यह
कहानी आज की नहीं है। बीस साल पहले की है। एक तो “बीस साल बाद”- इन शब्दों
में ही जादू है और फिर बीस साल का लंबा समय तो किसी भी कहानी को
तिलिस्मी बना सकता है। कहानी जब बीस साल पुरानी होती है, उसमें से एक नशा
उड़ना शुरू होता है, धुआँ धुआँ सा जैसे हुक्के का झीना बादल.. और हल्की नशीली
गुड़गुड़ाहट की ध्वनि में घुलती हुई मीठी-सी रूमानी गंध जो नथुने पार कर दिमाग की
नसों तक पहुँचती है। यह नशा सच से जादू की दुनिया में ले जाता है। वैसे भी
सच और जादू में दूरी ही कितनी होती है जादू में प्रवेश करने का माहौल होना
चाहिये... जो आपको हर तरफ से घेर ले उसको एकाग्र कर दे एक जादुई दुनिया
में विचरने के लिये।
1
समय बदलता है तो परिवेश बदलते हैं और शहर भी बदल जाते
हैं। लेकिन कभी-कभी स्मृतियों के जादू में शहर सदा वैसे ही जिंदा रहते हैं जैसे
वे बीस साल पहले थे। यह कहानी भी ऐसे ही एक शहर की है। शहर का नाम- जयपुर।
एक राजा, एक रानी... बीस साल पहले...
1
शाम के करीब साढ़े पाँच बजे होंगे, यह अनन्या अग्रवाल के घर में शाम की चाय
का समय था। कमल आते ही होंगे अनन्या ने सोचा। कमल यानि कमलकांत अग्रवाल जो
सोनी टीवी में रीजनल मैनेजर हैं और लखनऊ से ट्रांसफर होकर पंद्रह दिन पहले
ही जयपुर आए हैं।
कालबेल
बजी तो अनु दरवाजे की ओर लपकी। शायद कमल आ गए। अनु यानि वही अनन्या अग्रवाल
उसे सब अनु ही कहते हैं। अनन्या नाम ही ऐसा है लंबा सा कोई पुकारना नहीं
चाहता। जैसे कमलकांत अग्रवाल कमल हो गए हैं वैसे ही अनन्या अग्रवाल अनु।
अनु ने दरवाजा खोला तो मजबूत कद काठी वाली, रंगबिरंगे घाघरे, छापदार लंबी
ब्लाउज और लहरिया की चुनरी ओढ़े एक राजस्थानी महिला खड़ी थी, उसने हाथ
जोड़कर नमस्ते करते हुए कहा-
राम राम सा, कमला बाई सा ने भेज्यो सै। प्रेस के कपड़ा होवे तो दे दयो?
हाँ जरा बैठो, क्या नाम है तुम्हारा?
लोग म्हणे रामधनी कह्वे...|
यह घर एक बड़े घर का छोटा हिस्सा है। फ्लैट तो नहीं पर फ्लैटनुमा। कमल और
अनु की रहगाह, जहाँ सीढियाँ चढ़ते ही सामने एक चौकोर बरामदा सा है उसके बाद
रसोई, उससे सटा हुआ डायनिंग रूम। दाहिनी ओर बड़ा सा ड्राइंगरूम और दूसरी ओर
बेडरूम।
अनु गैस धीमी करने को पीछे मुड़ी, फिर वहीं से पूछा, “चाय पियोगी रामधणी”
“चाह मैं पियूँ कोंणीं।”
“अच्छा चाय नहीं पीती तो फिर क्या पीती हो?”
