वह घूरे जा रही थी अख़बार के उसी
पन्ने पर जहाँ इश्तहार छपा था, उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह इश्तहार उसके
लिए है।
यों अखबारों के इश्तहारों से शादियों के काम लेना उसके लिए नई बात नहीं थी। बेटी की
शादी के लिए इसी तरह से वर चुना गया था। यहाँ तक कि छोटे बेटे के लिए भी इश्तहार
निकलवाया था। वह तो यों हो गया कि इश्तहार से बात बनी नहीं और बेटा फिर अपनी पसंद
की ही फिरंगी दुल्हन ले आया। वही दुल्हन अब कहती थी कि "युअर मदर शुड हैव हर ओन
इन्डिपेंडेंट लाइफ़। मेरी माँ ने भी तो दूसरी शादी की है। इसमे कोई बड़ी बात नहीं।
यहाँ जो रहता है उसे यहीं के रीति-रिवाज़ के अनुसार चलना चाहिए।"
"ममी कुछ गलत तो नहीं कहती वह?" बेटा बीवी की हाँ में हाँ मिलाता है। इस सब का
नतीजा यह कि उसका रहने का कोई घर नहीं। बेटे के पास रहने का उसका हक छिन चुका है।
छिनना तो क्या कभी दिया ही नहीं गया। यही उम्मीद की कि माँ कभी-कभार मेहमान बनके तो
आ सकती है पर अपनी अकेली ज़िंदगी़ का बचा-खुचा हिस्सा उन्ही के सिरहाने काटने नहीं
आएँगी। बेटी के पास जाओ तो जवाई इस तरह घूरता है कि बेटा तो रखता नहीं अब हमारे सिर
पर बोझ क्यों उतार रही हो अपना। जवाई की तो ज़िम्मेदारी है नहीं कि सास की देखभाल
करें।
कहाँ जाए रत्ना? अब क्या करे?
अख़बार के खुले सफ़े पर फिर से निगाह चली जाती है!
कैसे कर सकी वह?
पर
उसी ने तो निकलवाया है कि एक साठ बरस की विधवा विवाह के लिए उपयुक्त पात्र खोज रही
है?
उपयुक्त पात्र से क्या मतलब? शायद वह खुद भी इस मामले में साफ़ नहीं?
हाँ कोई लूला-लंगड़ा न हो! इतना तो साफ़ कह सकती है?
पर कहना चाहती क्या है?
मन किससे मिलेगा? क्या इसे साफ़ तौर पर लिखा जा सकता है?
क्या ऐसा कोई होगा जिसके साथ रहा जा सके?
कहने को तो यही कहा जाता है और वही कहा है उसने, अधेड़ उम्र का, पंजाबी हो पर किसी
और प्रांत का भी हो सकता है, स्वस्थ, शराब न पीनेवाला, ऐब और बीमारियों से मुक्त,
विधुर तलाकशुदा या अविवाहित।
चाहे छोटी बहन और जीजे ने ही सुझाया था यह सब पता
नहीं गंभीर थे कि चस्के ले रहे थे मन ही मन तो वे दोनों भी हँसते ही होंगे पता नहीं
किस-किस रिश्तेदार से चाहे बातें भी बनाते फिरें! कितना छिछला, कितना छिछेरा
समझेंगे सब मन में उसे! वैसे तो जीजा-बहन बहुत मददगार बनते हैं स़लाह तो उन्हीं की
दी हुई थी, उसको उबारने का ही यत्न था पर अगर रत्ना खुद न हामी भरती तो किसी को
क्या पड़ी थी इश्तहार निकलवाने की, असली मर्ज़ी तो उसकी अपनी ही थी न, झुठलाएगी
कैसे इस बात को!
मर्ज़ी थी किस बात की यह वह शायद खुद भी नहीं
जानती। क्या सचमुच शादी रचाएगी किसी दूसरे पुरुष से? छि:छि:! कितनी घिनौनी बात है!
और रत्ना के रोंगटे भी खड़े हो जाते! भीतर कहीं कुछ नरम-सी कुम्हलायी हुई-सी पंखुरी
अंगड़ाई लेने लगती।
कहीं सचमुच? और नयी-नवेली दुल्हन-सी वह खुद से भी शर्मा जाती।
कोई पुरुष सचमुच उसे छुएगा? उसे अपनाएगा- उसका अपना होगा? बहुत अपना? अपने-सी बातें
करेगा? उसका चेहरा, उसका जिस्म, उसके हाथ, उसके होंठ, उसकी आवाज़, उसकी मुस्कान,
उसका सबकुछ इतना पास, इतना पहचाना? रत्ना सोचकर सिहर उठती है!
