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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
सीमा अग्रवाल की लघुकथा- अलग कमरा


दीपांकर का मन खुशी के रस में सराबोर था, जब वह स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा था तभी उसने माता-पिता को बात करते सुना कि वे उसके लिए अलग कमरे की व्यवस्था करने की बात सोच रहे हैं। अलग कमरा वाह ! मतलब उसका अलग बिस्तर, अलग कपड़ों की अलमारी, अलग किताबों और खिलौनों की अलमारी, और हाँ कंप्यूटर भी वो अपने ही कमरे में ही रखेगा जिससे जब उसके दोस्त उसके पास आयें तो वह बिना किसी को परेशान किये अपने कमरे में ही कंप्यूटर गेम खेल सके ...एक अलग अस्तित्व और हैसियत का मालिक होने की कल्पना मात्र से ही उसके मन पंछी ख़ुशी से हवा में कलाबाजियाँ खा रहे थे पर उसे कौन सा कमरा दिया जायेगा वह स्कूल में सारे दिन वो यही सोचता रहा।

घर पहुँचा तो देखा कुछ मजदूर कुल्हाड़ी और कुछ और भी औजार लिए बैठे हैं
...एक उनका मालिक-सा दिखने वाला आदमी पापा से बात कर रहा था। दीपांकर ने जल्दी-जल्दी कपड़े बदले और माँ के पास पहुँच गया ...
'माँ ये लोग कौन हैं, और क्यों आए हैं ?' उसने अपनी आशंका माँ से छुपाते हुए पूछा।
माँ ने भी बिना किसी लाग-लपेट के उत्तर दिया
, 'एक कमरा बनवाना है तुम्हारे लिये उसी सिलसिलें में यो लोग जगह का मुआयना करने के लिये आए हैं।
'पीछे आँगन में ? पर वहाँ तो... माँ वहाँ जगह कहाँ है ?'
'
नहीं बन जायेगा बात हो चुकी है बस वो नीम का पेड़ कटवाने के बाद काफी जगह निकल आएगी।'
माँ ने सहजता से जवाब दिया और फिर रसोई समेटने में लग गईं।
'पेड़ कटवाया जायेगा ?' उसकी सारी ख़ुशी तो जैसे पल भर में ही काफूर हो गई

बिना एक क्षण गँवाए वह बोला, माँ तुमने ये पेड़ अपने हाथों से उस समय लगाया था ना जब मै तुम्हारे पेट में आया था, और वह भी मेरे आने की खुशी में?'
माँ मुस्कुरायीं, 'हाँ रे बताया तो था तुझे।'
'
फिर आपने यह भी बताया था की आप रोज़ उसको पानी देती थीं और जैसे मुझे स्वस्थ रखने के लिए जरूरी दवाइयाँ खाती थीं वैसे ही आप नीम की मिटटी में खाद मिलातीं थीं।'
'
हाँ', माँ ने काम में लगे लगे ही उसकी बात पर हामी भरी।
'अभी पिछले दिनों जब इसपर कीड़ा लगा तो आप कितनी परेशान हो गईं थीं...माँ इसका मतलब तो ये हुआ इसे भी आपने मेरी ही तरह प्यार से पाला है।'
माँ ने अब उसकी तरफ देखते हुए कहा, 'हाँ पाला तो है।'
'माँ १२ सालों में ये पेड़ कितना बड़ा हो चुका है पर मै अभी भी छोटा सा ही हूँ 'हम दोनों की उम्र बराबर है पर नीम कितना समझदार हो चुका है, मुझे बड़े भाई की तरह अपनी बाहों में रस्सी पकड़ कर झूला झुलाता है मेरी फुंसियों को ठीक करने के लिए अपनी पत्तियाँ देता है ...बाबा भी तो रोज़ इसकी पत्तियाँ चबाते हैं, आप इसकी पत्तियाँ मच्छरों को भागने के लिए घर में जलाती हैं।'
'
और हाँ माँ इसकी ठंडी-ठंडी छाया में बैठ कर मै जो भी पाठ याद करता हूँ वो झट-पट याद हो जाते हैं।'

माँ आश्चर्यचकित हो बेटे की सारी बातें सुन रहीं थीं, पर समझ नहीं पा रही थीं कि वह कहना क्या चाह रहा है। तभी दीपांकर ने माँ का हाथ पकड़ा और उन्हें आँगन तक ले गया। वहाँ जा कर माँ का हाथ छोड़ उसने दौड़ कर नीम के तने को दोनों बाहों में लपेटते हुए कहा, “'प्लीज़ माँ मेरे भाई को मत कटवाओ, इसे मेरे से अलग मत करो, मुझे अलग कमरा नहीं चाहिए।' माँ की आँखे अनायास ही नम हो चुकी थीं मासूम दीपांकर ने कितनी सहजता और सरलता से कितनी बड़ी बात समझा दी थी

२० मई २०१३

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