सामयिकी भारत से

महानगरों में सिमटती विकास प्रक्रिया और ध्वस्त होती कृषि पर चिंतित दिलीप मंडल का आलेख-


हमारे लिए भी सबक है हैती का भूकंप


एक बेतरतीब-सा बसा शहर, जिसकी कुल आबादी एक करोड़ से भी ज्यादा के आँकड़े को पार कर गई हो। उसकी कुछ कॉलोनियाँ तो शानदार हों, पर शेष हिस्से में झोपड़पट्टी और गैरकानूनी बहुमंजिली कॉलोनियाँ बेशुमार हों, जहाँ नागरिक सुविधाएँ मुख्यत: संपन्न व मध्यवर्गीय कॉलोनियों में सीमित हों और भवन निर्माण में भूकंपरोधी नियमों का पालन सिर्फ समृद्ध कॉलोनियों में होता हो और वह भी सिर्फ नए कंस्ट्रक्शन में। ऐसा शहर अगर सिस्मिक क्षेत्र-चार में हो, तो उस शहर को चिंतित होना चाहिए और उस देश के नीति नियंताओं को भी।

भूकंप के खतरों के आधार पर सिस्मिक क्षेत्र बनाए जाते हैं और सबसे ज्यादा खतरे वाले इलाकों को क्षेत्र-पाँच में रखा जाता है। इस लिहाज से क्षेत्र-चार को भी खतरनाक श्रेणी में रखा जाता है। हमारे देश के चार में से तीन महानगर इन श्रेणियों में आते हैं। हम सभी जानते हैं कि भूकंप के पूर्वानुमान एवं उसे टालने की कोई तकनीक अभी तक विकसित नहीं हुई है। लेकिन भूकंप से होने वाली तबाही के कारण केवल प्राकृतिक नहीं होते। जब भूकंप किसी घनी आबादी वाले क्षेत्र में आता है और अगर वहाँ के घर भूकंप झेलने के लिए तैयार नहीं हैं, तो वहाँ वैसी ही तबाही आती है, जिसका मंजर पूरी दुनिया ने हैती की राजधानी पोर्ट ओ प्रिंस में देखा है।

गौर कीजिए, यह दुनिया का सबसे तेज यानी रिक्टर स्केल पर सर्वाधिक तीव्रता वाला भूकंप नहीं था। दुनिया में आठ और नौ की तीव्रता वाले भूकंप आए हैं। भारत में ही आठ और उससे ज्यादा तीव्रता वाले कई भूकंप आ चुके हैं, लेकिन संयोग से वे भूकंप ज्यादातर वैसे स्थानों में आए हैं, जहाँ आबादी कम घनी है। इस कारण तबाही का अनुपात कम रहा है। लेकिन अगर ऐसा कोई जबर्दस्त भूकंप मुंबई, कोलकाता या दिल्ली में आता है, तो इससे होने वाले विध्वंस का अनुमान भी आसानी से नहीं लगाया जा सकेगा।

हैती की राजधानी पोर्ट ओ प्रिंस और भारत के तीनों महानगरों, मुंबई, कोलकाता और दिल्ली में कई समानताएँ हैं। उसी तरह कुछ समानताएँ भारत और हैती में भी हैं। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में हैती का स्थान १४९ है। हमारी स्थिति भी खास बेहतर नहीं है। इस सूची में भारत का स्थान १३४वाँ है। स्पष्ट है, अविकसित देश प्राकृतिक आपदा और उसकी चुनौतियों का समाना करने के लिए कम तैयार होते हैं। इसलिए समान तीव्रता वाला भूकंप जापान में कम तबाही मचाता है और भारत, इंडोनेशिया, ईरान या हैती में ज्यादा। उदाहरण के लिए, वर्ष २००५ में जापान में आए ७.२ तीव्रता के भूकंप में एक भी मौत नहीं हुई। मियागी नामक वह भूकंप इतना तेज था कि इसकी वजह से २०० मील दूर टोक्यो तक में इमारतें हिल गईं। जापान में झोपड़पट्टी नहीं हैं। उसने भूकंप की स्थिति में अपने लोगों के जान-माल की हिफाजत की पुख्ता तैयारी की है। वहाँ भवन निर्माण की एक ऐसी विधा विकसित की गई है, जो भूकंप का सामना करने में ज्यादा सक्षम है।

लेकिन हैती जैसे गरीब देश भूकंप के ज्यादा खतरे वाले इलाके में होते हुए भी खतरों के हिसाब से तैयार नहीं हो पाते। भारत के महानगरों, विशेष रूप से झोपड़पट्टी और बेतरतीब बसी कॉलोनियों को देखें, तो हम जापान के बजाय हैती के आदर्श को ही अपना रहे हैं। इन बस्तियों में भूकंप प्रतिरोधक क्षमता के मानदंडों के पालन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हालाँकि अब महानगरों में बन रहे बहुमंजिले अपार्टमेंट्स में इन मानदंडों का पालन किया जा रहा है, लेकिन शहरों की कुल आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा ही इन अपार्टमेंट्स में रहता है।

इसलिए अगर हैती के भूकंप में हुई इतनी बड़ी तबाही को समझना है, तो उसके विकास और आर्थिक बनावट की कमियों पर भी चर्चा होनी चाहिए। भारत की ही तरह हैती भी एक गरीब देश है, जहाँ ज्यादातर आबादी खेती पर निर्भर है, लेकिन खेती से धन का काफी कम सृजन होता है। हमारे यहाँ कुल जीडीपी में खेती का हिस्सा लगभग १७ फीसदी है, वहीं हैती की जीडीपी में यह हिस्सा २८ फीसदी है। हैती में ६६ प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है, वहीं भारत में भी लगभग ६० प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं। खेती पर ज्यादा लोगों के आश्रित होने और उससे आमदनी कम होने की वजह से गाँवों की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। नतीजा यह है कि गाँवों से लोग बड़ी संख्या में भागकर शहरों और महानगरों में आ रहे हैं, क्योंकि रोजगार के मौके शहरों में हैं और गाँव गरीबी के केंद्र बन गए हैं। हैती में एक्सपोर्ट प्रमोशन क्षेत्र के आसपास के इलाके बेतरतीब निर्माण के केंद्र बन गए हैं। एक्सपोर्ट प्रमोशन क्षेत्र की जरूरतों को पूरा करने के लिए सस्ते मजदूरों की जरूरत होती है और उन्हें रहने के लिए सस्ते घर चाहिए। इस जरूरत को हैती की राजधानी से सटे सोलेल जैसी झोपड़पट्टी बस्तियाँ पूरी करती हैं, जहाँ छोटे-से इलाके में लोग अमानवीय हालात में रहते हैं। भारतीय महानगरों में भी कमोबेश यही स्थिति है।

दरअसल ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने और विकास प्रक्रिया के महानगरों में सीमित होने के कारण ही पोर्ट ओ प्रिंस से लेकर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई इतने बड़े और बेतरतीब हो गए हैं। ऐसे शहर भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा को झेलने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं। हमारे लिए हैती एक सबक हो सकता है, बशर्ते हम सीखने को तैयार हों।

८ फरवरी २०१०