बच्चों की परवरिश में लगा उसका विधवा शरीर किसी
कुँवारी से भी ज़्यादा कुआँरा हो चुका है- क्यों कि वहाँ किसी के आने का इंतज़ार
नहीं, किसी के कभी न आने का मूक स्वीकार है। लकड़ी के गुलाब की तरह, जो एक बार
खिलकर खिला ही रहे चाहे कोई आए न आए, उसे तो खिलना ही है। उन सब को अपने खिलाव से
पोसना ही है जो उस पर निर्भर हैं। और अब तो कोई निर्भर नहीं, सब अपने-अपने ठिकाने
पर पहुँच चुके हैं, तो किसके लिए खिला रहे गुलाब?
क्या झर कर खत्म हो? या दे जाए किसी और को अपनी रंगत का सुख और पा जाए खुद उस सुख
का भोग?
घबरा जाती है रत्ना, उस भोग के नाम से भी।
साथ में पढ़े थे तस्वीरों के साथ भेजे गए
उम्मीदवारों के जवाब भी, उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि उनको गौर से देख कुछ सोचे,
फ़ैसला लेने की बात तो दूर रही।
भीतर एक ही बात चक्रवात की तरह घूम रही थी। आसमान में बैठे प्रताप कुमार क्या कह
रहे होंगे? क्या हो गया है उनकी पत्नी को, अब तक जो उनको अनथक पूजती रही, हमेशा
उनकी याद को सीने से लगा जीवन का हर कर्म सही ढंग से निभाती रही, आज इस पर तुल आई
है!
यह क्या हो गया है उनकी विधवा सुपत्नी को!
और रत्ना के भीतर जैसे कोई तूफ़ान घिरे जा रहा था।
यह हो कैसे गया? क्यों हो गया?
प्रताप की स्मृति को क्यों लांछित कर रही है
प़्रताप जी ने तो सिर्फ़ उसे प्यार दिया ब़हुत-बहुत प्यार दिया, यहाँ तक कि उसे
अपने परिवार वालों के बोझ से भी बचाए रखा, ननद आके साथ रहना चाहती थी, पैसे भेज दिए
पढ़ाई के लिए फ़िर दहेज के लिए भी, कहा कि रत्ना को कोई तकलीफ़ नहीं देगा।
प्यार दिया इसी से अभी तक कसक बनी ही हुई है च़ालीस बरस बीत गए उस विवाह को, आज भी
वह प्रताप की ही दुल्हन है।
सचमुच कोई शिकायतें तो याद ही नहीं, हैं भी तो प्यार के ही उलाहने, वर्ना
मौके-बेमौके पर दिल को छील जाने वाले उनकी अनुपस्थिति के अहसास!
तो फिर यह इश्तहार किसलिए?
कभी ऐसा कर पाएगी, उसने सोचा नहीं था,
लेकिन और कोई चारा बचा है सिवा निपट अकेलेपन के!
कोई तो उसका नहीं! तब वह क्यों किसी की परवाह करे!
विधवा हुई थी तो अकेली ही थी पर कभी उस तरह अकेला
होना महसूस नहीं हुआ। किसी न किसी को साथ देते पाया ही। फिर अपने बच्चे तो हरदम
घेरे ही रहते थे। अब उम्र का तकाज़ा, परदेस के रीतिरिवाज़, कहीं कुछ बात बन ही नहीं
रही, न किसी से शिकायत करने जैसी, न खुद के जीने का ही कोई बंदोबस्त।
तो वह ऐसा सिर्फ़ अपने बच्चों को, अपने रिश्तेदारों को सज़ा देने के लिए, सिर्फ़
सज़ा देने के लिए ही कर रही है! यह बताने के लिए कि तुम्हारे घर में मेरे लिए जगह
नहीं तो मेरे यहाँ भी तुम्हारी जगह तुम्हारा ख्य़ाल नहीं!
उन को तो अंदाज़ भी नहीं होगा?
अगर उनको अंदाज़ ही नहीं तो फिर
पर हाँ अगर सचमुच विवाह कर ले तो पता तो चलेगा ही त़ब चोट भी खाएँगे! क्या पता चोट
लगे ही न क़िसी को कुछ फ़र्क पड़े ही न!
