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चिठ्ठा–पत्री चिठ्ठा पंडित ने बांची

जनवरी के चिठ्ठे

चिठ्ठा–पंडित का एक बार फिर राम–राम। हिंदी चिठ्ठे बांचने के बाद कुछ यजमानों से बात हुई। कई लोगों ने चिठ्ठा लिखने की इच्छा ज़ाहिर की मगर हिंदी में कैसे कम्प्यूटर पर लिखा जाए नहीं पता उन्हें। सोचा इसका भी उपाय हम ही बताए देते हैं। हिंदी चिठ्ठे लिखने के लिए आप यूनिकोड को काम में ला सकते हैं और बड़ी आसानी से देवनागरी में लिख–पढ़ सकते हैं। यूनिकोड में पढ़ने–लिखने के लिए आप यहां से मदद ले सकते हैं।

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड के साथ ही 2005 सदा के लिये इतिहास बन गया और जनवरी में 2006 ने शिशु रूप में कदम रखा। चिठ्ठाकारों ने बड़ी धूम–धाम से इस नये साल का स्वागत किया। कई नये चिठ्ठाकार भी सामने आए। आइए, नज़र डालते हैं इस नये माह के चिठ्ठों पर।

माह के शुरू में ही वरिष्ठ चिठ्ठाकार रवि रतलामी के लेख 'नये साल के नये संकल्प' ने अपनी धाक जमाई। उन्होंने पिछले साल किए गए अपने संकल्पों पर नज़र दौडाई और खुद को शाबाशी दी कि वो उन संकल्पों पर काफ़ी हद तक खरा उतर पाए। इसी के चलते उन्होंने अपने नये संकल्पों पर अपना नया व्यंज़ल यानि व्यंग्यात्मक ग़ज़ल लिख डाला (इसे पढ़ना न भूलें)। यही नहीं उन्होंने अपने शहर रतलाम के एक विशेष मेले के बारे में बताया। "रतलाम में एक श्मशान स्थल है त्रिवेणी संगम। इस स्थल पर अति प्राचीन काल से ही एक कुंड (बावड़ी) बना हुआ है, जिसके जल में दाह–संस्कार के पश्चात लोग स्नानादि करते हैं। इस श्मशान स्थल पर हर वर्ष, इन्हीं दिनों एक मेला लगता है। मेले में तमाम हंसी–खुशी के आयोजन होते हैं। मेले में विक्रय के लिए खेल–खिलौने, खाने–पीने की चीजें मनोरंजन के लिए तमाशा–झूले इत्यादि तो होते ही हैं, रात्रि में प्रतिदिन अलग–अलग दिन कविसम्मेलन, संगीत और नाटक इत्यादि का आयोजन भी इस दस दिवसीय मेले में किया जाता है।" 

रवि रतलामी रचनाकार नामक ब्लॉग की भी देखरेख करते हैं। रचनाकार उन सभी रचनाकारों को, जो अंतर्जाल पर अपनी रचनाएं लाने में असमर्थ हैं, को प्रकाशित करता है।  कई बार अंतर्जाल पर प्रकाशित चुनी हुई अच्छी रचनाएं भी यहां प्रकाशित होती हैं। माह के शुरू में रचनाकार में वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया का लेख 'कितने शहरों में कितनी बार' प्रकाशित हुआ। इस लेख में वे उन शहरों को याद करती हैं जहां वे रहीं हैं। "जब भी कोई मुझसे पूछता है तुम किस शहर की हो, मैं बड़े चक्कर में पड़ जाती हूं। क्या कहूं! कहां की बताऊं अपने को। क्या लोगों को नहीं मालूम कि सरकारी नौकरी करने वाले बाप के बच्चे किसी एक जगह के नहीं होते। वे डेढ़ दो साल के लिए शहर में डेरा डालते हैं। तबादले का काग़ज़ आते ही वे ट्रक में सामान डाल अगले अनजान शहर की तरफ़ निकल पड़ते हैं। दस दिन में उनके स्कूल बदल जाते हैं, बीस दिन में बोली बानी।" 

