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लघु-कथा

लघुकथाओं के क्रम में इस माह प्रस्तुत है
संयुक्त अरब इमारात से नितिन उपाध्ये की लघुकथा- चूड़ियाँ


"रुक्मि आज तो चलेगी न?" गंगी ने खोली का पर्दा हटाकर पूछा। रात भर की जागी आँखों को उठाकर उसने गंगी की तरफ देखा और धीरे से सर हिला दिया।

गोविंद को गये अभी तीन दिन भी नही हुए थे। दिहाड़ी के काम से देर रात घर आते समय उसकी साईकिल पर क्यों एक बेकाबू ट्रक को प्यार आ गया था, भगवान ही जाने। अभी तक तो उसकी चिता भी ठंडी नही हुई होगी, पर घर का चूल्हा अधिक देर ठंडा नही रह सकता था। अभी तक तो आस पास की खोलियों से उसके लिए खाना आ रहा था, पर दो दिन से ज्यादा अपने पड़ोसी को खाना खिलाने की इच्छा तो महलों में रहने वालों को भी नही होती। ऊपर से उसकी बस्ती में तो किसी की यह हैसियत भी नही थी।

उसकी छोटी सी खोली में तीनों लोकों की दरिद्रता बेफिक्री से पैर पसार कर लेटी हुई थी और बची हुई जगह में दोनों बच्चें सो रहे थे। गोविन्द के रहते उसे कभी भी अपनी गरीबी पर रोना नहीं आया था, उसे लगता था की वह गोविन्द के दिल और घर की महारानी है। अपनी असहाय अवस्था आज उसे पहली बार इतनी तीक्ष्णता से चुभने लगी थी।

वह उठी, मुँह पर पानी के छींटे मारे, पल्लू से मुँह पोछते हुए दरवाजे से लटके हुए शीशे के टुकड़ें में देखकर अपने बाल ठीक किए और आदतन सिंदूर की डिबिया उठा ली। फिर जैसे मानो बिजली के नंगे तार को छू लिया हो, उसी तेजी से उसे वही छोड़कर वह अपनी टोकरी की तरफ़ मुड़ी। टोकरी के आसपास उसकी रानी कलर की चूडियों के टुकड़े पड़े थे, जो परसों इसी गंगी ने फोडी थी। गोविंद कितने चाव से दस दिन पहले ही लाया था।
"अरे, जल्दी चल, औरतें सुबह सुबह नहा धो कर आने लगी होंगी। महाद्वार के पास जगह नहीं मिली तो धंधा क्या ख़ाक होगा" गंगी बाहर से बड़बड़ाई।

टोकरी उठाकर बाहर आई तो उसे देख गंगी बोल पड़ी "अरी तेरे सूने माथे को देख कर सुहागनें देवी माँ के लिए सुहाग की चीजें तुझसे क्यों खरीदेंगी?" यह कहकर अपनी टोकरी से सिंदूर निकाल कर एक बड़ा सा टीका उसके सूने माथे पर बना दिया और उसी की टोकरी से सुहाग की हरी चूडियाँ निकाल कर उसकी दोनों कलाइयों में भर दी।

१ जून २०२३

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