तब इस कुकर्म का लाभ ही क्या?
लेकिन देखा जाए तो तब वह सुख से जी सकती है। कोई उसके नए-नवेले जीवन में तब
दखलअंदाज़ी तो नहीं करेगा न! न ही उसे किसी को कोई किफ़ायत देनी पड़ेगी!
और क्या सचमुच वह उनको चोट पहुँचाना चाहती है?
चोट पहुँचेगी कि नहीं पर उनका रास्ता साफ़ हो
जाएगा? अब रत्ना को आश्रय देने का बोझ कोई महसूस नहीं करेगा- चाहे भाई-बहन हों या
अपने बच्चे!
कोई नहीं कहेगा कि यहाँ तो सबको अपना-अपना इंतज़ाम करना होता है। किसी को दूसरे का
मुँह नहीं जोहना चाहिए।
सब कहेंगे अब किसी को रत्ना की खोजखबर लगाने की ज़रूरत नहीं, अपना मज़े से रह रही
है"- चाहे बेचारी का दम ही घुट रहा हो! किसी को क्या परवाह!
रत्ना ने हिम्मत करके एक लिफ़ाफ़ा खोला- अधेड़ से व्यक्ति की तस्वीर, खिचड़ी दाढ़ी
और गंज, वितृष्णा-सी हुई उस को, कहाँ उसके पति प्रताप और कहाँ यह बूढ़ा-खूसट?
प्रताप आज होते तो क्या इस तरह लगते? नहीं, कतई
नहीं, उनकी सज्जनता उनकी गरिमा तो आज भी वैसी ही होती। ठीक है, चेहरे पर उम्र आ भी
जाए पर व्यक्ति का व्यक्तित्व तो बदलता नहीं। यों उनका बूढ़ापन वह नहीं देख पाती।
अपने हर बिंब में वे युवा ही होते। उसी उम्र में छप गया था चेहरा जिस में गए थे।
उसके छत्तीस वर्ष के युवा प्रताप कुमार, बल्कि जो तस्वीर घर में लगी थी, वह साल भर
पहले की थी। वही चेहरा था अब रत्ना की आँखों में, तस्वीर वाला चेहरा, असल चेहरा तो
जाने कब का धुँधला-सा गया था।
बेटा भी तो लगभग उसी उम्र में था- कितना मिलता-जुलता है पापा से-
पर उससे क्या? वह भी कहाँ है अब रत्ना की दुनिया में? सब अपने-अपने दड़बे में घुसे
हैं, अपनी-अपनी परवाह, किसी दूसरे की खोज ख़बर नहीं, चिंता नहीं, जैसे कि दुनिया
सिर्फ़ उनके अपने गिर्द ही घूमती है, उसके बाहर कुछ नहीं।
अपने भाई अपनी बहनें, अपने बेटे, अपनी बेटियाँ- फिर भी इस बड़े से संसार में कोई
अपना नहीं- सबको लगता है कि कहीं रत्ना उनके साथ न रहने लग जाए! पता नहीं कितना
बड़ा मसला खड़ा हो जाएगा उनकी ज़िंदगियों में! रत्ना अब एक बहन या माँ नहीं एक मसला
थी- एक मुसीबत- एक समस्या- जिसका कोई हल नहीं था।
यह भी कोई शाप था क्या? इतनी उम्र में पति चल बसे
थे। अब बेटा दुनिया में होकर भी उससे दूर हो गया है! एक-एक करके सब का साथ छूटता
गया। बस यहीं तक साथ होना था! अब बस अपना अकेलापन, अपने आप का बोझ, कितनों के बोझ
ढोए? अब अपना बोझ ढोने के भी काबिल नहीं।
कोई साथ चाहिए- बोझ ढोने में मदद करनेवाला! क्या ऐसा भी कभी होता है?
