मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


रंगमंच

मंच पर कहानी की उपस्थिति
(एक पुरानी रिपोर्ट की पुनःप्रस्तुति)
-अजित राय

इलाहाबाद में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र द्वारा पिछले दिनों आयोजित 'राष्ट्रीय रंगपर्व-२००२' में जिन दस नाटकों का मंचन हुआ उनमें दो को छोड़कर शेष सभी प्रस्तुतियाँ या तो कहानियाँ थीं या उपन्यास या इनके नाट्य रूपांतर। यह महज़ संयोग नहीं है।यह इस बात का प्रमाण भी है कि भारतीय रंग-दुनिया में 'कहानी का रंगमंच' कई कारणों से अपना महत्वपूर्ण स्थान बना चुका है। यह बात इस वर्ष राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित चौथे भारत रंग महोत्सव में भी देखने को मिली थी। इसकी एक वजह शायद यह है कि आज के लगातार जटिल होते यथार्थ को पूरी गहराई, सूक्ष्मता और तीव्रता से व्यक्त करने में अपने ख़ास फार्म के कारण नाटक समर्थ नहीं हो पा रहे हैं जितनी कहानी या उपन्यास। कहानी के मंचन में दूसरी सुविधा यह रहती है कि सूत्रधार की सहायता से पात्रों की संख्या घटाई जा सकती है, मंच पर कम से कम चीज़ों से काम चलाया जा सकता है, और इस तरह नाटक की प्रोडक्शन लागत बहुत कम हो सकती है। इसी संदर्भ में एक दूसरी घटना का ज़िक्र यहाँ प्रासंगिक है। उत्तर प्रदेश के ही एक व्यावसायिक क़स्बे हापुड़ के शिवगंगा सभागार में नाटक देखने के लिए लगभग पाँच सौ स्त्री-पुरुष जमा हैं। बिजली के अभाव में जनरेटर से हल्के प्रकाश और हवा की व्यवस्था की गई है। पत्थर से बने छोटे से मंच पर उद्घोषणा के साथ नाटक शुरू होता है। पर यह क्या? न कोई माइक, न मंच सज्जा, न प्रकाश व्यवस्था और न ही कोई पार्श्व संगीत। पंजाबी लेखिका अजीत कौर की आत्मकथा 'खानाबदोश' की तीन कहानियों का मंचन। केवल दो अभिनेता वागीश कुमार सिंह और हेमा सिंह। पचहत्तर मिनट तक दर्शक मंत्रमुग्ध। नाटक ख़त्म होने पर निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर मंच पर आते हैं और हतप्रभ दर्शकों को बताते हैं कि यह नए किस्म का नाटक है। इसे 'कहानी का रंगमंच' कहते हैं।

आज से २७ साल पहले जब पहली बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के कलाकारों ने निर्मल वर्मा की तीन कहानियों का मंचन 'तीन एकांत' नाम से किया था तो कई रंगकर्मियों ने देवेंद्र राज अंकुर के इस प्रयोग की कटु आलोचना की थी। इसे रंगकर्म की विकृति और चर्चित होने के लिए चौंकाने वाला प्रयोग कहा गया था। आज न सिर्फ़ 'कहानी का रंगमंच' थियेटर की मुख्यधारा बनने लगा है, बल्कि राजेंद्र नाथ और सत्यदेव दुबे जैसे वरिष्ठ रंगकर्मियों ने जो इसके प्रखर आलोचक थे, महज़ १२ साल बाद ही स्वयं भी कहानियों का मंचन शुरू कर दिया। देवेंद्र राज अंकुर के निर्देशन में 'तीन एकांत' शीर्षक से निर्मल वर्मा की तीन कहानियों का मंचन मील का पत्थर साबित हुआ। ये कहानियाँ थीं- 'डेढ़ इंच ऊपर', 'धूप का एक टुकड़ा' और 'वीक एंड'। इस मंचन को याद करते हुए निर्मल वर्मा कहते हैं, ''स्वयं मेरे लिए भी यह बात - कि कहानियों को सुनने पढ़ने के अलावा देखा भी जा सकता है- एक विस्मयकारी अनुभव था। जिन कहानियों को अरसा पहले मैंने अपने अकेले कमरे में लिखा था उन्हें खुले मंच पर दर्शकों के बीच देखना कुछ वैसा ही था जैसा टेपरिकार्डर पर अपनी आवाज़ सुनना जो अपनी होने पर भी अपनी नहीं जान पड़ती।''

