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लघु-कथा

लघुकथाओं के क्रम में इस माह
प्रस्तुत है- भारत से अंतरा करवड़े की लघुकथा-
पानी


जाड़े की रात और अलाव भी जोर नही पकड़ रहा था। खेत की रखवाली करते संतोष की आँखें पगड़ंडी पर लगी हुई थी। हमेशा की तरह गोरेलाल अब तक नही आया था। गर्मी पाने की लालच में आस पास श्वान इकट्ठे होने लगे थे।

"हम किसानों की भी क्या ज़िंदगी है रे संतोष, कल ही तो गोरेलाल कह रहा था।
"दिन भर बैल के जैसे जुते रहो और फसल आने को हो तब रात भर उल्लू जैसे जागते रहो।"
"सच्ची बात है, हमने भी कलम पकड़ना सही से सीख लिया होता तो हम भी टेबल कुर्सी लगाकर बैठते, चपरासी से पानी मँगवाते।"
"और पटवारी जैसे जमीन के मामले में रिश्वत खाते, है ना?"

पटवारी की बात याद करते ही संतोष की मुठ्ठियाँ तन गई, दाँत भिंच गये! एक तो पुश्तैनी जमीन डूब में आ गई थी, उसके मुआवजे के कागज पर दस्तखत के पाँच हजार ले लिये थे उसने। साल भर जूते घिसवाए अलग।
तभी उसे गोरेलाल आता दिखाई दिया। उसके साथ में कौन है, चाल तो जानी पहचानी है। संतोष के होश फाख्ता हो गये, इतनी रात गये पटवारी गोरेलाल के साथ उसी की ओर आ रहा है। अब और क्या चाहिये इसे! लाठी पर हाथ कस गया उसका।
आशा के विपरीत पटवारी ने हाथ जोड़कर माफी माँगी, लिये हुए रिश्वत के पैसे वापस करने का वादा किया और कल दफ्तर आकर कागज ले जाने को कहता रहा। संतोष कुछ कह पाता इससे पहले ही वह दोनो को छोड़कर चल दिया।
उसे जाता देखकर गोरेलाल ने ठहाका लगाया "क्यों दोस्त, देख ली भाड़े की स्याही से चलती कलम की ताकद?अपनी बातचीत और लेन देन को मैने तुम्हारे साथ रहकर इस फोन में रेकॉर्ड कर लिया था। कह दिया पटवारी को, हम तो सीधा जमीन से निकला पानी पीते हैं और उसी का उपजा अन्न खाते हैं, तुम्हारी तरह लोगों के जिगर फेफड़े काटकर खाना नही सीखा है।"
संतोष ने बिना कुछ कहे अलाव में लकड़ियाँ ड़ालनी शुरु कर दी, ज़मीन भले ही डूब गई थी लेकिन उसे तार गई थी, अब तो अलाव ही इतनी रोशनी दे रहा था कि डूबे सूरज की उसे कोई परवाह नही थी।
गोरेलाल ने बिना पानी में उतरे उसे तैरना सिखा दिया था...

१ दिसंबर २०२५

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