रत्ना मेज़ पर पड़ी हर तस्वीर को ऐसे देख रही थी
जैसे किसी से चोरी कर रही हो- जबकि उसकी अपनी बेटी ने ही उसे सलाह दी थी कि, "ममी
आपको बुढ़ापे में अपना कोई साथी ढूँढ़ लेना चाहिए। यहाँ सब ऐसे ही करते हैं। मेरी
सहेली की माँ तो अस्सी की होने वाली हैं और वे छयासी साल के अपने एक पड़ोसी के साथ
जुड़ गई हैं। दोनों मज़े से रहते हैं, एक दूसरे का साथ भी रहता है एक दूसरे की
देखभाल भी करते हैं। वर्ना ममी पोते-पोतियों के पास कहाँ वक्त है।"
बहन ने अपना सुझाव दिया था, "बहनजी आपको अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से, अपने बूते पर
जीनी चाहिए। आपको भी कोई बॉयफ्रेंड बना लेना चाहिए। यहाँ तो बूढ़े-बूढ़े लोग शादी
करते हैं। यहाँ इसमें कोई बुराई नहीं मानी जाती। उल्टे लोग खुश ही होते हैं कि आपने
बुढ़ापे में भी ज़िंदगी को रसमय बना लिया। वर्ना भाई-बहनों के आसरे कहीं बुढ़ापा
कटता हैं? किसी के खाविंद को उज्र होगा तो किसी की बीवी को। भाईबहन शादी के बाद
कहाँ अपने रहते हैं? पहले अपने बीवी-बच्चों को ही सँवारेंगे आखिर।"
रत्ना के चेहरे पर विद्रूप की लहर-सी फैल गई। पागल
हे गई है बहन भी, मज़ाक सूझता है इसे।
फिर गुस्से में जैसे सारी दुनिया से बदला लेती हुई आवाज़ में कहा, "ठीक है तू ढूँढ़
दे मुझे आदमी, कर लूँगी मैं दूसरी शादी, बुढ़ापे की शादी।"
जीजा पूरे ज़ोर से बोला, "ठीक है मैं अखबार में इश्तहार दे दूँगा। फिर जवाब आएँगे
तो मिल लेना। मिलना आपको ही पड़ेगा। मुझे मत घसीटना इस झंझट में।"
"ठीक है तुम इश्तहार दे दो।"
रत्ना उत्साहित थी- एक खेल का सा मज़ा भी था और कुछ पा लेने की उम्मीद भी।
साथ ही भीतर कहीं रत्ना इतना उजड़ा इतना अकेला महसूस करती रही थी कि कहीं लगा कि यह
इलाज भी करके देख लिया जाए, शायद मन को कुछ सुकून मिल जाए!
सच यह था कि रत्ना के भीतर कहीं कोई दबी हुई ललक भी थी। ज़रा देखें तो क्या होता
है! कैसा पुरुष होगा? किस तरह का व्यक्ति रत्ना को पसंद करेगा? उम्र के इस पहलू पर
आकर किस तरह का मज़ा होता है?
और सबसे बड़ी बात तो यह कि यह अकेला बुढ़ापा काटना बड़ा दूभर है। बीमार हो जाओ तो
कोई पूछनेवाला नहीं!
पोते-पोतियों से रत्ना कुछ उम्मीद कर नहीं रही थी। यों भी अभी वे बहुत छोटे थे।
पर हैरानी तो अपने बेटे पर ही थी जिसका सारा धरम-करम अब उसकी औरत ही थी।
बेटी को भी अपने पति के मारे मुँह मोड़ लेना पड़ा।
और अगर वह सचमुच किसी दूसरे पुरुष के साथ रहने लगे
तो सब क्या इसे स्वीकार पाएँगे? ओह कितनी शर्म आएगी उन्हें। चाचे-ताए के आगे सबकी
नाक कट जाएगी। वे कहेंगे, "देखा दूसरा आदमी कर लिया है रत्ना ने।"
ओह कैसे सुनेगी लोगों की ऐसी बातें,
कैसे चोट पहुँचा सकती है अपनों को?
लेकिन रत्ना भी करे तो क्या? कैसे उठाए इस कभी न खत्म होने वाली ज़िंदगी का बोझ। जब
तक जीना है, जीना तो है ही। तब कैसे जीना है?
क्या यही एक सुविधाजनक रास्ता नही है? बच्चों-रिश्तेदारें की भी ज़िम्मेदारी खत्म
हो!
