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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
संयुक्त अरब इमारात से पूर्णिमा वर्मन की कहानी- 'उसकी दीवाली'


नंदिता त्रिवेदी जब 'संस्कृति' पर पहुँची तब तक शोरूम खुल चुका था।
संस्कृति यानि नंदिता त्रिवेदी का बुटीक जिसे वह पिछले दो सालों से चला रही है। सामने शोरूम है और पीछे है वर्कशॉप जहाँ कारीगर सिलाई और कढ़ाई का काम करते हैं।

नंदिता ने देखा- सफ़ाई का काम पूरा हो चुका था। वर्कशॉप का दरवाज़ा खुला था। अंदर दिखती छहों मशीने चालू हो चुकी थीं। रज़िया तुरपाई की गद्दी पर जम गई थी और जिया व लीला अपने-अपने फ्रेम में कसीदे काढ़ने लगी थीं। काउंटर पर ऊँचे स्टूल पर बैठी सुधा चाय की चुस्कियाँ ले रही थी। नंदिता की आहट पाकर वह खड़ी हो गई। नंदिता ने पर्स काउंटर के नीचे वाली दराज़ में रख कर ताला लगाया और सुधा से आज तैयार हो जाने वाले कपड़ों की सूची निकालने को कहा।

कितने कपड़े तैयार हो गए हैं और कितने बाकी हैं यह जाँच करने के लिए नंदिता ने सूची से मिलान शुरू कर दिया। सुधा ने चाय को जल्दी से ख़तम किया और काम में सहायता करने लगी।
"मिसेज़ सेठ के सूट?"
"प्रेस में हैं।"
"दोनों सूट?"
"हाँ।"
"चुन्नियाँ पीको हो गईं?"
"नहीं, अभी मैं बैठूँगी पीको मशीन पर. . ."
नंदिता ने लाल निशान लगा दिया। लाल निशान यानि दोपहर को २ बजे इन कपड़ों की चेकिंग फिर से करनी है।
"निशा महाजन का सूट?"
"कुर्ता मेहरून प्रेस कर रही है। सलवार और चुन्नी पैक हो गए।"
"रीना की फ्रॉक पैक हो गई?"
"पैक हो गई।"
नंदिता ने लिफ़ाफ़े को ठीक से जाँचा। रसीद पर से कपड़े और डिज़ायन का मिलान किया और लिफ़ाफ़े को स्टैपलर से बंद करते हुए रसीद की गुलाबी चिट को उसके साथ नत्थी करके डिलवरी वाले शेल्फ़ में रख दिया।
"याद है फॉल और पीको की सैंतीस साड़ियाँ हैं? शाम पाँच बजे से पहले पैक हो जानी चाहिए।"
"हाँ, मैं अभी देखती हूँ मैचिंग धागे, आप फ़िक्र न करें, एक घंटे में काम पूरा कर दूँगी। फॉल सबमें लग कर आ गए हैं।" सुधा ने कहा और नंदिता ने सैंतीस साड़ियों वाली लिस्ट को पीछे कर दिया।
रोज़ यह काम नंदिता खुद करती है। आज काम एक घंटा पहले शुरू हो गया है। कल शोरूम बंद करते-करते रात के बारह बज गए थे। बाज़ार में खूब चहल-पहल थी। नंदिता को सोते-सोते एक बज गए। हर बार होली दिवाली पर ऐसा ही होता है। काम की बाढ, कारीगरों के लिए पैसे बनाने का समय और नंदिता के लिए?
"नमस्ते दीदी, दीपावली शुभ हो!" साबरी जल्दी-जल्दी अपना बुर्का लपेटने लगी,
"नमस्ते, तुम्हें भी दिवाली मुबारक। आज काम ज़्यादा है और तुम अभी आ रही हो?"
"हाँ दीदी, कल राशन की दूकान से चीनी मिल गई थी सोचा इसके बदले में चीनी के खिलौने ख़रीद लूँ। दूकान पर काफ़ी भीड़ थी सो पहली बस छूट गई। लेट मत लगाना दीदी।"
"ठीक है।" नंदिता ने कहा, "मालूम है ना कि छुट्टी के बाद वाले दिन के कपड़े भी आज ही तैयार हो जाने हैं।"
"हाँ दीदी, अभी निपटा देती हूँ," कह कर साबरी जल्दी-जल्दी अंदर गई पर सुधा को चाय भेजने का इशारा करती गई।
सुधा चाय वाले को फ़ोन करने लगी तो नंदिता ने डायरी में देखा कि आज कुल तैंतालीस पैकेट दिए जाने हैं, पूरी शेल्फ़ खाली हो जानी चाहिए। छुट्टी के बाद जब बुटीक खुलेगा तब कपड़ों और गोटा किनारियों का एक बड़ा बिल चुकता करना होगा। वह जानती है कि आज कोई कारीगर शाम पाँच बजे के बाद नहीं रुकेगा। सब कुछ जल्दी से जल्दी पूरा हो जाए इसीलिए सबको सुबह आठ बजे बुला लिया गया था।