ग्रेग गाउल्डिंग हिंदी भाषी नहीं मगर हिंदी के लिए उनका प्रेम देख कर मन बाग़–बाग़ हो जाता है। हिंदी में उनका ब्लाग उनके निजी वक्तव्यों की अभिव्यक्ति है। हिंदी में उनके लिखने का प्रयास सराहनीय है। उनके इस लगन और धैर्य को देख कर उनके चिठ्ठे को पढ़ते समय उनकी हिंदी लिखते समय हुई ग़लतियों को पाठक नज़र–अंदाज़ कर देते हैं। ग्रेग एक अध्यापक हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए छात्रों को तैयार करते हैं। उन्होंने अपने एक चिठ्ठे में इन परीक्षाओं जैसे सैट, जीआरई, जीमैट आदि के बारे में थोड़ी सी जानकारी दी है जिसे यहां पढ़ा जा सकता है।  

भारत के छतीसगढ़ प्रदेश से जयप्रकाश मानस हिंदी साहित्य की निःस्वार्थ सेवा कर रहे हैं। उनके ललित निबंधों के संग्रह को पुरस्कार मिल चुके हैं और वो लगातार हिंदी को उसका सही सम्मान व स्थान देने की अपनी कोशिश में लगे हैं। उन्होंने हिंदी चिठ्ठाकारों की दुनिया में पिछले वर्ष कदम रखा और अपने ब्लॉग पर लगातार अच्छे चिठ्ठे प्रकाशित किए। एक लेख में आजकल की शिक्षाप्रणाली पर मनोरंजक वार्तालाप द्वारा चिंता व्यक्त की गई है।
शिक्षक कहते हैं, "याद करो बच्चे"। 
मां–बाप रट लगाए रहते हैं, "अब तो याद कर लो बेटे।" 
पास–पड़ोस से भी स्वर गूंजने लगता है, "कैसे हो तुम लोग बच्चे, परीक्षा सर पर है और तुम हो कि पाठ याद ही नहीं कर रहे हो।" 
जिधर देखो– "याद करो–याद करो– याद करो।" 
क्या परीक्षा का मतलब सिर्फ़ याद करना ही रह गया है? 
उनके इस लेख को यहां पढ़ा जा सकता है। इस माह उनके चिठ्ठे पर प्रकाशित बाल कविताओं ने भी सबको खूब आकर्षित किया।

प्रत्यक्षा न सिर्फ़ एक कवयित्री व कहानीकार हैं बल्कि उन्होंने छोटे–छोटे संस्मरणीय लेखों से भी अपने चिठ्ठे को सजा रखा है। उनकी बेटी के दुपहिया साइकिल सीखने के अनुभव से शुरू कर के वे अपने बचपन की यादों को ताज़ा करती हैं।" हर शनिवार और रविवार हमें साईकिल मिल जाती और हवा से बातें करते हमारी साईकिल और मैं। मेरे बड़े भाई के बचपन की एक छोटी साईकिल थी। बादमें उसे ठीक–ठाक करा कर हमें दे दिया गया। बड़ी साईकिल पर हमारा पांव ज़मीन तक नहीं पहुंचता तो कैंची चलाते हुए यानि साईकिल के डंडे के बीच से पांव फंसा कर उसकी ऊंचाई अपने लायक बनाई जाती। छोटी साईकिल से ये समस्या दूर हो गई।" उनके इस रोचक संस्मरण को यहां पढ़ा जा सकता है। एक और संस्मरण 'बचपन के दिन भी क्या दिन थे' में बचपन की यादों को और ताज़ा करते हुए वे कहती हैं, "यही जगह थी जहां हमने लीची खाई पेड़ों की शाखों पर बंदरों की तरह लटके हुए धान के खेतों में लुका–छिपी खेली, टयूबवेल की मोटी धार के नीचे खड़े नहाए आम के पेड़ की लचीली डालियों पर रस्सी बांध कर घुड़–सवारी की, कच्चे अमिया को काटकर, नमक मिर्च बुरक कर रूमाल में लपेट कर खूब नचाया और फिर चटकारे ले कर सी–सी करते खाया, गुल्ली डंडा खेले, पिट्टो खेला, पतंग उड़ाया।"

मसिजीवी हिंदी प्रेमी हैं। इंजीनियरिंग की उपाधि लेने के बाद उन्होंने हिंदी में पीएच .डी .की। हिंदी चिठ्ठों पर वो सिर्फ़ अपने विचार ही नहीं बल्कि अपनी विस्तृत कल्पना को कला का रूप दे कर डालते रहते हैं। धूमशिखा के रत्न देखिए उनके चिठ्ठे पर।