वह मेज़ पर सभी तस्वीरें फैलाने लगी- ज़्यादा नहीं- चार ही लोगों ने जवाब दिया था।
एक तलाकशुदा था बाकी दोनों की पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। एक उम्मीदवार तो अपने
बेटे के साथ रह रहा था और उम्मीद कर रहा था कि अगर रिश्ता बन जाए तो वह रत्ना के घर
में रहने चला आएगा। एक अमरीकी का खत भी था। वह भारत और पाकिस्तान रह चुका था और उसे
किसी हिंदुस्तानी औरत के मिलने और उसके साथ जीवन गुज़ारने में दिलचस्पी होगी। उसकी
यों तीन शादियाँ और तीन ही तलाक हो चुके थे। उसने यह भी लिखा था कि वह मानता है कि
पत्नी के रूप में एशियाई औरतें ज़्यादा कोमल, भावनामयी और सेवापरक होती हैं-
रत्ना ने मुँह बिचकाया, "साला सेवा करवाना चाहता है। अब मेरी सेवा करने वाली उम्र
नहीं। मैं तो अपनी सेवा करवाना चाहती हूँ- मुझे क्या पड़ी है कि साठ साल की उम्र
में यह दूसरी बीमारी पाल लूँ। इनके लिए खाना बनाओ, सफाइयाँ करो, आगे कम काम किया है
ज़िंदगी में जो एक और मुसीबत पालूँ?"
उसे दूसरे पुरुष के विचार मात्र से ही घबराहट उठने लगी,
"कैसा ज़माना आ गया है? रत्ना की माँ आज ज़िंदा होतीं तो क्या कहतीं- विधवा बेटी
दूसरी शादी कर रही है और वह भी साठ साल की उम्र में?
वह सचमुच अगर इन निवेदकों से मिली तो क्या सोचेगे
वे अपने मन में? कैसी औरत है जो इस उम्र में इश्तहार दे रही है- उसकी हेठी तो नहीं
होगी? उसको कमज़ोर चरित्र वाली तो नहीं समझा जाएगा? उसे याद है कि जब पंजाब में
कालेज में थी तो उसकी जो कोई सहेली भी मरदों में दिलचस्पी लेती थी उसे "लूज़
कैरेक्टर" कह दिया जाता था।
रत्ना को सोच के शर्म आने लगी- शायद उसे भी कोई "लूज कैरेक्टर" समझेगा- सेक्स की
भूखी समझेगा- जबकि ऐसी बात कतई नहीं- सारी उम्र तो प्रताप कुमार के नाम बिना
शारीरिक भोग के निकाल दी। अब भला क्योंकर ऐसा करेगी?
पर अकेलापन, यह निपट अकेलापन?
इसका क्या इलाज करे?
और मन फिर उड़ने लगा- "मुझे तो कोई घुमानेवाला पति चाहिए, जिसे देस घूमने का शौक
हो। जिसके पास गाड़ी हो और शौक भी और वे दोनों खूब दूर-दूर घूमने जाएँ, उसके कंधे
पर सिर रख रत्ना अपना सारा दुख भूल जाएगी। उसकी बाँहों का घेरा रत्ना को हर आपत्ति
से बचा लेगा। उसका मज़बूत हाथ जब रत्ना के हाथ को अपनी गिरफ्त में लेगा तो रत्ना की
हर फ़िक्र भाग जाएगी। वह ऐसा महसूस करेगी जैसे अचानक फिर से सारी दुनिया रंगभरी और
खुशनुमा हो गई है। बस तब रत्ना की सारी मुरादें पूरी हो जाएँगी और वह तब खुशी-खुशी
मर सकती है। वर्ना, वर्ना बहुत कुछ अधूरा अ़तृप्त रह जाएगा!"
पर उसके उस स्वयंवर के रचाव में एक भी वर उसे भला नहीं लगा। आने को अभी और भी जवाब
आ सकते थे। इश्तहार दुबारा भी दिया जा सकता था। पर एक वितृष्णा से रत्ना ने
तस्वीरों को परे धकेल दिया। "वॉट नानसेंस- ये क्या कर रही हूँ मैं"
उसकी सारी जीवन योजना तो बेटे की ज़िंदगी की
योजनाओं के ईद-गिर्द ही बनी थी? बीस में डाक्टर बन जाएगा। फिर दो साल रेज़ीडेंसी के
बाद शादी करेगी उसकी। इस बीच वह अपनी बैंक की नौकरी करती रहेगी। जब उसे रेजीडेंसी
खत्म करने के बाद ढंग की नौकरी मिल जाएगी तब वह भी बैंक से त्यागपत्र दे देगी। इस
बीच पोते-पोती भी आ जाएँगे। तब बेटे के पास रहने चली जाएगी।
ये योजनाएं माँ-बेटे ने साथ-साथ बनाईं थीं और सब कुछ योजना के अनुसार ही होता रहा
था। बस एक ही जगह गड़बड़ हुई।
गड़बड़ हुई तो सारी की सारी योजना ही खड्डे में पड़ गई!
