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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
नार्वे से 'डॉ. सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक' की कहानी आदर्श एक ढिंढोरा


क्रिसमस के दिन थे। परसों २५ दिसम्बर है। बाजार में बहुत चहल-पहल थी। छोटी-बड़ी सभी दुकानें बन्दनवारों से सजी थीं। ओस्लो नगर का खूबसूरत बाजार कार्ल यूहान्स गाता ऐसे सजा था, जैसे बारावफात का पुराने लखनऊ से अमीनाबाद तक सजा रहता है। दुकानों की खिड़कियाँ जन्माष्टमी की तरह सजी थीं। पूरे वर्ष का कौतूहल मानो इस सप्ताह ही भर गया हो। जगह-जगह पर पीतल और काँसे के उपहार बेचते प्रवासी लोग आसानी से देखे जा सकते थे।

सम्पूर्ण स्कैंडिनेविया बर्फ गिरने से उज्जवल होने लगा था। बहुत सर्दी थी। फिर भी चारों ओर गरमा-गरम चहलकदमी थी। यदि क्रिसमस में बर्फ न गिरे तो मानो अशुभ क्रिसमस है। क्रिसमस के साथ जुड़ी लम्बी छुट्टियों का आभास। एक नयी स्फूर्ति, एक नयी उत्सुकता। पूरे स्कैंडिनेविया (नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क) में शायद ही कोई ऐसा हो जिसे क्रिसमस के बाद एक सप्ताह की लम्बी छुट्टियों का क्रम विचारक्रम में घूमता।

एक तरफ यूल (क्रिसमस) का आकर्षण, दूसरी तरफ आगामी लम्बी छुट्टियों की नीरसता का अनुभव। जिनके घर यहाँ हैं, यहाँ के रहने वाले हैं, वे लोग तो अपने घरों में एकत्रित होते। यही समय शुभ होता है जब लड़कियाँ अपने सर्वप्रिय प्रेमी को अपने माता-पिता के घर पर आमंत्रित करती हैं। नार्विजन लोग खाते-पीते, मौज उड़ाते, युवा-जन नाचते-कूदते, बच्चों को पर्व बहुत प्रिय होता है। सभी परिवारों में वृद्धजन अपने परिवार के बच्चों को परम्परागत औपचारिकताएँ सिखाते नजर आते। यहाँ वृद्धजनों की बातों का असर न तो युवावर्ग पर होने वाला है, और न ही युवावर्ग ध्यान से सुनने को तैयार होगा। इसीलिए बच्चे ही शेष बचते जो अपने पुरखों की नयी-नयी बातें सुनते।

परन्तु प्रवासी लोग अपने-अपने वतन से दूर न जाने किस-किस तरफ छुट्टियाँ व्यतीत करते। घर के बाहर चारों तरफ बर्फ ही बर्फ। आज टीवी वाडियो घर-घर है। कोई प्रवासी घर पर टीवी देखता वीडियो पर फिल्म देखता या देशीय मित्रों के साथ गप्पें मारता। गोपाल बर्फ को बहुत बेसब्री से देख रहा था। उसने अपनी खिड़की पर दृष्टि डाली। बड़े-बड़े वृक्षों के समूह बर्फ से ढँक चुके थे। ऐसा प्रतीत होता था की यहाँ कभी हरी घास और हरे-भरे पेड़ थे ही नहीं।

अवकाश के दिनों में नगर के कुछ ही रेस्टोरेंट, बार आदि खुलते। घर की एकाकी नीरसता में रस भरने का सबसे आसान और सुंदर साधन, पश्चिमी देशों के मदिरालय और रेस्टारेंट में धूम्रपान और संगीत में डूबे अपने-अपने तरीके से जीवन का रसपान करते हुए युवा मचल उठते। डिस्कोथेक तो आज आधुनिक रेस्टारेंट की शान है। डिस्कोथेक जहाँ कोई बंधन नहीं, नाचने की कला आवश्यक नहीं, जैसा जो चाहे वैसा नाचे और किसी भी साथी के साथ नाचे। गोपाल जिस रेस्टारेंट में काम करता था वहाँ तिल रखने की तरह नहीं थी। गोपाल डेस्क पर खड़ा-खड़ा बड़ी तत्परता से बीयर, वाईन परोसने में लगा था। गोपाल अक्सर सोचता। वास्तव में क्या बात है, जो प्रवासी उसे मिलता वह यह पूछना न भूलता- 'कोई गोरी (स्कैंडिनोवियन) लड़की फँसाई ?' गोपाल मुस्कराकर रह जाता। गोपाल के मित्र अक्सर कहते- 'गोपाल तुम तो रेस्टारेंट में काम करते हो। यदि मैं तुम्हारी जगह होता तो देखते कितनी बड़ी लाईन लगा देता।'

