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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
पूर्णिमा वर्मन
की लघुकथा- संजीवनी


आज होली थी। सुबह से घर बच्चों की किलकारियों से गूँज रहा था। बेटी कादंबिनी, उसके दोनों बच्चे और जवाँई आए हुए थे।
सभी को बहुत जोश था। मगर माँ का जोश बनाए रखने में साथ दे रही थी, पंद्रह बरस की घर की नौकरानी संजीवनी। वह न होती तो माँ अपने बेटी-जँवाई की मेहमान-नवाजी भला अकेले कैसे कर पाती। रसोई पकवान की खुश्बू से महक रही थी।

काम करते करते अचानक माँ ने संजीवनी से पूछा, "तूने अभी तक कादंबिनी दीदी को रंग लगाया कि नहीं।"
"नहीं लगाया माँ, मुझे उनसे डर लगता है।"
"डर ... किस बात का ...।"
"उस दिन वह मुझसे कह रही थीं न कि इस अनपढ़ लड़की का पढ़े लिखे जैसा नाम किसने रखा?"
"अच्छा तो तूने क्या जवाब दिया?"
"मैंने कहा माँ ने रखा।"
"फिर!"
"उन्होंने पूछा मेरी माँ ने या तेरी माँ ने।"
"तूने क्या कहा...।"
"मैंने आपकी तरफ इशारा करके कहा कि माँ ने। मैं काम जरूर करती हूँ। लेकिन आप मेरी भी माँ हो कि नहीं...।"
"हूँ न, यह भी कोई पूछने की बात है। ठीक कहा तूने। तू तो मेरी दवा और दुआ दोनों ही है।"

तभी कादंबिनी दौड़ती हुई आई। उसके हाथों में रंग की तश्तरी थी। बचपन की तरह आज भी आँगन में अल्पना सजाकर लौटी थी। सबको रंग लगाती जा रही थी।
"माँ! तुमने इसका नाम मेरे जैसा क्यों रख दिया?"
"तू दूर चली गयी न इसीलिये।'

कादंबिनी ने एक पल ठहर कर माँ का चेहरा देखा। फिर संजीवनी के गालों पर रंग पोत दिया।
"क्यों? मेरी अनुपस्थिति में तू मेरी छोटी बहन बन गयी? माँ पर अधिकार जमा लिया?"
कहते-कहते कादंबिनी के शब्द आँखों की नमी की तरह तरल हो गये। संजीवनी की भी आँखें छलक आईं। उसने गुलाल की एक छोटी-सी चुटकी उठाई और कादंबिनी के गाल पर एक रेखा खींच दी।

१ सितंबर २०१८

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