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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यूएसए से देवी नाँगरानी की कहानी- 'परछाइयों के जंगल'


माँ को बड़ी मुश्किल से सहारा देकर बस में चढ़ाया और फिर मैं चढ़ी। बस धक्के के साथ आगे बढ़ी तो माँ गिरते-गिरते बची। मैं भी उसे न सँभाल पाई। एक दयावान वृद्ध ने अपने स्थान से उठकर उसे बैठने के लिए कहा और माँ एक आज्ञाकारी बालक की तरह सीट पर बैठ गई। मैंने टिकट लिया और उसके साथ सटकर खड़ी हो गई। ‘टैंकबंड’ बस स्टॉप पर उतरना था। कंडक्टर ने दो बार जोर से पुकारा 'टैंकबंड, टैंकबंड' पर मैं अतीत की खलाओं में खोई रही, जब इसी तरह सहारा देकर माँ ने मुझे पहले चढ़ाया था और बाद में वह खुद चढ़ी थी। बस चलने लगी थी, पर फिर पाया कि कुछ छूट गया था, कुछ नहीं बहुत कुछ छूट गया था।

पिताजी जो साथ आए थे, पीछे रह गए थे। हड़बड़ी में वे चढ़ ही नहीं पाये या...! माँ का चेहरा ज़र्द, आँखें फटी फटी, गुमसुम आलम में वह बड़बड़ाते हुए अचानक चिल्लाने लगी- 'अरे बस रोको, बस रोको, मुनिया के पिता पीछे रह गए हैं। अरे भाई रोको मुझे उतरने दो, वे पीछे रह गए हैं।' आवाज शोर में लुप्त सी हो गई और बस हवाओं से बातें करती टैंकबंड बस स्टॉप पर आकर ठहरी। माँ ने एक तरह से मुझे धक्का मारकर नीचे उतारा और खुद जैसे चलती बस से ही कूद पड़ी। पाँव जमीन पर टिक न पाए इसलिए वह औंधे मुँह जमीन पर गिर पड़ी, वहीं बस स्टॉप पर लोगों की भीड़ के बीच।

जैसे कोई तमाशा हो मदारी का! लोग चलते चलते मुड़ मुड़ कर तिरछे नयनों से उसकी ओर घूरने लगे। सोचते होंगे यह कैसा पागलपन है कि बस अभी रुकी भी नहीं कि वह कूद पड़ी। खैर...तब मैं ८ साल की थी और आज १८ की हूँ, पहले से अधिक समझ सकती हूँ। याद है तब मैंने ज़मीन पर पड़ी माँ का हाथ थामा, और खींचते हुए उसे उठाने का एक नन्हा प्रयास किया। माँ उठी और बस की विपरीत दिशा में लगभग दौड़ने लगी और उसका हाथ थामे हुए मैं भी उसी रफ्तार से साथ-साथ खिंची चली जा रही थी। इतना तो मैं समझ ही पाई थी कि माँ पीछे छूट गए मेरे पिताजी की खोज में उस ओर भागे जा रही थी। 'माँ रुको तो, मैं नहीं दौड़ सकती। मुझे दर्द हो रहा है।' मेरी रुआँसी आवाज़ फिर से शोर के कोलाहल में खो गई।
'अरी चल, जल्दी चल, तेरे पिताजी न जाने कहाँ चले गए होंगे?'
'कहाँ गए होंगे माँ, कहीं नहीं जाएँगे, घर लौट जाएँगे।'
'अरी अब चुप भी कर, बस जल्दी चल। तू नहीं जानती...!' इसके आगे माँ कुछ न कह सकी। आज उस चुप्पी का अर्थ मेरी समझ में आ रहा है। जो तब नहीं जानती थी अब जानने लगी हूँ। तब आठ की थी अब १८ की हूँ। दस सालों में अपनों का दर्द, उनकी भावनाएँ, उनकी खामोशी में चढ़ते-उतरते लावे के उफ़ान को खूब समझती हूँ, उनकी भावनाओं की हर आहट को दस्तक देते हुए महसूस करती हूँ। बड़ी होते-होते सच में बड़ी हो गई हूँ, तभी तो माँ को एक बच्चे की तरह हाथ पकड़ कर पहले बस में चढ़ाया और फिर खुद चढ़ी।