गोपाल शर्म से गड़ जाता। गोपाल जवाब-तलब न करता। प्रायः दो बातें प्रवासी युवा लड़कों की बहस का विषय होती। पैसा और पश्चिमी बाला। गोपाल सोचने लगा था कि बिना युवती से दोस्ती पश्चिमी संस्कृति और वह। यह सब कैसा उपहास है? जैसे युवती से मित्रता न होना अयोग्यता हो। विशेषकर जहाँ सेक्स फ्री समाज है, और सभी को स्वतंत्रता से अपना निजी जीवन जीने की आजादी है। यदि गोपाल से यहाँ बसे बुजुर्ग प्रवासी भी लड़की के बारे में पूछते तो उसे बुरा नहीं लगता। क्या इतनी आवश्यक है लड़की, वह विचारों में खोता हुआ चला गया।

उसने बचपन से यही शिक्षा पाई कि आदर्श लड़के की तरह रहना। विवाह के पूर्व किसी लड़की की तरफ देखना नहीं। गोपाल की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? बिना देखे लड़की-लड़कों का विवाह? पति परमेश्वर? अनचाहे वरों से कन्याओं का विवाह? क्या यह आदर्श सही हैं? ये सारे प्रश्न गोपाल के मस्तिष्क में कौंधते जा रहे थे। उसे ठीक याद है, उसके पिता उसकी माँ को कभी सिनेमा दिखाने तक न ले गये। उसकी माँ जब से ब्याह कर आई। एक घर, एक द्वार और चारदीवारी में जिन्दगी काट गई। समाज में, गाँव में, सभी मिसाल देते-
'गोपाल की माँ को देखो। कितनी गऊ हैं बेचारी, एक देहरी पर डोली चढ़कर आई, सारा जीवन उसी देहरी पर गुजार दिया। चाहे हारी-बीमारी रही हो, पर भला क्या मजाल कि उफ् भी किया हो। कभी कोई माँग नहीं।' गोपाल अतीत की स्मृतियों में विचरण करता रहा।

एक दिन गोपाल के मित्र राजन ने पूछा- 'अगले सत्र में क्या करना है?'
’सोशियोलाजी (समाजशास्त्र) ग्रुन्फाग (विश्वविद्यालय में प्रारंभिक एक वर्ष का कोर्स)।' गोपाल ने उत्तर दिया। राजन ने पुनः प्रश्न किया- 'दो ग्रुन्फाग कर चुके हो, क्या सारी उम्र पढ़ाई करने का इरादा है?'
'और कोई रास्ता भी तो नहीं।' गोपाल ने असमर्थता व्यक्त की।
'ठीक कहते हो गोपाल। ये मामू (पुलिसवाले) ही तो हैं। जिनके जोर से हम पढ़े जा रहे हैं। परीक्षायें उत्तीर्ण करते जा रहे हैं। यदि फेल हो जाओ तो न वजीफा और न ही पार्ट टाईम काम करने की अनुमति ही मिले। इसी कारण हम पढ़े जाते हैं।' दोनों मित्र हँस पड़ते हैं। राजन आगे बोलने लगा।

'सत्यानाश हो सन् १९७५ के प्रवासीय अधिनियम का, जिसने नार्वे प्रवासियों के बसने पर रोक लगा दी। यहाँ रुकने का अब शादी ही एकमात्र रास्ता है।'
'हाँ, तुम ठीक हो राजन। पर तुम्हारा काम तो पक्का है। तुम्हारी तो वैंके से शादी होने वाली थी।'
'पर अब नहीं होगी।' राजन कहकर उदास हो गया।
'कोई अड़चन आ गई क्या?'
'हाँ, वेंके कहती है कि उसके माँ-बाप शादी के विरूद्ध है। उसके माता-पिता का कहना है कि यदि वह किसी काले (प्रवासी) से विवाह करेगी तो वे उसे छोड़ देंगे और साथ न देंगे।'
'पर वेंके क्या कहती है, राजन।'
'वह न तो हाँ करती है और न ही मना करती है। वह कहती है कि वह भी बहुतों की तरह बिना विवाह के जीवन व्यतीत करेगी।' राजन ने साँस लेते हुए कहा-
'गोपाल! मेरी बात मान, कोई गोरी फँसा ले।'

