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लघु-कथा

लघुकथाओं के क्रम में इस माह प्रस्तुत है
अंजु मेहता की लघुकथा-
गुलदस्ता


घर का कोना-कोना बार-बार जाकर उसे अपने आप में समेटने की कोशिश कर रही थी। घर छोड़ना क्या सचमुच इतना आसान है? जहाँ जीवन का क्षण-क्षण रोये-रोये में बसा हो, बहुत ही मुश्किल है पर हमें तो घर ही नही देश भी छोड़ना था। सबसे विदा लेली पर अपने पौधों से बिछड़ने की पीड़ा तिल-तिल घुटन पैंदा कर रही थी।

पति देव की नई नौकरी संयुक्त राष्ट्र अमीरात के शारजाह शहर में शुरू हुई। नया देश नया परिवेश सब कुछ नया-नया। नये देश से सामंजस्य, अपने छोटे से परिवार की देखभाल जैसी व्यस्तताओं  के बीच फूल-पौधों के लिये समय ही नहीं। दुनिया के कई देश घूमने के बाद संयुक्त राष्ट्र अमीरात जैसा साधन सम्पन्न, सुविधाजनक देश कोई और नही पाया पर रह-रहकर अपने घर के पेड़-पौधे उनपर लटकते फल, चहचहाती चिड़ियों का कलरव, रंभाती गाय,गरमियों में छत पर लेटकर तारों को गिनती रातें और घर को पेड़-पोंधों से सजाकर गुलदस्ते जैसा बनाकर रखना बहुत याद आते।

समय को दोहराते देर नहीं लगती, कल बेटी यह घर, यह देश छोड़ पढ़ाई के लिये यूरोप रवाना हो रही है। कल का दिन कैसा होगा उसके जाने के बाद व्याकुलता बढ़ रही थी। बेटी ने ड्राइवर सीट पर बैठकर गाड़ी सरपट दौड़ाते हुए पौधों की नर्सरी वाले स्थान पर रोका। मैडम ले जाइए --- जूही है, गुडहल है आदि-आदि। सुनकर मन को ताज़गी महसूस हुई। जल्दी से कुछ पौधे गाड़ी में रखती हूँ। बेटी गयी, पर पौंधे घर आ गये।

समय उनके साथ बीतने लगा। छोटी सी बालकनी जीवंत हो उठी- कार्तिक महीना चाँद का यौवन चाँदनी का साथ ऊपर से पछुवा... जूही के फुसफुसाने की आवाज़ आई, रात की रानी ने भी अपनी सुगंध पर गर्व महसूस कर अकड़ दिखाई, ठिगना चना वाह भई वाह, अलसी ने अपने सिर कलगी बाँधी, कड़वे करेले की बेल पीले फूलों से भर सबका स्वागत करती नज़र आई। लाल गुडहल की तो बात ही मत पूछो गुलाब संग मिल मस्त जोड़ी जो बना ली थी। सफ़ेद चम्पा ने चाँदनी ओढ़ अपनी खबसूरती को और बढा लिया था, हिलोरें लेती सदाबहार सबके बीच में अपनी जगह बनाने की कोशिश में लगी हुई थी। शांत लिली और पछुवा की थापों पर संगीत छेड़ती मालती --- सचमुच एक ख्याव जैसा प्रतीत हो रहा था लेकिन मेरे घर का एक छोटा सा कोना आज गुलदस्ता बन गया था।
फोन की घंटी बजी स्क्रीन पर बेटी का नंबर था।

१ दिसंबर २०२३

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