इलाहाबाद में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल ने देवेंद्र राज अंकुर के निर्देशन में कृष्णा सोबती की लंबी कहानी 'ऐ लड़की' और 'कृष्णा बलदेव वैद के उपन्यास' उसका बचपन', रोबिन दास के निर्देशन में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का उपन्यास 'अनामदास का पोथा' और रंगमंडल प्रमुख सुरेश शर्मा के निर्देशन में कृष्ण चंदर के उपन्यास 'एक वायलिन समंदर के किनारे' का मंचन किया। दिल्ली की संस्था 'संभव' ने देवेंद्र राज अंकुर के निर्देशन में ही गोविंद मिश्र, रमेश बख्शी और राजेंद्र यादव की तीन कहानियों का कोलाज 'महानगर- तीन संवाद' शीर्षक से प्रस्तुत किया। जबलपुर की संस्था 'विवेचना' ने हरिशंकर परसाई की कहानियों पर आधारित 'मैं नर्क से बोल रहा हूँ' प़टना की मंडली 'मंच आर्ट ग्रुप' ने विजय कुमार के निर्देशन में श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास 'राग दरबारी' और इलाहाबाद की संस्था 'हस्ताक्षर' ने परिमल दत्ता के निर्देशन में लू शून की विश्व विख्यात कहानी पर आधारित 'जगन्नाथ' का मंचन किया। भोपाल की मंडली 'नट बुंदेले' ने इरफान सौरभ के निर्देशन में विजय तेंडुलकर की नाटक 'जाति ही पूछी साधू की' और चंडीगढ़ की संस्था 'थियेटर फॉर थियेटर' ने सुदेश शर्मा के निर्देशन में स्वदेश दीपक का नाटक 'कोर्ट मार्शल' प्रस्तुत किया।

'महानगर-तीन संवाद' (निर्देशक- देवेंद्र राज ठाकुर) में केवल दो अभिनेता हैं- अमिताभ श्रीवास्तव और अमिता उदगाता। गोविंद मिश्र की कहानी 'गलत नंबर' रमेश बख्शी की कहानी 'तलाश' और राजेंद्र यादव की कहानी 'टूटना' को इस नाटक में शामिल किया गया। ये तीनों कहानियाँ स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित हैं। पहली कहानी 'गलत नंबर' स्त्री-पुरुष के बीच संवाद के शुरू होने, दूसरी कहानी 'तलाश' उनके बीच जमकर संवाद होने और तीसरी कहानी 'टूटना' संवाद के टूट जाने के बारे में है। हिंदी की वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती की लंबी कहानी 'ऐ लड़की' 'वर्तमान साहित्य' के कहानी विशेषांक (अप्रैल १९९१) में छपते ही विवाद के केंद्र में आ गई थी और कई सालों तक इसके कथ्य एवं भाषा को लेकर बहस होती रही थी। यह एक ऐसी वृद्ध स्त्री की कथा है जो लंबी बीमारी में बिस्तर पर पड़ी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही है। इस प्रतीक्षा के दौरान वह अपनी जवान बेटी को लगातार अपने अनुभव सुनाती हुई हिदायतें देती हैं। निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर ने इसके मंचन में एक बिलकुल नई रंग भाषा का इस्तेमाल किया है। उन्होंने कथा की नायिका को बिस्तर पर पड़े-पड़े मरते दिखाने के बजाय मंच पर उल्लास से भरी हुई भागते-दौड़ते दिखाया है। डेढ़ घंटे तक वह स्त्री मंच पर लगातार भागती दौड़ती हुई, जिजीविषा से भरी दिखाई गई है। अभिनेत्री की शारीरिक गतियों और उन्माद से भरे संवादों के सहारे एक स्त्री का उल्लिखित रोमांचपूर्णँ जीवन चरित्र मंच पर घटित होता है। नाटक में केवल तीन पात्र- माँ, बेटी और नर्स हैं। प्रकाश एवं दृश्य परिकल्पना सुरेश भारद्वाज की है। संगीत के लिए यहाँ कोई ख़ास गुंजाइश नहीं है क्यों कि पूरा नाटक अनवरत एकालाप और मौन के बीच घटित होता है।

अपने कथ्य के गहरे, संवेदनशील तीखेपन और ध्वनियों की एक नई रंगभाषा के कारण 'उसका बचपन' का मंचन देवेंद्र राज अंकुर द्वारा अब तक के १५ उपन्यासों की मंच प्रस्तुतियों की शृंखला में एक विशिष्ट कड़ी साबित हो रही है। यह वरिष्ठ कथाकार कृष्ण बलदेव वैद का सबसे अधिक चर्चित उपन्यास है। 'उसका बचपन' आज से करीब साठ साल पहले के अविभाजित पंजाब (अब पाकिस्तान) के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी जीवन गाथा है जिसे एक बच्चे की नज़रों से देखने की कोशिश की गई है। यह उपन्यास जिस माहौल की देन है वह आज भी उतना ही जीवंत है जितना राजेंद्र सिंह वेदी की 'एक चादर मैली-सी' और कृष्णा सोबती की रचना 'मित्रो मरजानी' में है।