गोपाल को लगा शायद यही एक रास्ता है। गोपाल डेस्क पर काम करता हुआ सोचता जाता कि किस तरह यहाँ बसा जाए। गोपाल में फुर्ती सी आ गई। वह सभी से हँस-हँस कर बातें करता। यदि लड़की हुई तो विशेष सहानुभूति दर्शाता। वह बहुत फुर्ती से बीयर के गिलास भरता। यदि लड़की गोरी हुई तो वह वाईन-बोतल की कार्क (ढक्कन) स्वयं वह खोल देता। धीरे-धीरे गोपाल के व्यवहार से सभी प्रभावित होते गए।

रात काफी हो चुकी थी। रेस्टारेंट में तिल रखने को जगह नहीं थी। नौ बजे के बाद इस रेस्टारेंट में अन्दर जाने की अनुमति नहीं थीं। गोपाल द्वार पर पहुँचा तो उसने देखा कि उसकी एक परिचित नार्विजन युवती चौकीदार से बहस कर रही थी। गोपाल को देखते ही उस लड़की, मारित ने गोपाल से चौकीदार की शिकायत की। गोपाल के कहने पर चौकीदार ने मारित को रेस्टोरेंट में आने दिया। मारित ने गोपाल को चूमा और आगे बढ़ गई।

मारित वही लड़की है जो प्रवासियों को बहुत बुरा समझती थी। उसकी दृष्टि में केवल गोपाल अच्छा प्रवासी है। मारित गोपाल की बात मानने के लिए किसी भी तरह तैयार नहीं थी कि प्रवासी अच्छे होते हैं। कई बार जब मारित अधिक पी लेती, और उसके पास टैक्सी के लिए भी पैसे न बचते तो उसे वेटरों द्वारा बहुत अपमान सहना पड़ता। परन्तु यदि गोपाल रेस्टोरेंट में हुआ तो वह अपमान से बच जाती। गोपाल की उपस्थिति में मारित अपने आपको सुरक्षित समझती थी।

जब रेस्टोरेंट में बेयरों की कमी होती तो गोपाल बेयरों का काम भी करता था। पहले जहाँ पर गोपाल या अन्य प्रवासी बेयरे बीयर, वाईन परोसता वहाँ मारित फटकती तक नहीं थी। परन्तु अब बिल्कुल विपरीत था। बैठे-बैठे मारित सोचने लगी जब गोपाल से उसकी पहली मुलाकात हुई थी, तब उससे गोपाल ने पूछा था।

'प्रवासियों के बारे में तुम्हारी क्या राय है?'
'मैंने कई नार्विजन लड़कियों को एशियाई लड़कों के साथ विवाहित देखा है।'
'अवश्य देखा होगा, पर मैं ऐसी गलती भूल से भी न करूँ।'
'क्या मैं क्नुत की जगह होता, तब भी नहीं?'
गोपाल प्रश्न कर मारित के नयनों में झाँकने लगा।
'क्नुत मेरा दोस्त है। वह पति नहीं बन सकता। मैं स्वतंत्र रहना चाहती हूँ। आजाद पक्षी की तरह।' मारित बातों-बातों में कई गिलास बीयर पी चुकी थी। रेस्टोरेंट बंद होने का समय आ गया था। मारित गोपाल के कन्धों के सहारे द्वार पर टैक्सी तक आ चुकी थी। मारित को अपने अतीत पर हँसी आईं अतीत की स्मृतियों की वीरानी-सरसता के मध्य खोई वह बुदबुदाई मूर्ख गोपाल।

