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लघु-कथा

लघुकथाओं के क्रम में इस माह प्रस्तुत है
भारत से मुक्ता पाठक की लघुकथा-
कागज का रावण


रीता बरामदे में बैठी कपड़ों की अलमारी समेट रही थी। हाथ में अचानक एक रंगीन कागज़ आ गया—जिस पर अधजला चेहरा बना था।
वह मुस्कुराई, "अरे! ये तो बिट्टू का बनाया हुआ रावण है… दस साल पहले का।"

बिट्टू अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई में हॉस्टल में है। उस साल दशहरे से हफ्ता भर पहले उसने गत्ते से एक छोटा-सा रावण बनाया था।
कहता था—"माँ, पुतले जलाने के लिए मोहल्ले के मैदान में भीड़ बहुत होती है। मैं अपना रावण घर की छत पर जलाऊँगा।
ताकि आप भी आराम से देख सकें।"

रीता की आँखें नम हो गईं। उस दिन छत पर खड़े होकर जब उसने बिट्टू को माचिस जलाते देखा था,
तो उसे लगा था कि उसके बेटे ने सचमुच रावण को नहीं,
अपने भीतर के डर और आलस्य को जलाया है।

आज मोहल्ले में फिर रावण दहन होगा,
पटाखे गूँजेंगे, लोग खुशी मनाएँगे—
पर रीता की निगाहें अलमारी से मिले उस कागज़ के रावण पर अटक गईं,
जिसमें अब भी बेटे की मासूम हँसी और बचपन की गर्माहट जिंदा थी।

१ सितंबर २०२५

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