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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
अंतरा करवड़े
की लघुकथा- जवाब


“अरे विश्वास, ये तुम्हारा गाँव का जीवन देखकर तो सचमुच बड़ा अच्छा लग रहा है। मेरे बच्चों का तो कहना है कि विश्वास अंकल का रोज़ ही वीकेंड है।"
"लेकिन यहाँ शहर सी चकाचौंध कहाँ ?"
“इमारतें, चकाचौंध देखकर थक जाते हैं यार। असली ज़िंदगी तो तू ही जी रहा है। मैं भी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने के बाद अपने गाँव जाकर ही बसने का मन बना रहा हूँ।"
“वाकई, लेकिन शहर की प्रगति से दूर, यहाँ रहते हुए, तुम पीछे नहीं रह जाओगे दोस्त? जो सुविधा शहर में है, वो गाँव में कहाँ?”
“दोस्त, मैं गाँव में ज़रूर आरहा हूँ, लेकिन पिछड़ा बनकर नहीं। वैसे भी जब शहर में बनावट का दखल बढ़ जाता है, तब शुद्धता, जैविक, देसी और अपनी जड़ों के रूप में वहाँ व्यापार शुरू हो जाता है।"
"ठीक कहते हो, थका माँदा तुम जैसा शहरी भी तो मॉल की जगह खेत में ही खुशी पाता है।"
“बस एक बात से डरता हूँ विश्वास, क्या तुम्हारे बच्चे यहाँ खुश हैं? कल को तुम्हारे बच्चे यदि शहर में न रहने के तुम्हारे फैसले पर सवाल करेंगे तो?”
“उन्होंने सवाल किये थे, पिछले हफ्ते ही किये थे।"
“फिर?”
“इसीलिये तो तुम सभी को बुलाया है यहाँ, बच्चों को आईना दिखाने के लिये...”

१५ मार्च २०१७

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