गोपाल चाहता तो और नवयुवकों की तरह मारित के साथ कुछ भी कर सकता था। पर मारित गोपाल के आदर्श को खोखला समझ हँसी थी। शीतानाफ क्लब हाल, रात्रि के अँधेरे को लजाते हुए, जगमगाते रंग-बिंरगे अनुशासित प्रकाश के वल्ब और तेज संतुलित प्रकाशपुंज। कितनी मनमोहक लग रही है डिस्कोथेक हाल की प्रकाश सज्जा। गोपाल अकेले एक तरफ नाचता जाता और द्वार पर देखता जाता जैसे उसे किसी की प्रतीक्षा हो। जैसे ही गोपाल को मारित दिखी गोपाल नाचना छोड़कर द्वार की ओर बढ़ा। मारित दौड़ती हुई आई और उसने गोपाल को बाँहों में भर अधरों पर अनेक चुम्बन चिपका दिए। कितना कुछ बदल गया है। कहाँ गोपाल किसी युवती को देखकर शर्मा जाता था। और अब बिल्कुल आधुनिक; संकोच की दूरी हटाना आजकल के जमाने में बहुत जरूरी है। कई बार व्यक्ति संकोच में अपने प्रिय से यह तक नहीं कह पाता कि वह उसे चाहता या चाहती है। और मन ही मन यह संकोच कि न कह सकने की अभिव्यक्ति अन्दर ही अन्दर घुटन बन टीसती रहती है। गोपाल को इस घुटन में मारित ने मधुर सानिध्य-सित्त पराग भर दिया था। दोनों की समझदारी ने एक-दूसरे को इतना निकट ला दिया कि दोनों घनिष्ट मित्र बन गए।

प्रातःकाल का समय। उभरता हुआ सूरज। करवट बदलती सूरज की किरणें। शयनकक्ष के गहरे रंग के पर्दों से दस्तक दे रही सूरज की किरणें। घड़ी की घंटी बजी टिर र........ र र र र गोपाल उठा ही था कि सोचने लगा।
'गोपाल क्या बात है?'
'मारित, हम लोग साथ-साथ बिना इंगेजमेंट के कब तक रहेंगे? मारित क्या अच्छा न होगा कि इस बच्चे के जन्म लेने से पूर्व विवाह कर लें। नहीं तो लोग.....'
'समझने की कोशिश क्यों नहीं करते गोपाल। विवाह न करने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। गोपाल, तुम तो मुझे जानते हो। क्या तुम्हें हमारी मित्रता पर कोई.... ?'
गोपाल मारित की बात के बीच में ही बोल पड़ा.... 'नहीं मारित, तुम पर मुझे विश्वास ही नहीं नाज भी है। पर विवाह एक आदर्श प्रमाण है। और फिर.....' गोपाल कहता-कहता रुक गया। मारित उठी और गोपाल के सामने सोफे पर बैठते हुए बोली....
'विश्वसनीय संबंधों को प्रमाण की जरूरत नहीं। विवाह हुंह...विवाह के कागजी प्रमाण से रिश्ते गहरे नहीं हो जाते। गोपाल खुद के लिए जीना सीखो।'
पर गोपाल को यह बात समझ में नहीं आई कि आखिर मारित विवाह के लिए मना क्यों कर रही है। जबकि बच्चा चाहती थी?

गोपाल का माथा ठनका। सूत्र की खोज में व्यक्ति नए-नए विचारों को जन्म देता है। इन विचारों में माध्यम से उम्मीद की तलाश करता वह भविष्य को स्वर्णिम आकांक्षाओं के पुष्प अर्पण करना चाहता है। गोपाल विचारों में बुदबुदाया,
'आखिर क्या मोरल (आदर्श) है, मारित का, वह पूछकर ही रहेगा। दूसरे दिन गोपाल डेस्क पर खड़ा अपना काम करता जाता और द्वार की ओर देखता जाता। कुछ देर बाद मारित आई।
'क्या बात है। आज तुम बहुत उदास दिख रही हो?'
'हाँ, तुमसे कुछ बात करनी थी।'
'बस इतनी-सी बात, तुम्हारे लिए तो जान हाजिर है।'
'धन्यवाद! मैं बच्चा नहीं चाहती।'
मारित ने दबे स्वर में कहा। यह सुनते ही मानो गोपाल के पैरों से जमीन खिसक गई। थोड़ी देर वह अवाक् खड़ा रहा। मारित सर झुकाए बैठी थी। गोपाल की उदास आँखों में आँसू छलक आए। मारित से भी न रहा गया। दोनों एक-दूसरे की बाँहों में कुछ देर समाए रहे।