'टैंकबंड, टैंकबंड,' कंडक्टर ने दो बार आवाज दी। मैंने हड़बड़ाकर माँ का हाथ पकड़ा, उसे सहारा देकर उतारने के पश्चात खुद उतरी, और उसका हाथ थामे हुए ही बस में चढ़ने और उतरने वाले लोगों की भीड़ से स्थगित हुई। हाथ छोड़ने का ख़तरा मैं नहीं ले सकती थी, बिलकुल भी नहीं।

जिंदगी के उतार चढ़ाव भी ऊँट सी करवट बदलते, हिचकोले खाते हुए जीवन नौका को आगे तक धकेलते रहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे दस साल पहले माँ मुझे लगभग धकेलते हुए अपने साथ घसीटते हुए, एक पागलपन की हद तक पिताजी को खोज रही थी। यह सच है जब माँ ने कहा था 'तू नहीं जानती', सच मैं सचमुच नहीं जानती थी कि पिताजी घर न जाकर कहीं और चले जाएँगे। इंसान का ठिकाना तो उसका घर होता है। क्या कोई भूला-भटका, थका-हारा, भूखा-प्यासा इंसान किसी अनजान डगर पर गुमराह हो जाता है या इस तरह भी खो जाता है जैसे मेरे पिताजी खो गए थे उस दिन? घर के पास आकर माँ ने कुंडी खोली, भीतर झाँका, पिताजी वहाँ नहीं थे। होते भी कैसे? कुंडी बाहर से बंद थी, माँ ने खोली थी!

"हे भगवान कहाँ गए होंगे? अब मैं कहाँ जाऊँ किससे पूछूँ? उन्हें तो अपनी खबर नहीं, होती तो घर न लौट आते।" और माँ बिलख बिलख कर अपना माथा पीटने लगी।
मेरी मासूमियत शायद इस दर्द को, उसके अर्थ को न जानते हुए खुद भी सुबक-सुबक कर रोने लगी। आज जानती हूँ माँ ने वह सफर किस तरह अकेले काटा होगा, किस तरह तन्हा-तन्हा उस दर्द के आघात को सहा होगा, जिसने कतरा कतरा उसे रुलाया। मैंने बस साथ दिया। आज भी वह घर के किसी कोने में चुपचाप बैठे बैठे न जाने बेरहम जिंदगी के कई किस्सों का गणित जोड़ती रहती है। देखकर मेरा रोम रोम सिहर उठता है। क्या बेबस आदमी कुछ भी न कर पाने की स्थिति में ऐसा कुछ भी कर बैठता है या अपने आप ऐसा हो जाता है। बदन काँप गया... फ़क़त याद मात्र से। सिहरन तो तब भी हुई थी, जब माँ ने मेरा हाथ झटक कर खुद को छुड़ाया था और एक क्रंदन के साथ भीड़ को चीरती हुई पिताजी की लाश पर जा कर झुकी थी। झुकी क्या, उनपर गिर पड़ी थी। उनके पीछे-पीछे जाते मैंने वह नज़ारा आँखों के सामने देखा, खून से सने हुए पिताजी फर्श पर पड़े थे। तब नहीं जाना अब जानती हूँ।

किसी मोटरकार ने उन्हें टक्कर मारी थी, वे खुद को न सँभाल पाये थे और गिर पड़े थे। बस क्षण भर में ही जिंदगी की हद पार करके मौत की हद में जा पहुँचे थे। कितनी महीन रेखा ज़िंदगी और मौत का विभाजन करती है! जो होना था वो हुआ। पर बाद में जो हुआ वह नहीं होना चाहिए था। माँ जब भी मुझे अपने सामने पाती, पिता की याद में तिल तिल जीते तिल तिल मरते, उनकी कही-सुनी बातों को दोहराती जो दर्द बन कर उनके हृदय में समा गई थीं। पिताजी को मानसिक रोग ने ग्रस्त कर लिया था, और वे धीरे धीरे बहुत कुछ भूलते जा रहे थे, अपने होने की अवस्था को भी। तब मैं दो साल की थी, ऐसा माँ ने बताया। और उस हालत में वह न मुझे अकेला छोड़ सकती थी न पिताजी को। सदा घर की कुंडी भीतर से बंद कर लेती ताकि पिताजी कभी भूल से भी दरवाज़ा खोलकर बाहर न निकल जायें। कभी पिताजी को लेकर डॉक्टर के पास जाना होता तो मुझे भी साथ ले लेती, क्योंकि मैं छोटी थी। आफताब मेरा बड़ा भाई था, आज होता तो २२ साल का नौजवान होता। मुझे चार साल बड़ा था।