आम दिनों में वर्कशॉप का काम नौ बजे शुरू होता है पर आज का दिन विशेष है। सबको दिवाली के कपड़े चाहिए। उसके नियमित ग्राहक जो आख़िरी मौके पर कपड़े लाते हैं उन्हें भी कपड़े समय पर ही तैयार कर के देने होते हैं। जो कपड़े देते समय विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं वही अगर समय पर कपड़ा तैयार न हो तो कितना भयंकर रूप धारण करते हैं यह नंदिता ठीक से जानती है। वह थोड़ा पहले आ जाती तो अभी तक कुछ ज़्यादा काम हो गया होता पर हो नहीं सका। बेटी को उठा कर तैयार करते, नाश्ता कराते और उसे माँ के घर छोड़ कर आते वही समय हो गया।
फिर बाहर निकलते ही पड़ोस की भटनागर आँटी ने टोक दिया, "बेटा घर की चाबी दे कर जाना। पता नहीं आज लौटते समय तुम्हें कितनी देर हो जाए।"
पाँच मिनट और लग गए उसे दूसरी चाभी ढूँढ़ते।

उसे बिट्टू पर दया भी आती है। बेचारी माँ के घर सो गई थी। उसे सोते में उठा कर घर लाई। रास्ते में बिट्टू सोती-जागती रही। घर में बारह बजे सुलाया और सुबह सात बजे ही उठा दिया। बिट्टू भी इस जीवन की आदी हो गई है पर फिर भी कभी-कभी अनमनी-सी हो जाती है।

राजीव त्रिवेदी यानि, नंदिता का पति दौरे पर है। वह आज लौटने वाला है, पर किस समय आ रहा है इसका पता नंदिता को नहीं है। शायद वह सीधे बुटीक पर आ जाए। भगवान करे आ जाए नंदिता ने सोचा। कारीगरों के ओवर टाइम का भुगतान आज ही करना होगा। यह एक मुसीबत वाला काम है, क्यों कि इस बार दिवाली के साथ ही पगार का दिन भी है। तेरह कारीगरों की उपस्थिति का हिसाब रखते हुए पगार का हिसाब करना, ओवर टाइम और घर पर ले जाकर तैयार किए गए कपड़ों के हिसाब में उसको जोड़ना और कारीगरों को ठीक से सारे हिसाब समझा कर पैसा देना एक बड़ी मुश्किल है। हमेशा झिकझिक हो जाती है। आज सुबह जल्दी उठकर उसने सब हिसाब जोड़ कर अलग-अलग लिफ़ाफ़े बनाए हैं। सबमें उनकी उपस्थितियों का ब्यौरा और ओवर टाइम अलग काग़ज़ पर ठीक से लिख कर रखा है फिर भी तेरह कारीगरों का एक साथ सामना करना मज़ाक नहीं, और आज तो सबको दीपावली के उपहार भी देने होंगे। स्टील के थाल और मिठाई के डब्बे।