गोपाल ने मौन तोड़ते हुए जिज्ञासा रखी। 'मारित तुम्हारा यही आदर्श है? क्या दूसरे का साथ कर लिया?'
मारित यह सुनकर मानो तमतमा गई। पर उसने एक बार गोपाल की आँखों की ओर देखा। मौन रही। गोपाल मारित के मौन को नहीं जान सका। ऐसा लग रहा था कि मारित के मौन में कोई तूफान छिपा हो। गोपाल अपने प्रश्नों का उत्तर चाहता था जो केवल मारित दे सकती थी।
गोपाल आग-बबूला होने लगा, उसने पुनः तेज स्वर में कहा, 'तुम क्या जानो चरित्र क्या होता है। पश्चिम की लड़की हो? तुम्हारा क्या भरोसा? कभी इधर-कभी उधर।'
'मैं भी अच्छी तरह जानती हूँ तुम प्रवासियों का मिथ्या भरा चरित्र। मेरी जबान मत खुलवाओ मेरे प्रिय।' मारित फफक पड़ी थी।
'गाली मैं नहीं देती वरन् तुम लोगों ने भारतीय संस्कृति को बदनाम किया है।' मारित ने अपनी आँखें पोंछ लीं।
'क्या बकवास करती हो।'
'मैं सच कह रही हूँ प्रिय गोपाल! मैं नहीं चाहती कि मेरा बच्चा बिना पिता के साये में पले।'
'कैसी ढोंग भरी बातें कर रही हो मारित, पहले तुम्हें शादी बिना बच्चा चाहिए था और जब मैं शादी करना चाहता हूँ, तुम्हारे बच्चे को पिता का प्यार देना चाहता हूँ। और तुम कहती हो कि मैं न तो शादी करूँगी और न ही बच्चा चाहिए। ओह, माई गाड।'

'फिर क्या बात है।' गोपाल ने मारित का हाथ अपने हाथों में ले लिया। गोपाल का स्वर धीमा हो गया था।
'जानते हो गोपाल, मेरी बहन सिगरीद के तीन बच्चे हैं। और उन बच्चों का पिता कौन था। एक प्रवासी। जब तक उस मेरी बहन के क्रूर पति को नार्विजन अच्छी तरह सीखनी थी। पढ़ाई में नार्विजन भाषा की सहायता की जरूरत थी। उसे आर्थिक जरूरत थी, तब तक तो वह मेरी बहन के साथ रहा, पर जैसे ही वह नौकरी करने लगा। सुव्यवस्थित हो गया, उसने मेरी बहन को छोड़ दिया। जानते हो मेरी बहन के पति के मित्र क्या कहते थे, मेरी बहन के बारे में?'

'क्या?' गोपाल की आँखें इस करुण-कथा से भर आई थीं। 'वे कहते थे सिगरीद बिलकुल प्रवासी औरत की तरह है। बहुत ध्यान रखती है पति का। पर....' मारित फफक पड़ी थी। उसकी बहन के अहसास का दर्द उसके सीने में भी था। गोपाल मारित की करुण-कथा सुनकर द्रवित हो उठा। अपनी खुशी के लिए आदमी न जाने कौन-कौन से यत्न करता है। कही उसके सतत् प्रयासों से उसका जीवन चमक उठे तथा उसका भाग्य महक उठे। कभी-कभी अनचाही चीजों से अनचाहा प्रेम उसकी विवशता नहीं चाहता है। इस चाहत में आदमी रंग-बिरंगे आशायी महल बनाता है। गोपाल इसका अपवाद न था।

मारित की बातें गोपाल के मन में हलचल बनी हुई थी।
'मैं बहुत शर्मिंदा हूँ मारित? मुझे नहीं मालूम था, वर्ना मैं ऐसा न कहता। पर मारित! सभी एक जैसे तो नहीं होते।' गोपाल ने बड़ी हिम्मत बाँध कर कहा।
'कोई बात नहीं गोपाल।' मारित का गला भर आया था। 'मारित! आदर्श भी कोई चीज है। मेरे अपने सिद्धांत है।'
मारित अचानक 'आदर्श' शब्द सुनकर कह उठी।
'ओह मूराल' (अरे आदर्श) !
'हाँ मारित आदर्श। यदि मैंने तुमसे विवाह किया तो कभी दूसरा विवाह नहीं करूँगा। तुम्हारे साथ ही सारा जीवन व्यतीत कर दूँगा।'
'गोपाल मैं आदर्श को शराब की तरह समझती हूँ। शराब थोड़ी पियो तो आनंद और अधिक पियो तो बदहजमी या मदहोशी।'
मारित की आदर्श की परिभाषा गोपाल के मष्तिष्क में गूँजने लगी। गोपाल मारित की नीली आँखों में निहार रहा था। और मारित खुली खिड़की से झाँकते नीले आकाश को।

२३ दिसंबर २०१३

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