पेशे से डाक्टर सुनील इटली से लिखते हैं। उनके लेखों में भावों व भाषा के सरलता ही पाठकों को उनके ब्लाग की तरफ़ आकर्षित करती है। वो कुछ दिन पहले दिल्ली गए हुए थे। इस बार के हुए उनकी दिल्ली यात्रा के कुछ रोचक चित्र और विवरण यहां देखे जा सकते हैं। इटली से ही एक और चिठ्ठाकर हैं रामचंद्र मिश्र। व्यवसाय से केमिस्ट हैं मगर फोटोग्राफ़ी और कविता के शौकीन। आये दिन इनके चिठ्ठे पर मनमोहक तस्वीरें और मनभावन कविताएं लगी रहती हैं। यह तो पता नहीं कि कविताएं उनकी खुद की लिखी हुई हैं या किसी और की पर अगर आप चित्रों और कविताओं के शौकीन हैं तो यहां की सैर कर सकते है।

आशीष श्रीवास्तव का के चिठ्ठे का नाम है 'खाली पीली'। इस माह उनके चिठ्ठे पर सबसे मनोरंजक लेख रहा 'मिठ्ठू पुराण'। घर में पालतू पक्षी एक बच्चे के समान होता है। अपने तोते की शरारतों के बारे में वो बताते हुए कहते हैं, "अपने मिठ्ठूराम को गाने सुनने का भी शौक है, टीवी पर गाने सुनेगा और सीटी बजाएगा। मम्मी की पूजापाठ में भी उनका सहयोग रहेगा। मम्मी जब आरती करेंगी तब वो सीटी बजाएगा। जब मम्मी "हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे" गाएंगी तब वो भी साथ में गाएगा। कुल मिलाकर वो काफ़ी शरीफ़ है लेकिन जब बिट्टी की सहेलिया आएंगी तब लोफ़र बन जाएगा। उनको देख कर भी सीटी बजाएगा। सभी से तमीज़ से बातें करेगा लेकिन पिंटू को "अबे पिंटू" ही कहेगा। बिट्टी के साथ यदि बैठा हो पता नही क्या–क्या बोलते रहेगा, बिना रूके, लगातार बड़बड़ चलती रहेगी। बिट्टी ने यदि उसको डांटा तो महाराज उसको भी नहीं छोड़ते, बोलेंगे "टेटकी"। हम लोग बिट्टी को चिढ़ाने के लिए "टेटकी" कहते हैं, और पता नहीं कैसे मिठ्ठूराम ये जानता है।" उनके तोते के ये मज़ेदार किस्से पढ़ कर आप भी मुसकुरा उठेंगे।

शेरो शायरी के लिए आइए चलें लक्ष्मी गुप्त के चिठ्ठे पर। लक्ष्मी गुप्त न्यूयार्क, अमेरिका में हैं। अब तक लिखे चिठ्ठों पर उन्होंने सिर्फ़ अपनी कविताएं ही पोस्ट की हैं। 'मन के महल' नामक कविता में उन्होंने बहुत गू़ढ़ बात कही है।
"मन ने सारे महल बनाए
मन ने सारे मंदिर।
मन की ही है माया सारी
मन की सारी मुश्किल।।"

मन ने सारा धन उपजाया
मन की सारी महिमा।
मन की पूजा सब जग करता
मन की सारी गरिमा।"  इस कविता को आप आगे यहां पढ़ सकते हैं