नंदिता को याद आ गया,
"सुधा, बद्रीनाथ रामप्रसाद के यहाँ से थाल आ गए?"
"जी दीदी, रसीद ऊपर वाली दराज में रखी है।"
"थाल कहाँ रखे?"
"सबके अलग-अलग साइज़ के हैं न इसलिए मैंने कबर्ड में ताला लगा कर रखे हैं। वर्ना सब शिकायत करने लग जाएँगे।"
"और मिठाई के डब्बे?"
"चंद्रकला स्वीट हाऊस वाले खुद ले कर आएँगे दोपहर में दो बजे। पैसे मैंने दे दिए हैं। उसकी रसीद भी वहीं है।" सुधा ने जवाब दिया।
"दीदी बिट्टू की फ्रॉक इस डिब्बे में पैक कर के रखी है। घर जाते समय याद से ले जाइएगा। आपका ब्लाउज़ भी साथ में है। साड़ी फॉल लग कर आ गई है पिको कर के सालिहा अभी साथ में पैक कर देगी।" सुधा ने कहा।
"तुम्हारा सूट तो सिल गया न सुधा?"
"हाँ दीदी, इस बार तो १५ दिन पहले सिलवा कर रखा है। वर्ना आख़िरी समय पर कस्टमर का काम करें या अपना।"
"अच्छा किया सुधा।" नंदिता ने कहा।

दस बज चुके थे चाय वाला दो बड़े छींकों में गिलास फँसा कर गरम-गरम चाय ले आया। नंदिता ने साथ पड़े ऊँचे स्टूल पर बैठ कर आज दिए जाने वाले कपड़ों की सूची को चाय के साथ आगे बढ़ाया ही था कि हिंजड़ों का एक झुंड शोर मचाता हुआ शापिंग प्लाज़ा में आ गया।
'सज रही गली मेरी अम्मा चुनर गोटे में'
यह तीज-त्योहारों पर सदा की रीत है। आजकल ये लोग भी फ़िल्मी गीतों के प्रेमी हो गए हैं। पिछली बार यही बात उसने एक हिजड़े से कह दी थी तो सजा-सजाया वह मटक कर बोला था, "अए बीबी ऐसा न कहो सच तो ऐ है कि फ़िलम वाले लोग हमारे गानों से कमाई कर रहे हैं।"

गाना किसका है यह तर्क़ की बात हो सकती है पर बोल सच हैं। इंदिरानगर की इस चौड़ी सड़क के दोनों फुटपाथ चुनरी और गोटे से सजी दूकानों से पट गए हैं। इन अस्थाई दूकानों की शोभा देखते ही बनती है। दूकानों पर लक्ष्मी-गणेश हैं। मिट्टी के खिलौने हैं, पटाके फुलझड़ियाँ हैं, बिजली की झालरें हैं, चमचमाते हुए पीतल और स्टील के बरतन हैं, लावा-लाई और मीठे खिलौने हैं, सजावटी सामान हैं और पूजा के सामान भी। लोगों की भीड़ है और ग्रामोफ़ोन रेकार्डों का शोर, जो धनतेरस से ही शुरू हो जाता है। मिठाई की दूकानों ने खूब आगे तक सीढ़ीनुमा आधार बना कर मिठाइयाँ सजा रखी हैं। जबतक नंदिता ने शोरूम नहीं खोला था नंदिता भी इनका हिस्सा थी। बिट्टू की उँगली पकड़ कर हर रोज़ यहाँ घूमती थी त्योहार में। भले ही ख़रीदारी इतनी नहीं करती थी। पर अब?

राजीव दौरे पर, बिट्टू माँ के यहाँ, वह शो रूम में। किस्तों पर है यह शोरूम। शॉपिंग प्लाज़ा नाम की इस तीन मंज़िली इमारत में बेसमेंट भी है। नंदिता का शोरूम बेसमेंट में है। घर और दूकान दोनों ठीक से चलें इसके लिए तीसरी मंज़िल पर एक फ्लैट भी बुक किया है। सब कुछ किस्तों में। एक दिन अपना हो जाएगा इसकी प्रतीक्षा में। कभी-कभी ऐसे अवसरों पर नंदिता को लगता है कि इतना समय और इतनी मेहनत का क्या सचमुच कोई फ़ायदा है?