घरां घोण पाल राखी हँ, घणो दूध होवे… दूध पीवूँ छाछ पीवूँ
अनु ने फ्रिज खोलकर भीतर झाँका, यह हिस्सा डायनिंग रूम के पास है न,
वाशबेसिन और फ्रिज दोनो यहीं हैं। रामधणीं ने भी देखा- छाछ तो था नहीं। दूध
भी थोड़ा सा ही था। अनु जरा संकोच में आई और रामधणी ने निःसंकोच कहा-
"म्हने भूख तिरस कीं नी हैं। निकामी परेसान मत
होवो। प्रेस के कपड़ा होवे तो दे दयो म्हें जाऊं हूँ।"
अनु ने समझ लिया कि राम धणी को भूख नहीं है वह कह रही है कि तुम बेकार
परेशान हो रही हो कपड़े हों तो दे दो मैं घर चलूँ। यहाँ की बोली से परिचय
हो चला है।
"अच्छा रामधणीं, कहाँ रहती हो?" अनु ने पूछा।
“दो पग माँडण जित्तो ही आगो है म्हारो घर। घर सूँ ही आ री हूँ म्हें।“
रामधणीं एक पल को भी बैठी नहीं। कपड़े लिये और चलती बनी।
कितनी मितभाषी, स्वाभिमानी, संतोषी और काम से काम रखनेवाली महिला है। अनु
ने सोचा। उसे लखनऊ की रामकली याद आ गई। हैंडलूम की किनारीदार धोती पहने,
दुबली पतली, छोटे से कद की रामकली जब आती, तो घर बातों से भर जाता। उसके
कंधों पर सिर्फ कपड़ों की गठरी नहीं होती थी, दुनिया भर के सुख दुख भी उस
गठरी में होते, जो गठरी को जमीन पर रखते ही चूहेदानी के चूहों की तरह हर
दराज से बाहर निकलने को तड़पते और एक एक कर बाहर आ जाते। घर परिवार की
बातें, मुहल्ले पड़ोस की बातें, तन - मन के दुख-दर्द की बातें। दवा दारू की
सलाहें और न जाने क्या क्या? चाय तो पक्की थी ही। इतनी पक्की कि हर सोमवार
अनु सुबह चाय पीती ही नहीं थी, इंतजार करती थी कि जब रामकली आएगी तभी
पियेगी। कली और धणीं यह केवल नाम का फर्क था या उनके परिवार और परिवेश का
अनु को इसका ठीक से पता नहीं था पर कुछ था तो जरूर जो दोनो को एक दूसरे से
बिलकुल अलग कर देता था।
शहर शहर के रंग अलग होते हैं। गर्मियों के मौसम में लखनऊ में सब हल्के रंग
पहनते हैं बिलकुल हल्का गुलाबी, आसमानी, सफेद, क्रीम- चिकन के सूती पतले
कपड़ों के साथ। कपड़े सूती तो यहाँ भी होते हैं पर जरा मोटे और चटक रंगों
के। किसी लड़की को लाल सलवार, हरी चुन्नी और पीला कुर्ता पहने देखना आम बात
है।
मकान-मालकिन की बेटी ने तीन गड्डियों में कपड़े रखे हैं अलमारी में, कुर्ते,
सलवार और दुपट्टे। मिलाजुलाकर पहनती रहती है। स्मार्ट लड़की है, अनु ने
उसका नाम रखा है रंगीली। पर यहाँ सब रंगीले हैं... लाल हरे बैंगनी
नारंगी... इन रंगों पर बाँधनी और लहरिया। अनु ने पहली बार देखा है गर्मियों
के मौसम में रंगीन कपड़ों का ऐसा मेला... अभी सीखा नहीं है, पर ये रंग अनु
को अच्छे लगने लगे हैं।
जयपुर का अपना मिजाज है। हर शहर का अपना मिजाज होता है। कितनी भी गर्मी हो
जयपुर की सुबहें सुहानी होती हैं। गर्मी के मौसम में दिन धीरे धीरे गरमाता
है और दोपहर इतनी गरम कि अनु जब कपड़े धोकर फैलाना शुरू करती है तब आखिरी
कपड़ा फैलाते समय तक पहला कपड़ा सूख चुका होता है। फिर शाम सात बजे से दिन
