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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
श्रीकांत मिश्र कांत की लघुकथा- सुरुचि और सुसृष्टा


सुस्रष्टा अपने एकाकीपन से व्यथित था। अंर्तमन की कोमलतम् भावनाओं को छेनी हथौड़े से इधर उधर उकेरता हुआ प्रकृति में विचरण करता रहता। परन्तु शान्ति कहीं न मिलती ।

एक दिन उसे सुरूचि मिली। मानो अभिनव ब्रह्माण्ड के 'सारे प्रश्नों' का उत्तर सुस्रष्टा को मिल गया। भूल गया वह स्वयं को भी।

सुरूचि उसके 'प्रजापति धर्म' के लिये स्नेहिल हाथों से रससिद्ध मिट्टी तैयार करती। सुसृष्टा अपने कल्पनाशील मष्तिष्क से नूतन अभिनव रचनाएँ तैयार करता। सम्पूर्ण 'प्रकृति' सुस्रष्टा के रचनाशील हाथों का स्पर्श पाकर अनूठे सौंदर्य सागर में हिलोरें लेकर आनन्दविभोर हो उठी।

अब सुरूचि का ध्यान सुस्रष्टा की 'रचनाओं' में अधिक लीन रहने लगा। अन्यावस्थित मन से एक दिन उसने रससिद्ध मृदापिण्ड के स्थान पर नम्र बालुका पिण्ड सुस्रष्टा के हाथों में दे दिया। रचनाशीलता में तल्लीन वह विशाल 'कौटुम्ब वृक्ष' की रचना करता रहा। हाथों में आयी मिट्टी एवं बालुका पिण्ड में वह भेद न कर सका। आज की रचना को वह अप्रतिम बनाने में खोया हुआ, जुटा रहा सारी रात भर। बृहदाकार तना, सुडौल शाखाएँ, पत्ते, फूल सब कुछ उसकी श्रेष्ठतम कल्पना के अनुरूप।

भगवान भुवन भास्कर की पहली पहली किरण ने जैसे ही मानव रचित कला का स्पर्श किया, स्वर्णिम रश्मियाँ मानो ठहर सी गयीं। ऐसा अनूठा सौंदर्य उन्होंने कभी नहीं देखा था। कुछ ऐसी ही अवस्था में सुस्रष्टा भी पहुँच गया। सुनहली आभा में अपनी ही रचना पर मुग्ध हो रात्रि जागरण से क्लान्त, आँखे मूँदकर उसी 'कौटुम्ब वृक्ष' की छाया में लेट गया।

भोर से हुयी सुबह और फिर दोपहर की यात्रा पर निकले आदित्य ने तपना प्रारम्भ किया । किन्तु वह सोता रहा सम्पूर्ण स्थिति से अनभिज्ञ अपनी श्रेष्ठतम रचना की छाँह में।

बालुका पिण्डों में व्याप्त नमी सूरज की तीक्ष्ण उष्मा से उड़ने लगी। हवा के झकोरों से बालू इधर उधर बिखरने लगी किन्तु थकान से चूर वह‚ अवस्थातीत सोता रहा तब तक‚ जब तक हवा के एक हल्के से झकोरे मात्र से विशाल कौटुम्ब वृक्ष भरभरा कर उसके ऊपर न गिर पड़ा।

अब प्रकृति उजाड़ है। सुरूचि सुस्रष्टा की रचनाओं मे लीन हो उसकी आभा ढूँढ़ती रहती है। प्रकृति में सुगठित रससिद्ध मिट्टी कैसे तैयार हो बस यही सोचती रहती है। परन्तु सुस्रष्टा तो मिले ?

२३ जुलाई २०१२

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