
"क्या? हे
भगवान कब हुआ? भैया अब अस्पताल में हैं? भाभी आप चिंता मत करो!
मैं आ रही हूँ! ..." वसुधा ने फोन रखा तो उसके माथे पर पसीने
की बूँदें उभर आई थीं और हाथ काँप रहे थे। संजय ने उसे इतना
विचलित बहुत कम देख था।
"क्या हुआ वसु?”, संजय ने घबरा के पूछा।
“भैया को हार्ट अटैक आया है,” वसुधा ने लड़खड़ाती हुई जबान से
कहा।
“मुझे जाना होगा, कल ही!”, वसुधा बोलते-बोलते कमरे में पैकिंग
करने चल दी।
“अभी! अर्जेंट में तो टिकट बहुत महँगे होंगे!”, संजय ने वसुधा
के उड़े हुए रंग को देखकर धीरे से बोला।
“तुमसे टिकट के लिए नहीं कह रही, जाना है, यह बता रही हूँ!”,
वसुधा ने अपने स्वभाव के विपरीत, कड़ककर कहा।
इस घर में अक्सर
वही होता था जो संजय चाहता था। वसुधा मूर्ख या प्रताड़ित नहीं
थी, पर एक दुखती सी रग में जाने कौन सा क्षोभ भरा रहता था। उस
पर हाथ रखने से संजय भी डरता था! जो अधिकतर चुप रहता है, उसकी
आँखें जाने कैसे बोलने लग जाती हैं, संजय ने यह बहुत बार महसूस
किया है। संजय ने वसुधा की बड़ी, आँसू भरी लाल आँखों में एक
निश्चय की चमक को देखा और समझ गया कि इस बार चुप रहने में ही
उसकी भलाई है।
“ऐश! जल्दी इधर आ और ध्यान से बात सुन!” वसुधा ने बेटे को
पुकारा। अश्विनी माँ के पास पहुँचा और आँखें बड़ी कर सारे
निर्देश समझने की कोशिश करने लगा। उसे बड़ी कोफ़्त होती थी जब
माँ भावुक हो अंग्रेज़ी छोड़कर हिंदी में बात करने लग जाती थी।
यह एक रेड-फ्लेग होता था, यानि कोई ना-नुकुर नहीं, चुप-चाप बात
समझनी होगी। अपना पूरा ध्यान लगाकर वह सुनने लगा, माँ जा रही
है तो उसे खुद ही समझना होगा। पापा से तो कोई उम्मीद नहीं है,
उन्हें तो यह तक नहीं मालूम कि वह कौन से सेक्शन में है और
उसके बेस्टफ्रेंड का नाम क्या है!
शुरू में तो ऐश को लगा कि वह भी साथ जाने की ज़िद करे, पर माँ
ने इतना बोरिंग और संजीदा माहौल गढ़ा घर-अस्पताल का, कि उसे
यहीं रहने में भलाई लगी।
ऐश को समझाकर वसुधा ने अपने ट्रेवल एजेंट को संदेश भेजा, और
एक-एक कर सारे काम सेट करने लगी - उसकी अनुपस्थिति में घर कैसे
चलेगा, अश्विनी को स्कूल, कोचिंग ले जाने की ज़िम्मेदारी किसके
सर रहेगी। घर का खाना कौन होम-डिलीवर कर देगा। सिल्विया जब
साप्ताहिक सफाई के लिए मंगलवार को घर आएगी, तो उसके लिए कौन घर
पर रहेगा। एक-एक कर सब तय हुआ और फोन के नोट्स से उसके ‘सखियों
के गैंग’ में सारा स्केड्यूल व्हाट्सप्प हो गया जिससे बैकअप
बना रहे, और सखियाँ एक-दूसरे को याद दिला दें। यही वसुधा की
खूबी थी कि वह संवेदनशील, पारदर्शी और ऑर्गेनाइज़्ड थी, तो
मित्र मंडली में सब उसके मुरीद थे। बहुत दिनों के बाद लोगों को
उसके अहसान लौटने का मौका मिला था। सब ने मिलकर ज़िम्मेदारियाँ
बाँट लीं। सब कुछ कुशलता से जल्दी-जल्दी सेट करके वसुधा ने
ट्रेवल एजेंट से बात करी। वसुधा उनकी अच्छी क्लाइंट थी, मित्र
मंडली के सैर-सपाटे की सारी इटेनरी, टिकटें वही बनवाती थी।
एजेंट ने बताया कि बम्बई का टिकट हो गया था और पुणे की
कनेक्टिंग फ़्लाइट भी।
अगले १२ घंटे कैसे बीते वसुधा को पता ही नहीं चला। सबसे ज़्यादा
चिंता उसे ऐश की थी, वैसे अब कोई बच्चा नहीं था अश्विनी,
सातवीं कक्षा में पढ़ता था, काफी इंडिपेंडेंट था।
एयरपोर्ट पर चैक-इन कर के वसुधा सीधे लाउंज में जाकर बैठ गई।
एक बार को मन हुआ भाई की बच्ची सुम्मी के लिए चॉकलेट ही ले ले।
पर फिर सोचा कि गमगीन माहौल में चॉकलेट ठीक नहीं लगेगी! वह
सोफ़े पर बैठे-बैठे ऊँघने लगी। अचानक से लगा कोई उसके सर पर हाथ
रखकर कह रहा है,”वसु!” वह अचकचाकर उठ गई। वहाँ कोई नहीं था!