पंकज बेंगानी ने ब्लाग की दुनिया में अभी–अभी ही कदम रखा है। अहमदाबाद के इस चिठ्ठाकार ने गुजरात के भीषण भूकंप के बाद आज की स्थिति पर एक नज़र डाली है अपने लेख 'गुजरात भूकंप के पांच साल बाद' में। वे कहते हैं, "गुजरात फिर से खड़ा हो चुका है। भुज, गांधीधाम, भचाऊ, अंजार, अहमदाबाद तबाही से उठ कर विकास की मिसाल पेश कर रहे हैं। कुछ महिनों पहले गांधीधाम जाने का मौका मिला। मैं उत्साहित था कि भुकंप के कुछ अवशेष, कुछ निशानियां शायद देख पाऊं। पर मैं गांधीधाम पहुंच कर हैरान रह गया! वहां तो कुछ अलग ही तस्वीर थी। शानदार सड़के शोपिंग मोल्स, नयी–नयी होटलें और खुशहाल लोग। मैंने अपने क्लाईंट कोल (जिनसे मिलने मैं गया था) को पुछा तो उन्होंने कहा, "भूकंप तो एक तरह से वरदान लेकर आया था।" उनके इस लेख में सिर्फ़ जानकारी ही नहीं है बल्कि उनका गर्व भी झलकता है। हमारा देश और देशवासी चाहें तो क्या नहीं कर सकते। उनके पूरे लेख को पढ़ना उत्साहवर्धक अनुभव से गुज़रना है।

अनूप शुक्ल नामी चिठ्ठाकार हैं— खूब नियमित और कलम के धनी। कभी व्यंग्य तो कभी गंभीर विषयों से सजा उनका ब्लॉग चिठ्ठाजगत में बहुत लोकप्रिय है। सभी उनके नये लेखों का इंतज़ार करते हैं। इस बार उन्होंने हिंदी के जाने माने लेखक श्रीलाल शुक्ल के साथ बिताये अपने कुछ पलों को सबके साथ बांटा, "श्री लालजी से मुलाकात करते समय यह बिल्कुल नहीं आभास होता कि हम किसी बहुत बड़े लेखक से मिल रहे हैं। सहज होकर बात करते हैं। कहीं से अपनी विद्वता का आतंक जमाने का कोई प्रयास नहीं दिखता। यह उनका बड़प्पन है कि बोलने–लिखने में यथासंभव अपनी महानता झाड़ के किनारे रखने के बाद ही बात शुरू करते हैं। बोलने–लिखने में कभी अपनी डींगे नहीं हांकते। जब कोई ज़्यादा तारीफ़ करने लगता है तब वे जितनी जल्दी हो सकता है प्रसंग बदलने का प्रयास करते हैं। राग दरबारी के बारे में अक्सर कहते हैं – "अरे वो तो मेरा बदमाशी का लेखन है।" इस अविस्मरणीय लेख को यहां पढ़ा जा सकता है

26 जनवरी 2006 हमारा 56वां गणतंत्र दिवस था। इस अवसर पर सभी चिठ्ठाकारों ने एक दूसरे को बधाई दी और अपने चिठ्ठों पर शुभसंदेश प्रकाशित किए। अमित ने अपने ब्लाग पर हमारे राष्ट्रगान को सुनने के लिए उपलब्ध कराया। सुनिये "जन गण मन" और अपने देश के लिए खडे़ हो जाइए। 

ब्लाग जगत एक परिवार जैसा लगता है। नये चिठ्ठाकार जुड़ते हैं और इसी जगत के बन के रह जाते हैं। टिप्पणियों को पढ़ने से मालूम होता है कि सभी चिठ्ठाकारों में एक रिश्ता सा बन गया है। ब्लाग में हो रहे चिठ्ठाकारों के बीच वार्ता, नोंक–झोंक और प्यार देख कर ऐसा लगता है जैसे ये सभी एक दूसरे से बहुत अच्छी तरह परिचित हैं और इनमें गहरी दोस्ती है। यजमान हम भी इन चिठ्ठों को पढ़ते हैं और मन ही मन प्रसन्न होते हैं। हिंदी में चिठ्ठा लिखने के लिए इन चिठ्ठाकारों ने कई नये–नये यंत्र बनाए हैं जहां हिंदी में सीधे ही लिखा जा सकता है। सिर्फ़ यही नहीं हिंदी के चिठ्ठाकारों द्वारा हिंदी ब्लागिंग को तकनीकी दृष्टि से बेहतर बनाने के निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं। हम ब्लाग बांचने बैठते हैं तो अभी भी लगता है कि बहुत कुछ किया जा सकता है मगर हैरानी व खुशी होती है कि हिंदी ब्लागिंग चंद सालों में कहां से कहां पहुंच गई है। तो यजमान आप पढ़ते रहें और हम लिखते रहेंगे। 

अगले महीने फिर नये चिठ्ठों के साथ हाज़िर होंगे। तब तक के लिये राम राम।

16 फरवरी 2006

 
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