जो कुछ भी माँ-बेटा चाहें वह तो ज़रूरी नहीं कि है- क्यों कि शादी वाले पड़ाव के
बाद से दो नहीं तीन की राय को म्यान में रखना वे दोनों भूल गए- बहू की भविष्य योजना
में रत्ना की शरीकी नहीं थी- सो अब सारा मसला यहीं आकर खटाई में पड़ गया था।
रत्ना पहले पति फिर हमेशा बच्चों के साथ ही रही।
अब क्या करे? किसी के तो साथ रहना है?
बेटियों के साथ रहना माँओं को मंज़ूर हो भी जाय तो
जवाइयों को रास नहीं आता। फिर दस्तूर तो यही रहा है कि बेटे के पास रहेगी माँ। कहाँ
गलती हो गई रत्ना से?
क्या कमी कर दी उसने, किस तरह बड़ा किया कि आज बेटा इतना पराया हो गया। सास-बहू के
रिश्तों के तनाव कोई नयी बात तो नहीं। सभी घरों में ऐसा होता है। पर इससे कोई माँ
को घर में नहीं रखता?
दूसरे रिश्तेदारों के यहाँ तो मिट्टी पलीद करवाने वाली ही बात है।
यह तो कोई तरीका न हुआ रहने का?
सारी उम्र तो हारी नहीं थी। लड़ती रही हालात से। अब एकदम पस्त-सी हो रही है। लगता
है जिसके लिए ज़िंदगी गुज़ार रही थी। अब उसकी ज़िंदगी का हिस्सा न होने पर सब कुछ
नि:सार हो गया है, एकदम निरर्थक!
और उस निरर्थकता में यह सार्थकता खोजी है रत्ना ने- एक दूसरे पुरुष का साथ!
एक विद्रूप, एक भीषण अट्टहास फैल गया था उसके आसपास।
अपने प्रति घृणा वितृष्णा से भरती जा रही थी वह।
यही सूझा था, बस आ गई दूसरों की बातों में। जो व्रत उम्र भर का था उसे यों ही
तोड़ने को तैयार हो गई। जब जवान थी तब तो शादी की नहीं। अब चली है अपना व्रत
तोड़ने! खिल्ली का सामान बनने। क्या कोई आत्मसम्मान नहीं उसका?
ऐसे लगा जैसे वह अपनी नीलामी कर रही है - एक लावारिस औरत हो गई है क़िसी से कुछ
लेना-देना नहीं। किसी से जवाबदेही नहीं।
लावारिस औरत जो लाचारी में आवारापन पर तुल गई है।
क्या बदला लेना चाह रही थी सब से? तुम औरों के हो
गए तो मैं भी किसी की हो जाऊँगी। बस यही तरीका रह गया है उसके पास? कोई अपना न रहा
तो यह अपनी किस्मत सही, पर यह तो ज़रूरी नहीं कि अपनों की कमी को इस तरह पूरा करे
वह।
यह सोच ही परेशान कर रही है रत्ना को कि कैसे कर पायी वह यह?
फिर एक अजीब-सा ख़याल आया था-
क्या यह इश्तहार ही भेज दे सब को? या झूठमूठ का शादी का कार्ड?
फिर जैसे सचेत हुई, नहीं, कितनी नागवार बात होगी?
पता नहीं क्या पागलपन-सा सवार हो रहा था रत्ना पर तू ने ऐसा क्यों, क्यों किया
रत्ना- प्रताप कुमार की रूह को भी कितनी तकलीफ़ पहुँच रही होगी! ऐसी अवमानना- ऐसा
अपमान!
अपने इकलौते कमरे के अपार्टमेंट में अचानक फफक-फफक कर रो रही थी रत्ना, अखबार की
तस्वीरों की चिंदियाँ-चिंदियाँ
किए जा रही थी। सिसकियों के बीच बड़बड़ाती
जाती,"देखो सब - देखो मेरा हाल- देखते क्यों नहीं? किस्मत ने मुझे इस हद तक ला
दिया, क्यों सब मौत की तरह खामोश हो गए है, किसी को मेरी ज़रूरत ही नहीं रही।
"अपने इस हाल के लिए किसको दोष दूँ मैं, बता न? किसको? किस्मत को या खुद को?"
सारे कमरे में अखबार की चिंदियाँ फैली हुई थीं और रत्ना ज़मीन पर उनके बीच घुटने पर
सिर टिकाए इस तरह बैठी हुई थी जैसे पहली बार विधवा हुई हो!
पहली बार अपने पति की मौत का मातम मना रही हो!
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