प्लेन में बोर्डिंग के बाद उसने मुंबई वाली टिकट पीछे रखकर,
मुंबई से पुणे की कनेक्टिंग फ़्लायट का टिकट पर्स में आगे-आगे
रख लिया। कनेक्टिंग फ्लाइट में गैप कम है, उसे जल्दी करनी
होगी। उसने अपना हैंड कैरी लगेज आगे की तरफ रखा कि जल्दी से निकल
सके। आइल-सीट तो वैसे भी उसकी प्रोफ़ाइल परेफरेंस में है ही।
सीट पर निढाल वसुधा सोचने लगी, भैया अभी बस ४८ साल के हैं, यह
भी भला कोई उम्र हुई हार्ट की बीमारी पालने की! लेकिन पिताजी
को भी कम उम्र में यही बिमारी लेकर चली गई थी। तभी तो वसुधा कल
भैया की खबर सुनते ही एक-दम घबरा गई थी।
प्लेन धीरे-धीरे आकाश में बादलों के ऊपर उठ गया। ३५,००० फ़ीट पर
से ज़मीन दिखनी बंद हो गई। वसुधा को ऐसा लगा कि समय की धुंध
धीरे-धीरे छँट रही है और वह बहुत ऊपर से अतीत को साफ़ देख रही
है - एक इंटेलेक्चुअल सा, ज़मीनी, खुशनुमा घर-परिवार, कैसे पापा
के आकस्मिक हार्टअटैक से चूर-चूर हो गया था। भैया ने नई नौकरी
से छुट्टी लेकर बहुत दिनों तक पापा की तीमारदारी करी। ठीक
होते-होते अचानक जाने क्या हुआ, उनको दूसरा अटैक आया, और सदा
हँसते रहने वाले पापा को अपने संग ले गया। उनके जाने के बाद
भैया अचानक और बड़े हो गए, टूट-सी गई माँ की चुपचाप देखभाल करते
रहे।
वसुधा ने उस साल कॉलेज में प्रवेश ही लिया था। वह
विश्वविद्यालय की मेरिट में थी, सो पापा के जाने के बाद उसकी
फीस माफ हो गई थी और कॉलेज की पढ़ाई चलती रही। उसने इस अनजाने
और आकस्मिक दुःख से बचने के लिए अपने को पढ़ाई में झोंक दिया।
पूना उस समय बड़ा शहर नहीं था, भैया की फील्ड - ‘कम्प्यूटेशनल
मेथेमेटिक्स’ के काम के लिए तो बिलकुल नहीं। माँ, भैया के बहुत
कहने पर भी, पापा की यादों वाले घर को छोड़ जाने को हरगिज़ राजी
न हुईं! फिर भैया ने अपनी बढ़िया नौकरी से त्यागपत्र दिया और
वहीं पुणे में कोई छोटी सी नौकरी उठाई कि माँ की देखभाल होती
रहे। पापा के जाने के बाद सब अपना-अपना ग़म ओढ़कर एक ही घर के
अलग-अलग कोनों में रहने लगे। सालों तक भैया अपनी शादी भी टालते
रहे। कहते रहे पहले वसु की शादी हो जाए!