इस मंचन में यथार्थवादी प्रस्तुति शैली से बचा गया है। निर्देशक देवेंद्र राज अकुर ने रुखे गद्य की अनगढ़ता के साथ-साथ उपन्यास में निहित काव्यात्मकता को भी मंच पर सामने लाने का प्रयास किया है। इसमें बच्चे की भूमिका निभाने वाले वयस्क अभिनेता अजय कुमार ने बच्चा बनने के बजाय बच्चे जैसी दृष्टि और  प्रवृत्ति को पकड़ा है। उपन्यास में चित्रित उस वातावरण में चरित्रों की आपसी मारपीट, झगड़े का शोर, बर्तनों का पटका जाना, गाली-गलौज- इन सारी ध्वनियों से जो संबंध बनते-टूटते जुड़ते दिखाई पड़ते थे, उन्हें दृश्य में रूपांतरित किया गया है। उपन्यासों के नाट्य मंचन या फ़िल्मांकन में अक्सर कथ्य के पाठकीय प्रभाव बदल जाते हैं और कई बार साहित्यिक रचनाओं की मूल आत्मा ही नष्ट हो जाती है। इस दृष्टि से भी यह मंचन महत्वपूर्ण है। 'उसका बचपन' की यह मंच प्रस्तुति उसके पाठकीय प्रभाव को इतना गहरा, संवेदनशीलता और तीखा बना देती है कि दर्शकों के लिए मनोरंजन की राहत की कोई गुंजाइश नहीं बचती। पारिवारिक कलह की इतनी दारुण और कड़वी निरंतरता में एक बच्चे का घुटता बचपन और उसका स्वगत संवाद मंच से उतरता हुआ दर्शकों की चेतना में फैल जाता है और एक स्तब्धकारी पीड़ादायक त्रासद रंग अनुभव में बदल जाता है। दस मिनट का मध्यांतर भी दर्शकों को कोई राहत नहीं प्रदान करता, बल्कि पूर्वार्ध की स्मृतियों को और मज़बूत करता है। नाटक की इस नई रंग भाषा में शोर और मौन की ध्वनियों का कुशल प्रयोग किया गया है। दो-तीन फ़िल्मी गाने वातावरण को और गहरा बनाते हैं।

'उसका बचपन' में कहानी के नाम पर कोई बहुत बड़ा आख्यान नहीं है। गरीबी की अंतहीन मार झेलता शराब और जुए की लत का शिकार एक पिता है। पिता से अक्सर पिटती और सास से झगड़ती एक चिड़चिड़ी माँ है। इस नरक से घर में जवान होती एक बच्ची थोड़ा पड़ोस, स्कूल और कुछ बच्चे हैं। छोटे-छोटे प्रसंगों के बीच कथा-नायक एक छोटा बच्चा है जो अक्सर सूत्रधार की भी भूमिका में आ जाता है। बच्चे की भूमिका में अजय कुमार और माँ की भूमिका में कविता वर्मा ने अभिनय की मुश्किल अभिव्यक्तियों को सफल बनाया है। जवान होती मासूम बच्ची की सौम्य उपस्थिति में राज शर्मा और एक लापरवाह पिता की भूमिका में आसिफ़ अली ने मिलकर कथा को मंच पर जीवंत बना दिया है। संवादों और गतियों में बहुत कम विचलन दिखता है। अंतिम दृश्य में पिता द्वारा दरवाज़ा बंद करके आत्महत्या करने की कोशिश की घटना को ध्वनि, प्रकाश, दृश्य और मौन के अद्भुत संयोजन से अंजाम दिया गया है। पात्रों की वेशभूषा बिलकुल साधारण किंतु असरदार है। सुखी पारिवारिक जीवन का सपना देखता हर पात्र नियति की सच्चाई से लहूलुहान होता हुआ दुखों की ऐसी अंधी सुरंग में भटक रहा है जहाँ से बाहर आने के तमाम रास्ते बंद हो चुके हैं। नाटक के निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर ने इस अति यथार्थवादी रचना की मंच प्रस्तुति में कल्पनाशीलता का अद्भुत प्रयोग किया है। कई दृश्य तो ध्वनियों के इस्तेमाल से संभव होते हैं। कोशिश यह है कि पात्रों के साथ-साथ परिवेश को भी साकार किया जाय। एक निहायत छोटे बच्चे की चेतना के स्तर पर चलने वाली कथा की काव्यात्मकता को निर्देशक ने बखूबी पकड़ा है। इसलिए शुरू से आखिर तक हम संवादों की एक सधी हुई निरंतर लयात्मकता को घटित होते देखते हैं। निर्देशक की असली सफलता भी यही है कि मंचीय संरचना में उपन्यास का कथ्य कहीं भी विचलित नहीं होता। इसलिए यह प्रस्तुति कहानी के रंगमंच के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है।

आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध उपन्यास 'अनामदास का पोथा' रंगमंडल की कुछ उम्दा प्रस्तुतियों में से एक है। इसके निर्देशक रोबिन दास अपनी खास सेट डिज़ाइन के लिए विख्यात हैं। मंच पर टूटे हुए रथ की उपस्थिति में छांदोग्य में वर्णित रैक्व ऋषि की कथा पर आधारित इस उपन्यास की गंभीर तथा दार्शनिक तात्विक बहसों को रॉबिन दास ने विभिन्न नाट्य युक्तियों से बोझिल होने से बचाया है। कृष्णचंदर के उपन्यास 'एक वायलिन समंदर के किनारे' का निर्देशन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के प्रमुख सुरेश शर्मा ने किया है। यह एक फैंटेसी है। इस नाटक का नायक केशव आज से दो हज़ार साल पहले का वीणा-वादक है जो एलोरा की गुफा में मूर्ति के रूप में मौजूद हैं। अमावस्या की एक रहस्यमयी रात में पर्यटक दल की एक लड़की रंभा केशव की मूर्तियों को देख मोहित हो उठती है। अचानक गुफा की सारी मूर्तियाँ जीवित हो जाती हैं। केशव भगवान शिव से एक साल का जीवन माँगकर रंभा के प्रेम में आज की दुनिया की मुश्किलें झेलता हुआ अंततः उसकी हत्या कर देता है। इस प्रेम कहानी के माध्यम से अतीत और वर्तमान के समय और समाज का द्वंद्व दिखाया गया है। नेपथ्य से काजल घोष का उम्दा संगीत बजता है और बापी बोस की सेट डिज़ाइन में तेज़ी से छोटे-छोटे दृश्य बदलते हैं। इस नई तकनीक में प्रकाश एवं मंच सज्जा की कल्पनाशीलता बेजोड़ हैं जिससे ऐसा लगता है कि हम नाटक की जगह कोई फ़िल्म देख रहे हैं। कहानी और पात्रों का अभिनय यथार्थ औ फ़ैंटेसी तथा अतीत और वर्तमान के बीच आवाजाही के रूप में घटित होता है। एक बड़े कैनवस पर प्रेम कहानी के ज़रिए मानव सभ्यता के पिछले दो हज़ार सालों की टुकड़ों-टुकड़ों में छोटे-छोटे दृश्यों में दिखाने की कोशिश की गई है।

ऐसा नहीं है कि केवल देवेंद्र राज अंकुर ही कहानी का रंगमंच कर रहे हैं। दुनिया की कई भाषाओं में यह विधा लगातार लोकप्रिय हो रही है। 'कहानी का रंगमंच' थियेटर की दुनिया में उत्तर आधुनिकता की चुपचाप उपस्थिति भी है। यह इक्कीसवीं सदी के थियेटर हैं जिसकी जड़ें प्राचीन संस्कृत नाट्यशास्त्र में हैं इससे अभिनेता केंद्र में आया है। मोहन राकेश की तीसवीं पुण्यतिथि पर वरिष्ठ रंगकर्मी रंजीत कपूर उनके उपन्यास 'अंतराल' का मंचन करने वाले हैं। आज देशभर के रंगकर्मी इस क्षेत्र में सक्रिय हुए हैं जिनमें दिनेश ठाकुर (मुंबई), नसीरुद्दीन शाह (मुंबई), मोहन महर्षि (चंडीगढ़), अरविंद गौड़ (दिल्ली), अरूपा पांडेय (जबलपुर), उषा गांगुली (कोलकाता), श्रीश डोभाल (उत्तरांचल), अजय मलकानी (राँची), सतीश आनंद (पटना), आदि प्रमुख हैं। सुरेश भारद्वाज, दिनेश खन्ना, लोकेश जैन, असीमा भट्ट, हिमांशु बी. जोशी, राजेंद्र गुप्ता (मुंबई),  विजय कुमार (पटना), फिरोज खाँ (मुंबई), दौलत वैद, अमिता उदगाता, अमिताभ श्रीवास्तव सहित दूसरी भारतीय भाषाओं के सैंकड़ों रंग कर्मी इस क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं।

१८ फरवरी २००८

  
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।