हिजड़ों की टोली 'संस्कृति' तक पहुँच गई। वे दिवाली गाने लगे थे
'आए राम अवध में दिवाली मची. . .
इंदिरा नगर में दिवाली मची'
उनमें से एक ने अपना मुँह ऊपर उठाया बुटीक का बोर्ड पढ़ा और नई पंक्ति रच दी-
'लौटे राम अवध में
संस्कृति में दिवाली मची'
नंदिता मुस्करा दी और हमेशा की तरह दस रुपए का नोट उनकी तरफ़ बढ़ा दिया था। उनमें एक बलाएँ लेते हुए उँगलियों को कान पर मोड़ते हुए बोला, "नज़र न लगे क्या मुस्कान है। अब तो काम बढ़ गया है, दो-दो दुकानें कर ली हैं दुआएँ लो बिटिया दुआएँ, काम और बढ़ता जाएगा। इस बार सौ रुपये से कम नहीं लेंगे। राजीव इन सबको समझाने बुझाने में होशियार है पर नंदिता के बस का यह सब नहीं, उसने चुपचाप सौ का नोट निकाला और उनके हवाले कर दिया। गल्ले में नोट हैं, पर शाम तक देने वाले कपड़ों और अगले हफ़्ते जिन बड़े भुगतानों को किया जाना है, उनके विषय में सोच कर नंदिता अव्यवस्थित-सी है।

राजीव की नौकरी अच्छी है पर प्राइवेट नौकरियों में सुरक्षा का क्या भरोसा? तीन साल पहले एक ही साल में राजीव को चार नौकरियाँ बदलनी पड़ीं थीं। उसी साल घबरा कर यह बुटीक खोल दिया था। छे महीने बाद जा कर कहीं उसे अपनी पसंद की नौकरी मिल सकी थी। तबसे संस्कृति नंदिता के जीवन का हिस्सा बन गया है। पास में ही बिट्टू का स्कूल है। वह काफ़ी सहूलियत वाली बात है।
रमा का फ़ोन आया,
"मेरे लहंगे वाला ब्लाउज़ तैयार कर दिया? शाम को क्लार्क अवध में गाला इवनिंग में वो ही पहनना है। सोचा फ़ोन कर के पूछ लूँ अगर सीधे पहुँची और तैयार न हुआ तो बड़ा समय बरबाद हो जाएगा। तेरे यहाँ तो भीड़ पटी होगी इस समय?"

"इस समय तो नहीं है रमा पर दो घंटे बाद शुरू हो जाएगी तू आजा अपने कपड़े लेने। नया ज़रदोज़ी वाला सूट भी तैयार हो गया है साथ में।"
"नहीं, मैं तो नहीं आ सकती अभी मेंहदी लगा रही हूँ । ड्राइवर को भेजूँगी, तू सूट दे देना पैसे बाद में दूँगी। तुझे मेंहदी लगाना है तो साथ में ही आ जाना, सारे दिन के लिए बुक किया है मेंहदी वाली को।"
"अभी आज के दिन कैसे आऊँगी रमा। फिर कभी मिलूँगी। दीपावली शुभ हो और शाम की गाला ईवनिंग भी।" कह कर नंदिता ने फ़ोन बंद किया।

पिछले दो साल में मेंहदी-वेंहदी के सब शौक ख़तम हो गए है नंदिता के। बँध कर रह गई है इस काम से। शो रूम दस बजे खुलता है पर वर्कशॉप में काम सुबह नौ बजे शुरू हो जाता है, इसलिए नंदिता को भी सुबह नौ बजे से पहले यहाँ पहुँच जाना होता है। शाम को पाँच बजे कारीगरों के चले जाने पर वर्कशॉप तो बंद हो जाती है मगर शो रूम रात के नौ तक खुला रहता है। इस तरह सुबह नौ बजे से रात के नौ बजे तक पूरी बारह घंटे की लगातार ड्यूटी है उसकी। यही नहीं ड्यूटी शुरू करने से पहले और ख़तम करने के बाद भी हज़ारों काम होते हैं। राजीव दौरे पर हो तो उससे भी ज़्यादा। सुबह मोटर पंप चला कर ऊपर की टंकी में पानी भरना, खाना पकाना, रसोई साफ़ करना और एक घंटे बाद मोटर के स्विच को बंद करना। एक दिन तो पंप का स्विच चालू कर के उसे बंद करना ही भूल गई थी। पड़ोस से भटनागर आँटी का फ़ोन आया, ''नंदिता घर की चाभी देकर जाया करो, पंप बंद करना भूल गई हो पानी ऊपर से सड़क पर गिर रहा है।''