‘वह होता तो यह सब कुछ न होता, खुदा को उसकी ज़्यादा ज़रूरत रही होगी, तभी तो...!” ऐसा माँ बार-बार कहती रहती। आजकल वह हर बात बार-बार दोहराती है और पुरानी यादों की पोटलियों से भूली बिसरी बातें उधेड़ कर मुझे सुनाती रहती है। अब तो लगता है कि जब मैं उसके पास नहीं भी होती हूँ तब भी वह बस बतियाती रहती है, फिर चाहे कोई सुन रहा हो या न सुन रहा हो। मेरे पास भी कोई चारा नहीं। उसका भ्रम बनाए रखने की खातिर शायद उसके दर्द भरे फफोलों को फोड़कर उन्हें कतरा कतरा बहने पर मजबूर करते हुए पूछ लेती हूँ- 'माँ पिताजी उस दिन तुमसे क्यों खफा हो गए और नाराज़ होकर बरस पड़े? बताओ न माँ क्यों...?' ऐसे में माँ एक लंबी साँस लेकर मुझे शुरु से आखिर तक वह किस्सा सुनाते कहती- 'अरे मुन्नी तुझे पता है उस दिन तेरे पिता नहाने के लिए गुसलखाने गए, हाथ में अंगोछा और पैजामा लिए, जिसका नाड़ा लटक रहा था। कुछ देर बाद बाथरूम से गुस्से भरी आवाजें आने पर मैं दौड़ती हुई वहाँ पहुँची। वे आईने में अपनी परछाई से लड़ रहे थे और लटकते हुए नाड़े को अपनी ओर खींच रहे थे। वही क्रिया परछाई भी कर रही थी।"
‘ऐसा क्या हुआ था माँ?’ मैंने माँ के दिल को फिर टटोला।
'मुन्नी, पता है उन्हें गुस्सा किस बात पर आ रहा था?'
'नहीं माँ!' मैं बस इतना ही कह पाई। दर्द को निगलना इतना मुश्किल है तो पचा पाना कितना असहनीय होगा, यही सोचती रही।
'अरी पगली पागलपन की भी हद होती है। वे सोच रहे थे कि घर में कोई चोर घुस आया है और उनका अंगोछा और पाजामा छीनकर ले जाना चाहता है। वे उन्हें अपने ओर खींच रहे थे और परछाई अपनी ओर...!’

‘फिर क्या हुआ माँ?’ मैंने अपनी रुलाई रोकते हुए ऐसे पूछा जैसे किसी कहानी का अंत जानने के लिए उत्तेजित थी। ‘मैंने यह देखकर तुरंत गुसलखाने की लाइट बंद कर दी और उनका हाथ थाम कर कमरे तक ले आई और सांत्वना देते हुए उनसे कहा कि अब चोर भाग गया है, वह फिर कभी नहीं आएगा'। माँ ने अपनी आँखें दुपटे के छोर से पोंछते हुए उस किस्से के आखिर को अंजाम दिया।
'कभी नहीं आएगा, मुझे तंग भी नहीं करेगा?' ये पिताजी के शब्द थे या उनका डर था, यह न माँ आज तक समझ पाई न मुझे समझा पाई है।
'नहीं कभी नहीं! अब आप लेटें और सोने की कोशिश करें।'

ऐसी हालत में माँ का तन्हा संघर्ष मेरे जीवन का हिस्सा बनता गया। ऐसे और कई वारदात जिनको आज याद करते हुए मेरे रोंगटे भी खड़े हो जाते हैं। क्या आदमी इस क़दर अपनी यादाश्त के साथ अपनी पहचान खो देता है कि महसूस होने लगता है कि 'हम क्या किसी कागज की नाव में सवार हैं? क्या उसमें भी छेद है जहाँ से दर्द रिसता हुआ मन के भीतर घुस जाता है? क्या कोई साधन या तंत्र नहीं, या कोई ऐसा बाँध, जो बाँधा जाय ताकि दर्द कतरा कतरा बहकर मन कलश को खाली कर दे। यह कैसी विडंबना है कि आदमी जिंदा हो पर जीता न हो, मरने वाले की याद में खुद को बेखबरी के आलम तक ले आए। ऐसी जिंदगी पिता के बाद मैंने माँ को जीते हुए देखी और साथ रहते-रहते खुद जी और भोगी।

