंकि उन्होंने कुछ ग़लत नहीं लिखा था। एक पुरुष अपनी पत्नी पर कितना संदेह कर सकता है, सीता निष्कासन में राम का सीता के प्रति वही संदेह वर्णित था। तो इसमें ग़लत क्या था? फिर इसके सूत्र बाल्मीकी रामायण में पहले से मौजूद थे।

अरविंद कुमार जितना जटिल काम अपने हाथ में लेते हैं, निजी जीवन में वह उतने ही सरल, उतने ही सहज और उतने ही व्यावहारिक हैं। तो शायद इस लिए भी कि उनका जीवन इतना संघर्षशील रहा है कि कल्पना करना भी मुश्किल होता है कि कैसे यह आदमी इस मुकाम पर पहुँचा। कमलेश्वर अरविंद कुमार को शब्दाचार्य ज़रूर कह गए हैं। और लोग सुन चुके हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि अमरीका सहित लगभग आधी दुनिया घूम चुके यह अरविंद कुमार जो आज शब्दाचार्य हैं, एक समय बाल श्रमिक भी रहे हैं। हैरत में डालती है उनकी यह यात्रा कि जिस दिल्ली प्रेस की पत्रिका सरिता में छपी सीता निष्कासन कविता से वह चर्चा के शिखर पर आए उसी दिल्ली प्रेस में वे बाल श्रमिक रह चुके हैं।

वह जब बताते हैं कि लेबर इंस्पेक्टर जाँच करने आते थे तो पिछले दरवाज़े से अन्य बाल मज़दूरों के साथ उन्हें कैसे बाहर कर दिया जाता था तो उनकी यह यातना समझी जा सकती है। अरविंद उन लोगों को कभी नहीं समझ पाते जो मानवता की रक्षा की खातिर बाल श्रमिकों पर पाबंदी लगाना चाहते हैं। वे पूछते हैं कि अगर बच्चे काम नहीं करेंगे तो वे और उनके घर वाले खाएँगे क्या? वे कहते हैं कि बाल श्रम की समस्या का निदान बच्चों को काम करने से रोकने में नहीं है, बल्कि उोनके माता पिता को इतना समर्थ बनाने में है कि वे उनसे काम कराने के लिए विवश न हों।

वे बाल मजदूरी करते हुए पढ़ाई भी करते रहे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अंगरेज़ी में एम. ए. किया और इसी दिल्ली प्रेस में डिस्ट्रीब्यूटर, कंपोजिटर, प्रूफ रीडर, उप संपादक, मुख्य उप संपादक और फिर सहायक संपादक तक की यात्रा करते हुए कैरवां जैसी पत्रिका भी निकाली। सरिता, मुक्ता, चंपक तो वह देखते ही थे। सचमुच अरविंद कुमार की जीवन यात्रा देख कर मन में न सिर्फ़ रोमांच उपजता है बल्कि आदर भी।

२७ जून २०११