भटनागर आँटी के भाई का ही घर है जिसमें वह रहती है किराए पर। एक हिस्से में वह रहती है और एक हिस्सा बंद रहता है जब भटनागर आँटी के भाई-भाभी आते हैं तब उसी में रहते हैं। सुबह काम कर के जाने वाली मेहरी नंदिता के पास पिछले तीन महीने से नहीं है। सामने के बरामदे तक में झाड़ू लगाने का समय नहीं मिल रहा। पिछले छे दिन से राजीव भी दौरे पर है, सोचा था कि नरक चौदस पर ज़रूर झाड़ू लगा देगी पर आज सुबह तक धूल भरी थी वहाँ। लॉन की घास अच्छी हरी हो रही है पर उसके सामने भी आँगन जैसे हिस्से पर धूल-धक्कड़ ही पड़ा था सुबह। सालिहा को भेज सकती है बाहर की सफ़ाई के लिए पर आज तो काम इतना है कि...

काउंटर पर ग्राहक आने लगे हैं। पैकेट तैयार रखे हैं नंदिता पकड़ाती जा रही है। गल्ले की दराज़ में नोट इकठ्ठे हो रहे हैं। अंदाज़न साढ़े पाँच हज़ार तक का भुगतान होना है अगले हफ़्ते। नंदिता को अंदाज़ हो रहा है कि तीन हज़ार तक जमा हो चुके होंगे। ग्राहकों की भीड़ है, महिलाओं और बच्चों का हुजूम है, सबके परिवार साथ में हैं, हाथ में मिठाइयों के डब्बे हैं, उपहारों के पैकेट हैं, त्योहार की सुगबुगाहट है, बच्चों की फ़रमाइशें हैं और हर तरफ़ से बिखरती हुई शुभकामनाएँ-
''शुभ दीपावली शुभ दीपावली!!''
"धन्यवाद, आपको भी. . ."
इन सबके साथ जारी हैं ट्रायल रूम में फिटिंग की शिकायत "यहाँ पर जो सिलवट आ रही है हटाया नहीं जा सकता इसे?"
"ज़रूर, अभी हो जाएगा।"
नंदिता ने पिन लगा कर सिलवट वाली जगह पर निशान डाला और सुधा को समझाया कि इसे कैसे दूर किया जाय। सुधा कुर्ता ले कर अंदर गई। नंदिता फिर काउंटर पर हाज़िर हो गई बड़ी भीड़ के सामने। सुधा ट्रायल रूम वाली ग्राहक को समझाने लगी कि परिधान सुधार कर हाज़िर करने में कुछ समय लगेगा, तब तक इंतज़ार करना होगा। ट्रायल रूम वाली ग्राहक बात समझ कर अगली दूकान पर समय बिताने चल दी।

अगली दूकान रेशम सान्याल की है। नकली गहने, मेकअप और दूसरे बहुत-सी तरह के प्रसाधानों की दूकान। रेशमा भी आज तीन बजे दूकान बंद कर के जा रही है। काली मंडप में जाने से पहले उसे ब्यूटी पार्लर जो जाना है। पर नंदिता का काम वैसा नहीं है। जबतक सारे ग्राहक कपड़े नहीं ले जाते उसको यहीं रुकना है। इसके बाद घर जाना, थकान उतारना और दिवाली पर ख़ास क्या कार्यक्रम है वह कुछ तय नहीं है अभी तक।

लंच टाइम ख़त्म हो चुका है, कारीगर काम पर लग गए हैं। पीको वाली सारी साड़ियाँ और चुन्नियाँ बन गई हैं। सालिहा ने पीको मशीन को ढँक दिया है। दो बजे वाली चेकिंग शुरू हो गई है। नंदिता पैकेटों का रसीद से मिलानकर नंबर वाली गुलाबी चिट के साथ स्टैपल कर रही है। सुधा खुले हुए थानों को तहा रही है। अभी तक राजीव को आ जाना चाहिए था। अगर कारीगरों को पगार बाँटनी है और उनकी छुट्टी पाँच बजे करनी है तो तीन बजे तक काम शुरू हो जाना चाहिए। कल परसों दो दिन छुट्टी रहेगी इसलिए जिस दिन शोरूम खुलेगा उस दिन के कपड़े भी आज ही पूरे कर के रख देने होंगे।