एक दिन माँ ने अपनी छोटी सी थैली से कुछ रेज़गारी निकाल कर खटिया पर फैला दी और फिर सिक्कों को एक एक करके गिन-गिन कर वापस उसी थैली में डालते हुए कहने लगी 'ये पैसे मेरे हैं, मैंने घर के खर्चे से दुख सुख के वक्त के लिए पाई-पाई करके बचाए हैं। मैंने चोरी नहीं की है मैं चोर नहीं हूँ, मैं चोर नहीं हूँ।“ मैं निशब्दता में गुम होकर खुद को खोज रही हूँ। क्या कहूँ इतना सब देखने के बाद, सुनने के बाद!

इतना सब कुछ घट जाता है इंसान की ज़िंदगी में कि उसको भूलने की कोशिश में जीवन टुकड़ों में बँट जाता है। काश! ऐसा कोई यंत्र होता जो अतीत की यादों को फिर से यादों में आने से रोक लेता ताकि वर्तमान के किसी हिस्से पर उसकी परछाई पड़कर आज को कोई ग्रहण न लगा पाए। एक रविवार को मैंने बड़े प्यार से माँ का मनपसंद खाना बनाकर कुछ निवाले उसे अपने हाथ से खिलाये और फिर थाली उसे थमाकर अपने लिए खाना परोसने रसोईघर गई। जैसे ही मैंने अपना हाथ खिसका लिया, वह बेहोशी की हालत में ग्रास दर ग्रास खाती रही और आखिर उठते हुए थाली, चम्मच लेकर रसोईघर की बजाय स्नानघर की हौदी में रख आई। मैं देखकर हैरान हुई कि इस हद तक माँ अपना आप भूल चुकी है। फिर आवाज़ देते हुए अपने जवाबदार होने का ऐलान करते हुए कहा-
‘मुन्नी मैंने खाना खा लिया है और बर्तन रसोईघर में रख दिए है। बहुत नींद आ रही है..जाकर सोती हूँ...!” जो अपना आप खो बैठे, उसे क्या पता कि कौन सी हौदी किस काम के लिए है। यह यादों का कैसा जंगल है, जिसकी भूल भुलैया में माँ पिताजी का पीछा करते करते अपना आपा खो बैठी, खुद को खो बैठी, पर उन्हें खोज न पाई।

कभी वह पिताजी की एक टोपी, जो उनके पास अब भी बची थी, सर पर ओढ़ लेती और मजबूती से अपने दोनों हाथ उसपर धर लेती और कहती-‘नहीं यह उन्होंने मुझे दी थी, मैं अपने साथ ले जाऊँगी। यह तुम्हारी नहीं है, मेरी अपनी है, यही एक निशानी रह गई है!’ अपने और पराए के बीच की दीवार इतनी गहन हो सकती है, सोच में, शब्दों में... इस गुत्थी को मैं आज तक सुलझा नहीं पायी हूँ। मैं उनकी अपनी, पराई कैसे हो सकती हूँ? और वह जो साथ छोड़ गया वह अब भी अपना है...! आज इसी एक भूलभुलैया में जी रही हूँ। भेदने की कोशिश करूँ इतनी भी हिम्मत नहीं मुझमें। बस इस दौर के हर एक क्षण की साक्षी होकर मैं अपने आने वाले कल से आज ही जुड़ रही हूँ। माँ ने अपनी व्यथा-गाथा सुनाते सुनाते मेरे भीतर इतनी सन्नाटों की खलाओं को भर दिया है कि आज तक मैं उस कोहरे से बाहर नहीं निकल पाई हूँ। इस कदर कि अब अपना वजूद भी अपना नहीं लगता। जैसे मैं जी रही हूँ परछाइयों के बीच, भाग रही हूँ उन यादों की परछाइयों के जंगल में! अजीब विडंबना है...! माँ पिताजी का सहारा बनना चाहती थी, बीच सफर में साथ छूट गया कुछ यों जैसे वजूद का कोई हिस्सा काट कर फेंका गया हो। बस घर का एक कोना खाली हो गया। मैं माँ का सहारा बनकर भी न बन पाई, यह मेरी बेबसी है। माँ का सहारा बनते बनते लग रहा है, माँ नहीं मैं बेसहारा हो गई हूँ!

 

१ नवंबर २०१७

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