ठंडाने लगता है। रात तक सुहावना हो जाता है। लखनऊ ऐसा नहीं है। वहाँ तो
सुबह उठते ही गर्मी शुरू हो जाती है, तभी तो सफेद और हल्के रंगों का साम्राज्य
छाया रहता है। पुराने शहरों को छोड़ने और नए शहर में ढल जाने के इस दौर में अजीब सी
स्थितियों से गुजरना होता है। कोई भावुकता तो नहीं, फिर भी पेट में तितलियाँ
उड़ने जैसी बेचैनी और जरा सी सैलानियों वाली उत्सुकता।
दरवाजे की घंटी से अनु की विचार धारा टूटी। कमल आ गए थे।
दिन कैसा रहा- अनु ने पूछा
बढ़िया, नए शहर में काम सँभालने की शुरू की व्यस्तता से मुक्ति मिल गई कल
बचा बचाया काम पूरा कर के परसों शहर घूमने चलेंगे। कंडक्टेड टुअर लेकर।
सच ? अनु काफी खुश हो आई। यह उसका पहला जयपुर प्रवास था। किताबों के पन्नों
में पढ़े शब्दों और चित्रों को सचमुच देखने वाला दिन, ऐसे दिन जीवन में आते
रहे हैं लेकिन ऐसा पहला दिन हर शहर में रोमांचक रहा है। मुंबई, पंजिम,
भोपाल, चंडीगढ़, लखनऊ और अब जयपुर... एक लंबे दिन की प्रतीक्षा और...।
अड़ोस पड़ोस में यहाँ दोस्ती करने का इतना रिवाज नहीं। लेकिन पड़ोसियों से
बात किये बिना भी शहर से दोस्ती होने लगती है। यहाँ सभी घर नए बने हैं
आलीशान हैं लेकिन लोगों के रंगढंग में विलायतीपन नहीं है। अनु दुमंजले पर
रहती है। इसलिये बहुत से घर दिखाई देते हैं, साथ में उनके क्रिया-कलाप भी।
सामने वाले घर में जो महिला रहती हैं वे बहुत सादी हैं। न बालों को रंगती
हैं न ही कोई फैशनेबल पहनावा पहनती हैं। लगभग पचास की उम्र की होंगी। घर
में एक दंपत्ति और हैं बहू बेटे से लगते हैं। बहू शायद नई नवेली है। सिर
ढँकती है और सजी धजी रहती है। बंगले के बाहर, बगीचे के किनारे, ड्राइव वे
पर दो कारें खड़ी रहती हैं एक शायद माता पिता की होगी, एक बहू बेटे की।
एक
दिन अनु ने उन बुजुर्ग महिला को कार साफ करते देखा। पाइप लगाकर कपड़ा लेकर
वे मेहनत से कार की सफाई में लगी थीं। इस उम्र की इतनी सीधी-सादी महिला को
तन्मयता से कार साफ करते पहले कभी नहीं देखा था। आमतौर पर महिलाओं की रुचि
सिर्फ कार में बैठने तक ही होती है या फिर ड्राइव करने तक। अनु को यह देखकर
और भी आश्चर्य हुआ कि थोड़ी देर बाद वे कपड़े बदलकर आईं और कार स्टार्ट कर
के चलती बनीं। उनके चेहरे से नहीं लगता था कि वे कार ड्राइव करती होंगी।
बाद में पता चला कि वे शेयर ब्रोकर हैं।
परिवार कितना प्रगतिशील है यह महिलाओं को देखकर पता चलता है। पुरुष तो सभी
एक से ही होते हैं। लेकिन जयपुर में बहुत साधारण पहनावे वाली या पारंपरिक
पहनावे वाली महिलाएँ बड़े बड़े कामों में लगी हैं। ऐसे काम जिसमें अधिकतर
पुरुष ही होते हैं।
यहाँ लड़कियाँ स्कूटी खूब चलाती हैं और महिलाएँ कार भी। जयपुर शहर के लोग
कार की बत्तियों के इशारे नहीं समझते, मुड़ने के लिये हाथ देना होता है। यह
देखकर अजीब सा लगता है कि महिलाएँ सोने की चूड़ियों भरे हाथ निकालकर दाहिने
या बाएँ मुड़ने का इशारा करती है। देखते ही आप समझ लेंगे कि इस कार में