वसुधा का विवाह भी आनन-फानन में ही हुआ। लड़का विदेश में नौकरी
करता था, उन दिनों भारत आया हुआ था। वह पड़ोस की जगन्नाथ आंटी
के दूर के रिश्ते में था, पुणे की एक शादी में उसने वसुधा को
देखा और रंग-ढँग पर मोहित हो गया। पापा का बचाया सारा पैसा लग
गया शादी में, पर ससुराल वाले इंतज़ामात से खुश न हुए। सास तो
आज तक मौका मिलते ही, अपने रंज को तंज में गढ़ती रहती है।
दुनिया के लिए संजय एक आइडियल वर था- पढ़ा-लिखा, सुन्दर, विदेश
में बढ़िया नौकरी! पर ये सब ख़ुशी की गारंटी कहाँ देते हैं!
जीवनभर दुनिया को एक संवेदनशील इंटेलेक्चुअल की नज़र से देखने
वाली वसुधा, अपनी दृष्टि बदलकर संजय की तरह जीवन को नफ़े-नुकसान
की नज़र से तो न देख सकी, परन्तु उसने कलह से बचने के लिए चुप
रहना सीख लिया।
भैया तो शुरु से ही मितभाषी रहे हैं, ऊपर से उनके और विदेश में
बसी वसुधा के रहन-सहन और नई जीवन प्रणाली के अंतर ने उनके बीच
एक दूरी सी उत्पन्न कर दी थी। संजय से तो वे बस
होली-दीवाली-जन्मदिन पर औपचारिक बात ही करते थे । सच कहें तो
यह दूरी किसी एक की गलती से नहीं पैदा हुई। यह तो जीवन की
फिसलन भरी राहों पर, चुपके से संवाद पर उग आई काई जैसी थी! ऐसी
काई को साफ़ करने में जो नेह और अपनत्व का पानी लगता है, उसे
उड़ेले कौन! या कह लें यह दूरी आधुनिकता की साइड-इफैक्ट भर थी!
संजय के साथ-साथ कामयाबी की सड़क पर दौड़ते-दौड़ते वसुधा की
दिनचर्या का कलेण्डर इतने प्रोग्रामों से भर गया था कि जिसने
अपने को स्लॉट-इन/चॉक-इन नहीं किया, उसकी छाप धीरे-धीरे धूमिल
हुई समझो!
भैया की बेटी हुई, तब से वसुधा बस तीन बार ही भारत जा सकी है।
सुम्मी काफी उस पर गई है, शक्ल से तो पक्का! त्यौहारों पर आई
फोटो और व्हाट्सप्प कॉल पर उसकी चहक वसुधा को अपने बचपन में ले
जाती है। वही है जिससे वसुधा बिना मन में गिल्ट लिए लम्बी बात
कर लेती है।
मुंबई पहुँच वसुधा ने जल्दी से कनेक्टिंग फ्लाइट ली। आज पहली
बार पुणे इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर उसे लेने कोई नहीं आया। “एक
टैक्सी चली है गुलाबी रंग वाली”, एयरपोर्ट पर टेक्सी वाले
कैशियर ने उसे अकेले देखकर, बिना पूछे उसकी पर्ची काट दी।
टैक्सी एक लड़की दक्षता से चला रही थी। वसुधा जाने क्यों थोड़ा
खुश हो गई! पर उसने उससे कोई बात नहीं की, जाने कौन से परिचय
का सूत्र कहाँ जा मिले।
उसने पर्स से फोन निकला। इंटरनेशनल रोमिंग आजकल डेली के डेटा
रेट्स देता है। सबसे पहले घर पर उसने ऐश से लम्बी बात की, फिर
संजय से। भाभी को व्हाट्सप्प किया कि, “घर पहुँच रही हूँ।” फिर
वह टेक्सी के बाहर देखने लगी। टैक्सी की खिड़की से बड़ी-बड़ी
इमारतें तेजी से गुजरते देख वसुधा ने सोचा कि पूना देखते-देखते
कितना बदल गया है। कितनी बार संजय से कहा कि यहाँ एक फ़्लैट
लेकर छोड़ देते हैं, पर संजय की नज़र दिल्ली-एन सी आर के इतर
कहीं और नहीं जाती है। शायद संजय वसुधा के होमटाउन में घर लेने
से कतराता भी हो!
