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                  लोकतंत्र में गोपनीयता का क्या काम है? विकीलीक्स के बहाने 
					वेद 
					प्रताप वैदिक का लेख- 
 
							रहस्यों का लोकतंत्र 
 
                         
							लोकतंत्र में गोपनीयता का क्या काम है? जब सारा शासन 
							जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता का है तो उसमें कोई भी 
							बात छिपाने लायक क्यों होनी चाहिए? यह तो आदर्श स्थिति 
							है लेकिन व्यवहार में तो कुछ और ही होता है। जितनी 
							बातें बताई जाती हैं, उनसे ज्यादा छिपाई जाती हैं। 
							अमेरिका दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र माना जाता है 
							लेकिन देखिए, ‘विकीलीक्स’ ने उसका क्या हाल कर दिया 
							है। इस बार लगभग ढाई लाख गोपनीय दस्तावेज़ उसने चौराहे 
							पर ला खड़े किए हैं। ‘विकीलीक्स’ के संचालक जुलियन 
							असांज ने जिन पाँच अखबारों को ये दस्तावेज़ दिए हैं, 
							उनमें से अभी बहुत थोड़े-से ही रिसकर बाहर आए हैं। ये 
							दस्तावेज़ उजागर हों, उसके पहले ही अमेरिकी विदेश 
							मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कई देशों से क्षमा-याचना की 
							है।
 ऐसी क्षमा-याचना की जरूरत आखिर क्यों होती है? इसीलिए 
							कि सरकारें अक्सर दोमुँही होती हैं। मुँह में मुहब्बत 
							होती है और दिल में ईट-पत्थर भरे होते हैं। जैसे इन 
							दस्तावेजों में रूसी नेता व्लादिमीर पुतिन को ‘अल्फा 
							डॉग’ कहा गया है, फ्रांसीसी राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी 
							को ‘निर्वस्त्र-सम्राट’ की उपाधि दी गई है, इतावली 
							प्रधानमंत्री सिल्वियो बरलस्कनी को ‘बड़बोला और 
							नाकारा’ माना गया है। लिब्या के नेता मुअम्मर कज्ज़ाफी 
							के बारे में कहा गया है कि उन पर एक ‘उक्रेनी नर्स’ का 
							कब्जा है। ईरानी राष्ट्रपति अहमदीनिजाद की तुलना हिटलर 
							से की गई है और उनको सनकी आदि कहा गया है। अभी तक 
							भारतीय नेताओं के बारे में कुछ भी सामने नहीं आया है 
							लेकिन हो सकता है कि उनके बारे में इनसे भी सख्त 
							टिप्पणियाँ उजागर हों। जाहिर है कि ऐसी टिप्पणियों के 
							उजागर होने से राष्ट्रों के बीच तनाव पैदा हो सकता है 
							लेकिन हर शासनाध्यक्ष को पता होता है कि अपनी अंदरूनी 
							बातचीत में और अपने अंदरूनी पत्र-व्यवहार में इस तरह 
							की अनौपचारिक टिप्पणियाँ सभी राष्ट्रों में होती हैं। 
							कूटनीतिक दस्तावेजों में राजनयिक लोग अपनी-अपनी 
							सरकारों को जो बातें लिखते हैं वे दूसरी सरकारों से 
							कैसे कह सकते हैं? जो लोग कूटनीति के धंधे में हैं, 
							उनके लिए ये रहस्योद्घाटन बहुत चौंकानेवाले नहीं हैं। 
							कूटनीति और राज-काज आखिर मनुष्य ही चलाते हैं। 
							मनुष्यों की जो स्वाभाविक वृत्ति होती है, वह कूटनीति 
							और राज-काज में भी परिलक्षित होती है।
 
 इस तरह के रहस्योद्घाटनों से सरकारें इसलिए डरती हैं 
							कि उनकी असली मन्शा और भावी साजिशें भी उजागर हो जाती 
							हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसी सरकार होगी, जिसका 
							कोई रहस्य नहीं होगा। सरकार तो क्या, कोई ऐसा व्यक्ति 
							भी खोजना मुश्किल होगा, जो अपनी हर बात प्रकट कर सकता 
							होगा। ‘विकीलीक्स’ के कारण अगर अमेरिकी सरकार की जान 
							साँसत में है तो भारत में ‘राडिया टेप्स’ के कारण अनेक 
							उद्योगपति, नेता और पत्रकार परेशान हैं। उनका कहना है 
							कि निजी बातचीत को सार्वजनिक करना व्यक्तियों के 
							स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है। कुछ हद तक यह तर्क 
							सही लगता है लेकिन यहाँ प्रश्न यह भी है कि क्या 
							व्यक्तियों को यह अधिकार भी है कि वे करोड़ों नागरिकों 
							के खून-पसीने की कमाई को हड़पने की साजिश करें? राज्य 
							और सरकार को धोखा देने के लिए फोन पर बातचीत करें और 
							उसे गोपनीय रखने का आग्रह करें? ऐसी बातचीत, जिसका 
							संबंध करोड़ों लोगों के नफे-नुकसान से हो, क्या निजी 
							मानी जा सकती है? यदि कोई बातचीत पति-पत्नी या 
							बाप-बेटे या दो दोस्तों के बीच हो रही हो तो वह तो 
							निजी मानी जा सकती है लेकिन दो दलालों या दो 
							उद्योगपतियों के बीच होनेवाली ऐसी बातचीत, जिसका असर, 
							खासतौर से बुरा असर राज-काज पर पड़ता हो तो उसकी 
							उपेक्षा करना तो जन-द्रोह है। इसीलिए हर देश में 
							खुफिया एजेंसियों को ऐसे लोगों पर निगरानी रखने की छूट 
							होती है। इस छूट का दुरूपयोग किया जा सकता है लेकिन 
							वास्तव में दुरूपयोग हो तो लोकमत चुप नहीं बैठता है। 
							इस तरह का दुरूपयोग करनेवालों को जनता ‘ब्लेकमेलर’ या 
							‘पीत पत्रकार’ या ‘असामाजिक तत्व’ कहकर दरकिनार करती 
							है।
 