किसी रईस की बहू जा रही है। शुक्र है यह जयपुर है कहीं लखनऊ या दिल्ली होता
तो एक झपट्टे में सारी चूड़ियाँ हाथ के बाहर निकल जातीं। फिर हाथ भी रहता
या न रहता पता नहीं... जयपुर में सुरक्षा दिखाई देती है। सामान्य महिलाएँ
भी कुछ गहने पहने हुए सड़क पर चलती दिखती हैं। मतलब चेन खिंच जाने का डर
यहाँ नहीं है। सोना इस शहर की जान है और शहर का सौंदर्य भी।
अगला दिन सैर का था। हवा में उत्तेजना थी मन में उत्साह जैसे किसी नए दोस्त
से मिलने जा रहे थे वे दोनो। यात्रा शुरू हुई और वे एक नई दुनिया के हवाले
हो गए... हवा महल, जल महल, सिटी पैलेस, आंबेर किला, जयगढ़, नाहरगढ़,
सांगानेर के छापे वाली गलियाँ, जंतर-मंतर, गलता मंदिर, शिशोदिया रानी का
बाग, कठपुतिलयों के नाच, एकतारा, दो बाँसुरियों वाला अलगोजा और जयपुर चौक
की चहल पहल कुछ भी अनचीन्हा नहीं था। किताबों में पढ़ा हुआ था लेकिन
साक्षात्कार तो अभी हो रहा था। पहली बार, "पढ़े हुए सच" को "अनुभव से
गुजरते हुए सच" में बदलने का दिन फास्ट फारवर्ड हो रहा था जैसे। तेज दौड़ते
हुए केवल शरीर से नहीं मन और मस्तिष्क से भी, कमल और अनु यहाँ की भाषा,
रहन-सहन, परिवेश के साथ घुलने लगे थे जैसे।
सबसे रोचक था भोजन के
बाद छोटे छोटे लड़कों का नृत्य। रंगबिरंगे परिधान में जब वे खड़ताल बजाकर
नाचते तो सारा वातावरण उत्सवी हो उठता। शाम को वापस लौटने तक उनका परिचय
पूरे जयपुर से हो चुका था। किताबों की तस्वीरें सच में बदली थीं और सच
कैमरे की तस्वीरों में। शहर की रोशनियाँ और शहर के साए उनके साथ घर लौटे।
सबकुछ कितना रोमांचक था... कितना मधुर..
नए शहर में पहुँचकर सबकुछ अच्छा नहीं लगता। कुछ निराशाएँ हमेशा आगे आ जाती
हैं। अगले दिन के कपड़े लगाते हुए कमल को एक दिन पहले शहर के दौरे का अनुभव
याद आ गया,
“यहाँ के लोग अक्खड़ हैं और कंजूस भी। किसी के यहाँ भी जाओ कोई पानी तक को
नहीं पूछता, “कमल उन डीलरों की बात कर रहा था जिनके यहाँ उसने अपनी पहली
विजिट की थी।"
“हो सकता है कि वे कंजूस न हों... हर प्रांत में स्वागत सत्कार के नियम
होते हैं। लखनऊ वाले गिलास में इतनी कम चाय परोसते हैं और चंडीगढ़ वाले
लस्सी पिला पिलाकर मार डालते हैं।“ तुम्हारे नए नए अनुभवों की शृंखला में
एक शहर के अनुभव और जुड़ जाएँगे कमल।“ अनु ने कहा।
“घणी चोखी बात कही आपणे महाराणीं सा।“
“वाह वाह... शहर की भाषा जुबान पर चढ़ रही है?”
“नहीं हम भी महाराजा है- महाराजा कमल प्रताप सिंह...
दोनो हँस पड़े और देर रात तक दिन भर की सैर की छोटी छोटी बातों को याद करते
रहे।
राजा कमल प्रताप सिंह उर्फ केसरिया बालम और रानी अनन्या बाई सा उर्फ रंगीली
रानी पूरी तरह जयपुर के हो चुके थे उनके म्यूजिक सिस्टम पर ताजी खरीदी
अल्लाह जिलाई बाई की आवाज़ संगत कर रही थी.. आवो सा पधारो म्हारे देस... और
उनका छोटा सा फ्लैटनुमा घर सिटी पैलेस के किसी जादुई कोने सा लग रहा था। |