"आज का काम पूरा हो गया है दीदी," सुधा ने बताया, फिर पूछा, "भैया आए?"
"अभी तो नहीं, आते होंगे," नंदिता ने कहा, "अगले दिन जिस दिन काम खुलेगा उस दिन का सब काम पैक हो गया?"
"वो कुछ बाकी है अभी, जारी है। गणेशलक्ष्मी सजा दें? भैया तीन बजे पूजा कर के प्रसाद बाँट देंगे हम सबको?"
"हाँ, तीन बजे तक सब तैयार तो कर ही देना चाहिए। और हाँ दूसरे दिन वाले पैकेट अंदर ही रखना, यहाँ मत लाना।"
"रज़िया और सुधा पूजा की तैयारी कर रही हैं। मास्टर जी का काम ख़त्म हो गया है, वो बाहर बीड़ी पीने गए हैं।"
नंदिता ग्राहकों को निबटा रही है पर उसकी निगाहें बेसमेंट की सीढ़ियों पर लगी हैं और कान फ़ोन पर। चैन नहीं पड़ा तो घर फ़ोन मिलाया, कोई फ़ोन नहीं उठा रहा। माँ को फ़ोन कर के पूछा,"राजीव आए माँ?"
"नहीं, अभी तो नहीं पर सुबह फ़ोन कर के बताया था कि जैसा कार्यक्रम था उसी समय से पहुँच रहा है। ट्रेन लेट होगी पहुँचता होगा।"
"ठीक है, बिट्टू क्या कर रही है?"
"नाना जी के साथ बाज़ार गई है फुलझड़ियाँ लेने।"
"ठीक है माँ, राजीव वहाँ पहुँचे तो तुरंत फ़ोन करने को कहना।" नंदिता ने फ़ोन रख कर देखा कि सिर्फ़ सात पैकेट बचे हैं, बाकी सब जा चुके हैं।
सुधा आकर बोली, "दीदी, अंदर जा कर देखिए, पूजा का सब ठीक हो गया या नहीं। मैं काउंटर सँभालती हूँ।"
नंदिता ने अंदर जा कर देखा- पूजा सजी हुई है। बस दीपक जलाने भर की कसर है।
"रंगोली किसने बनाई है?" नंदिता ने पूछा।
"आबिदा ने," किसी ने जवाब दिया। आबिदा इस साल नई आई है।
"बड़ी सुंदर रंगोली बनाई है आबिदा, कहाँ से सीखी?"
"बचपन से ही शौक ही दीदी, मैं ड्राइंग में अच्छी थी स्कूल में। जिस बुटीक में पहले काम करती थी उसमें भी मैं ही बनाती थी। आपके घर में डाल कर आऊँ?"
"हाँ, पर शायद बाहर की सफ़ाई नहीं हुई है, सुबह काफ़ी धूल थी।"
"अंदर पूजा में डालूँ?"
"नहीं, अंदर कोई पूजा नहीं है। बाहर के बरामदे को साफ़ कर के डाल दो। कैसे जाओगी?"
"सालिहा की साइकिल पर, उसे घर भी मालूम है।"
"ठीक है, पूजा जल्दी कर लेते हैं फिर जाना।"
"दीदी, मेरा हिसाब पहले कर देंगी?" रज़िया ने पूछा।
"अब तुम्हें क्या हो गया?"
"मैं जल्दी निकल गई तो पहली बस मिल जाएगी। पैसे अपनी बहन के घर रख कर फिर अपने घर जाऊँगी वर्ना मेरा भाई आज सब पैसों का जुआ खेल डालेगा। उसको पता नहीं चलना चाहिए कि मुझे आज पगार मिली है। वर्ना मेरा आदमी भी मुझ पर चिल्लाएगा।"
"दिवाली के दिन तो हिंदू जुआ खेलते हैं रज़िया।"
"लो अब जुआ खेलने में क्या हिंदू क्या मुसलमान, पिछली बार भी दिवाली पर पकड़ा गया था जुआ खेलते। पर मुझसे पैसे माँगता है और मेरे पास पैसे हुए तो मुझसे ना नहीं कहते बनता।"
"ठीक है, पहले तुम ही ले लेना।" नंदिता ने कहा।
"सुधा, जाली वाला शटर बंद कर दो और बाहर नोटिस लगा दो कि दुकान आधे घंटे को पूजा के लिए बंद है। आओ हम पूजा कर लें।"