गली के मुहाने पर होली का हुड़दंग मचा रही टोली ने टैक्सी से
उतरती वसुधा को देखते ही उस पर रंग फेंक दिया। उसका
जीन्स-टी-शर्ट गुलाबी रंग से सराबोर हो गया। रंग झाड़ते-झाड़ते
गीले हाथों से ही उसने दरवाजे की घंटी दबा दी। स्विच पर उसकी
ऊँगली का एक गुलाबी निशान उभर आया। दस साल की सुम्मी ने घर का
दरवाजा खोल और वसुधा को देखते ही बुआ-बुआ कहकर उससे लिपट गई।
वसुधा को लगा जैसे छोटी वसु स्वयं उससे लिपट रही हो!
खट-पट सुनकर पड़ोसी जग्गन्नाथ आंटी बाहर निकलीं, आकर वसुधा को
गले लगाया, दो आँसू बहाए और फिर उसके लिए चाय बनाने चली गईं!
भैया अभी तक अस्पताल में ही थे और भाभी भी उनकी देखभाल करने
के लिए वहीं थीं। वसुधा के कपड़ों पर रंग देखकर सुम्मी बोली,
“अरे बुआ! आपको तो नहाना पड़ेगा, चलो न मुझे भी नहला दो!” चाय
पीने के बाद वसुधा नहाने को तैयार हुई तो बच्ची ने बुआ को
दिखाया कि कैसे नाली में कपड़ा डालकर, बाल्टी उस पर स्थापित कर
बाथरूम को स्विमिंग पूल बनाया जाता है। गमगीन हालात में बच्ची
की बालसुलभ उत्फुल्लता ने वसुधा को हल्का कर दिया! थोड़ी देर
में बाथरूम का फर्श पानी से भर गया।
“इतना पानी!” वसुधा चौंक पड़ी, “मम्मा डाँटेंगी तो नहीं जब बिल
आएगा?”
“अरे मैं तो हर वीकेंड ऐसे ही नहाती हूँ”, बच्ची झट पानी में
लंबलोट हो गई और एक काल्पनिक मछली बन गई!
वसुधा को अपनी विदेशी नई कोठी का सूखा चमचमाता बाथटब याद आया।
एक-दो बार जब उसने गर्म पानी से टब भर लिया था तो संजय की
भृकुटियाँ चढ़ गई थीं! आज उसने बच्ची के साथ हँसते हुए उस
पुरानी ठेस को पानी में फूँक मारकर काल्पनिक काँटे की तरह बहा
दिया।
चालीस मिनट के छप्प-छपाक होली स्पेशल स्नान कार्यक्रम के बाद
वसुधा किचन में आ गई। भाभी दाल की सीटी लगाकर गई थीं। जब उसे
छौंकने के लिए वसुधा ने मसालेदान खोला तो उसकी आँखें छलछला
गईं। हल्दी, धनिया, लालमिर्च और नमक के अलावा सभी डिब्बियाँ
खाली थीं। वसुधा ने प्यार से सुम्मी को बुलाया और पूछा,
“सुम्मी, पापा कब से आफिस नहीं जा रहे थे?”
“बोत दिनों से!”, सुम्मी खेलने में लग गई!
खाने के बाद उसने सुम्मी से पूछा, “बेटू मेरे साथ विदेश
चलोगी?”
“हाँ चलूँगी! पर मैं हर संडे को दूध-जलेबी खाती हूँ! है न
आपके यहाँ जलेबी!”, सुम्मी चहकी!
वसुधा को लगा जैसे किसी ने उसके गहरे दर्द को कुरेद दिया हो।
पूरा बचपन पिताजी और उनके जाने के बाद भैया के लाए अखबार के
रविवारीय विशेषांक और जलेबी-कचौरी के नाश्ते की साप्ताहिक
यादों से सजा था! भला जलेबी खाने की इच्छा भी ऐसी इच्छा हो
सकती है जिसकी पूर्ती होने में सोचना पड़े, मेहनत करनी पड़े, यह
उसे विदेश जाकर समझ आया था!
एक बार विदेशी इंडियन मार्केट में गर्म जलेबी बनती हुई देखकर
वह खुशी से उछल पड़ी थी! संजय ने मुँह बिचका लिया, “सी हाउ थिक
एंड कॉस्टली आर दीस! यू मस्ट लर्न टू मेक दीस एट होम! एंड बाय
द वे, लुक एट यू”! संजय ने हाथ उठा के, मुँह फुला के मोटे होने
का इशारा किया! वह तड़प उठी, “दैट्स नॉट फेयर!”