 यदि किसी भी लोकतंत्र को सच्चा लोकतंत्र बनना है तो 
							खुलापन उसकी पहली शर्त है। इसीलिए सूचना के अधिकार को 
							इस सरकार की महान उपलब्धि कहा गया है लेकिन इस अधिकार 
							के मार्ग में भी असंख्य रोड़े अटकाए जाते हैं। तथ्यों 
							को छिपाए रखने के लिए विचित्र बहाने बनाए जाते हैं। 
							हाल ही में एक उच्च न्यायालय ने सूचना के अधिकार को 
							अमान्य कर दिया और कहा कि आपको किसी नेता का धर्म क्या 
							है, यह पूछने का हक नहीं है। क्या अपना धर्म भी छिपाने 
							की चीज़ है? क्या किसी धर्म का पालन करना अनैतिक या 
							अवैधानिक है? यदि छिपने-छिपाने की छूट मिल जाए तो 
							हमारी सरकारें तो पूरी तरह छिप जाना चाहेंगी। वे 
							परमात्मा की तरह निर्गुण-निराकर बन जाना चाहेंगी। ताकि 
							उन्हें न संसद पकड़ सके, न न्यायालय, न जनता ! इस 
							दृष्टि से जितने रहस्योद्रघाटन हो रहे हैं, उतना अच्छा 
							!
 
 ‘विकीलीक्स’ के जरिए जितने रहस्योद्घाटन हो रहे हैं, 
							उनसे अमेरिकी प्रशासन पसोपेश में पड़ सकता है लेकिन वे 
							कुल मिलाकर दुनिया के लिए फायदेमंद ही होंगे। जैसे 
							हिलेरी क्लिंटन का अपने कूटनीतिज्ञों को यह निर्देश 
							देना कि संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत पर वे 
							जासूसी करें, क्या किसी मित्र देश के प्रति ऐसा 
							दुर्भावनापूर्ण रवैया ठीक माना जा सकता है? हिलेरी 
							क्लिंटन के इस व्यंग्य पर भी ध्यान दीजिए। उन्होंने 
							कहा है कि भारत सुरक्षा-परिषद में बैठने के लिए 
							खुद-मुख्तार बना हुआ है। दूसरे शब्दों में अमेरिका को 
							यह पसंद नहीं कि भारत, जापान, ब्राजील और दक्षिण 
							अफ्रीका खुद को जबरन उम्मीदवार बनाए हुए हैं। इससे हम 
							यह अंदाज लगा सकते हैं कि संसद में दिया गया ओबामा का 
							आश्वासन कितना विश्वसनीय है। इसी प्रकार आसिफ जरदारी 
							का ‘भारत-प्रेम’ कितना गहरा है, इसका पता इसी से चल 
							गया कि तुर्की में हुए अफगानिस्तान सम्मेलन में उसने 
							भारत को भाग नहीं लेने दिया। पाकिस्तान को चेतावनी 
							देने का अमेरिकी नाटक कितना खोखला है, इसका प्रमाण वह 
							दस्तावेज़ है, जिसके अनुसार अमेरिका ने पाकिस्तानी 
							परमाणु ईंधन को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के सवाल पर 
							घुटने टेक दिए। अभी पाकिस्तान से संबंधित इतने गुप्त 
							दस्तावेज़ सामने आएँगे कि दुनिया अपने दाँतों तले उगली 
							दबा लेगी। शायद तभी पता चलेगा कि अफगानिस्तान और 
							पाकिस्तान की अराजकता के लिए स्वयं अमेरिका जिम्मेदार 
							है। ईरान के विरूद्घ उसके पड़ौसी अरब राष्ट्रों को 
							उकसाने में अमेरिका की क्या भूमिका है, यह भी इन 
							दस्तावेजों से पता चलता है। इन दस्तावेज़ों को उजागर 
							करनेवालों का मानना है कि इस रहस्योद्घाटन से अमेरिकी 
							सरकार को बहुत लाभ होगा, क्योंकि उसके अफसर अमेरिकी 
							आदर्शों के विरूद्घ काम करते रहते हैं और उनके 
							कारनामों पर पर्दा पड़ा रहता है।
 
 ‘विकीलीक्स’ या ‘तहलका’ या ‘राडिया टेप्स’ आदि के 
							प्रकट होने से ऐसा जरूर लगता है कि सारा तंत्र 
							उलट-पुलट हो रहा है। यह तात्कालिक दृष्टि है लेकिन अगर 
							दूरदृष्टि से देखें तो यह रहस्यों का लोकतंत्र है, जो 
							अंततोगत्वा सबके लिए कल्याणकारी ही सिद्घ होगा। रहस्य 
							सिर्फ मुट्ठीभर लोगों की ही बपौती क्यों बने रहें? यदि 
							जनता संप्रभु है, स्वामी है, सर्वोच्च है तो वह भी इन 
							रहस्यों को क्यों न जाने? हर सरकार इन गोपनीय 
							दस्तावेजों को ३० साल या ५० साल बाद सार्वजनिक करती है 
							ताकि इतिहासकार विगत की ठीक व्याख्या कर सकें लेकिन 
							इनका अभी उजागर होना भविष्य के निर्माण में अप्रतिम 
							भूमिका अदा करेगा।
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