पूजा छोटी-सी थी। धूप, दीप, मिठाई, रोली-अक्षत और फूल नंदिता ने चढ़ाए। सबने एक मिनट के लिए आँखें बंद कीं। काम बढ़ता रहे और अच्छा चले मन ही मन प्रार्थना की। अरुणा ने आरती की और सबको दी। थाली में सबने पैसे डाले। और फिर सुधा ने शोरूम की सारी बत्तियाँ जला दीं। सामने वाली झालर भी टिमटिमाने लगी।
नंदिता ने दराज में से सबके लिफ़ाफ़े निकाले और कहा, "सब लोग ठीक से देख लो जितने पैसे लिफ़ाफ़े पर लिखे हैं उतने हैं या नहीं। अंदर की पर्ची सँभाल कर रखना, अगर कुछ ठीक न लगे तो दो दिन बाद आकर भैया जी से बात कर लेना।" सबको मिठाई और बर्तन दिए गए। शुभकामनाओं का एक और दौर हो गया। कारीगर अपने-अपने घर चल दिए।
"मैं आपके घर पर रंगोली डालती हुई घर जाऊँगी," आबिदा ने कहा।
"देखना अगर गेट बंद हो तो फलाँग कर जाना होगा।"
सुधा ने वर्कशॉप में ताला लगा कर चाभी उसे पकड़ाई और वह भी चल दी।
नंदिता ने फिर घर फ़ोन किया।
दो घंटियाँ बजते ही उधर से आवाज़ आई, "हम आ गए भई आ गए. . ."
"कमाल है, आ कर फ़ोन तो करना था, मैं यहाँ परेशान हो रही हूँ।"
"बिलकुल अभी आया हूँ, एकदम गंदा हूँ अपने आँगन और बरामदे की तरह। सोचा कि पहले यह धोकर साफ़ कर दूँ फिर अपनी सफ़ाई करूँ, फिर सीधा शोरूम पर। देख कर दंग रह जाओगी क्या सफ़ाई की है, ऐसा चमचमा रहा है प्रवेशद्वार कि लक्ष्मी जी अंदर आए बिना नहीं जा सकेंगी।"
"अच्छा? शुरू हो गए मिठ्ठू मियाँ, शुक्रिया इतना ख़याल करने का," चैन की एक लंबी चादर नंदिता के चारों ओर तन गई।
"सालिहा और आबिदा पहुँचेंगी रंगोली डालने, उनको देख लेना ज़रा।"
"ठीक है, चाय बनाने ही जा रहा था उनके लिए भी बना लूँगा। आता हूँ फिर बिट्टू को लेकर, ठीक?"
"हाँ, ठीक।" नंदिता ने कहा और उसको लगा कि उसकी दिवाली अब शुरू हुई है।
राजीव बिट्टू के साथ जब शोरूम पर पहुँचा तब तक अँधेरा घिर आया था। बिट्टू अपनी फुलझड़ियाँ सीने से लगाए थी जो उसे अपने घर में छुटानी थीं। सात बज चुके थे। पर एक पैकेट अभी तक बचा हुआ था। उसका लेने वाला अभी तक आया नहीं था।
"अब, चलें?" राजीव ने पूछा।
"एक पैकेट बाकी है अभी, ज़रा फ़ोन कर के देखती हूँ कि कितनी देर में आ रहे हैं।" नंदिता ने गुलाबी चिट पर नाम पढ़ा रीना मैथ्यूज़, फ़ोन मिलाया। रीना उसकी पुरानी ग्राहक हैं। यहीं सरकारी अस्पताल में नर्स हैं। रीना मैथ्यूज़ ने बताया कि उसे स्पेशल ड्यूटी पर रुकना पड़ा है। वह आज कपड़े नहीं ले सकेगी बाद में लेगी।
नंदिता ने निश्चिंत होकर अपने और बिट्टू के कपड़ों के पैकेट उठाए, प्रसाद वाली मिठाई का डब्बा बाहर निकाल कर रखा। शटर बंद किया, सड़क पर आकर झालर से सजे अपने शोरूम को टिमटिमाते हुए एक नज़र देखा और वे सब निकल पड़े शहर की सैर को।
"माँ के यहाँ पूजा हो गई?"
"करने जा रहे थे वो लोग। और हाँ उन्होंने रात के खाने पर बुलाया है हमको। कुछ और लोगों को भी बुलाया है।"
"अच्छा।" नंदिता बिट्टू को शहर की दिवाली दिखाने में लगी थी।