काफी देर तक वह तय नहीं कर पाई थी कि उसको अधिक नफ़रत किससे
हुई- संजय की कृपणता से, या उसकी भावशून्यता से। वह तब से इस
विषय पर चुप हो गई थी। कम से कम उसने संजय से तो कभी कुछ नहीं
कहा!
एक झटके से वसुधा वर्तमान में लौट आई और हँसते हुए सुम्मी से
बोली, “बेटा बेस्टेस्ट दूध तो रोज मिल जाएगा पर जलेबी नहीं
मिलती हमारे यहाँ!”
सुम्मी हाथ बाँधकर बोली, “बिना जिलेबी वाली सिटी में मैं नहीं
जाऊँगी!”
वसुधा हँस दी, “अच्छा बाबा! चलो होमवर्क करवाने को बोला है
भाभी ने, वो तो करेगी सोना बेबी, कि उसके लिए भी जलेबी…!”
सुम्मी ने झट से बस्ते में से किताबें निकालीं। कॉपी के कवर पर
पड़ोस के बहुत ही मामूली स्कूल का नाम देखते ही वसुधा का कलेजा
मुँह को आ गया!
अपने जिद्दी बेटे के मासिक तीन हज़ार डॉलर वाले स्कूल का गर्व
आँखों की कोर पर गर्म बूँद बन कर ठहर गया! सुम्मी पटर-पटर अपने
स्कूल की बातें बताते हुए गणित के सवाल करने लगी। वसुधा एक-एक
कर कापियाँ देखने लगी। ये कैसे टीचर हैं इसके! जाँचे हुए
अभ्यासों में इतनी गलतियाँ!
सुम्मी होमवर्क कर के, पड़ोस के ग्राउंड में खेलने चल दी। वसुधा
को अपनी फ्राक की तरफ ध्यान से देखते हुए देखकर सुम्मी एक मिनट
को झेंपी, फिर बोली, “होली है न, मम्मी ने कहा है, पुराने कपड़े
पहनकर खेलने जाना।” वसुधा ने सिर हिला का हामी भर दी और दरवाज़े
पर उसे बाय करने आई।
वसुधा के हाथों का गुलाबी निशान अब तक घर की घंटी पर एक
मुस्कराहट के अर्ध चंद्र सा बना हुआ था। जाने क्या सोच कर उसने
उसे यों ही रहने दिया। कमरे में लौट कर उसने बहुत से फोन किए,
पुराने दोस्तों से बातें की। सबसे एक साथ ही मिलने के लिए एक
दिन बड़े होटल में लंच बुक किया और संयोजन का काम दोस्तों पर
छोड़कर वह घर ठीक करने लगी। भैया से अस्पताल में मिलने का समय
शाम सात बजे का है, तब तक वह सब ठीक कर देगी!
चार दिन में भैया अस्पताल से घर लौटे। इस बीच पैसों से मदद की
हर कोशिश के लिये भाभी ने उसके सर पर हाथ फेर कर मना कर दिया, “तेरे
भैया को पता चलेगा, तो बुरा लगेगा उन्हें। ये ठीक होते ही नई
नौकरी पकड़ेंगे। पुरानी कंपनी का सारा काम मनीला शिफ्ट होने से
वह बंद हो गई। इन्होंने ही तुम्हें बताने को मना किया था, वैसे
भी काम तो चल ही रहा है वसु।” भैया से तो पैसे की बात न उसने
आज तक की, न अब कर सकेगी!
दस दिन बाद अटैची पैक करती वसुधा ने अपने माथे की कसम दे कर
भाभी को पास बैठाया और कहा, “तुम जैसी स्त्री ही मेरे भोलेनाथ
से भाई के साथ गृहस्थी में सुखी रह सकती है! मैंने अपनी बचपन
की सहेली गीता से बात
की है, वह एक बहुत ही अच्छे स्कूल में प्रिंसिपल है, अप्रैल में सुम्मी
का टेस्ट ले कर अगले साल से स्कूल में भरती कर लेगी उसे। मैं
वहाँ से फीस भर दिया करूँगी! हाँ कर दो न भाभी
प्लीज़!”
कहते-कहते वसुधा रो पड़ी!
भाभी ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा, स्वीकृति में सर
हिलाया और कहा, “जब भी सुम्मी के लिए जलेबी लाते हैं, तो उनके
मुँह से आज भी ‘वसु’ ही निकलता है!”
दोनों रोते-रोते हँस पड़ीं! |