सड़क के दोनों ओर मकानों में हलचल थी। अलग-अलग आकारों में सजी रोशनी की कतारों में शहर जीवंत हो उठा था। पटाखों, फुलझड़ियों और चकरियों से रास्ते रौशन हो रहे थे। हर तरफ़ बिखरते शोरगुल से मौसम में उत्सव छा गया था। लोग आ रहे थे, लोग जा रहे थे, बरामदों में कहकहे थे, मिठाइयों की खुशबू थी, नए कपड़ों की सरसराहट थी, कंदीले थीं। मुँडेरों पर दिये थे, मोमबत्तियाँ थीं, छोटे बल्बों की लड़ियाँ थीं और हर कहीं खुशी थी।
यह खुशी धीरे-धीरे नंदिता के दिल में समाने लगी। अपनी गली में स्कूटर मुड़ते ही उसे ध्यान आया,
"हमारा घर अँधेरा पड़ा होगा राजीव?"
नंदिता ने दूर से अपनी चार दीवारी को देखा, उसे विश्वास नहीं हुआ तो फिर से एक बार गर्दन ऊँची कर के देखा-
पूरी दीवार पर मोमबत्तियाँ टिमटिमा रहीं थीं। उसकी नज़र ऊपर गई-छत की मुंडेर भी सजी हुई थी। तब तक वे लोग घर पहुँच चुके थे। उसने नीचे देखा फ़र्श सचमुच चमक रहा था, आबिदा के बनाए गए आँगन के चौक पर एक बड़ा दिया रखा था। नंदिता ने दरवाज़ा खोला, अंदर बरामदे में भी दीयों की क़तार सजी थी। हर कमरे में एक दिया रखा हुआ था।
"भटनागर आँटी ने लगाए होंगे ये दिये।" राजीव ने कहा।
"हाँ, ऐसा ही लगता है। सुबह चाभी माँग रही थीं।"
"हमारे घर में दिवाली हो गई माँ," बिट्टू ताली बजाने लगी थी। "अब हम फुलझड़ी छुटाएँ?"
"नहीं पहले तैयार होकर नाना-नानी के घर चलना है।" राजीव ने कहा।
सबने नए कपड़े पहने और तैयार होकर नाना-नानी के घर पहुँचे, जहाँ त्योहार पहले से ही जगमगा रहा था। अभिवादन खुशी श़ुभकामनाओं का एक और दौर, लॉन में पड़ी कुर्सियाँ और अंदर सजी खाने की मेज़, खूब व्यस्त भाभी, अतिशबाज़ी में लगा भैया, हँसती खिलखिलाती महिलाएँ, ठहाके लगाते पुरुष, ज़ोर-ज़ोर से आदेश देते पापा और मिठाई का डिब्बा लिए सबका मुँह मीठा करवाती माँ।

नंदिता बाहर ही पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गई। दिन भर की सारी थकान आतिशबाज़ी के धुएँ की तरह अचानक घनी हुई और धीर-धीरे गायब होने लगी। आसमान में सितारे टिमटिमा रहे थे और ज़मीन पर दीये। नंदिता के चेहरे पर भी संतोष की आभा फैलने लगी। वह देर तक बूंदी के लड्डुओं की मिठास, दीयों के प्रकाश और रंगोली के रंगों में डूब कर दीपावली के साथ एकसार होती रही तब तक, जब तक माँ की पुकार ने उसे रात के खाने की याद नहीं दिला दी।

 

१ नवंबर २००५

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