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						 "अरे 
						मास्टरजी... आप? आइए.. आइए.." इतने वर्षों के बाद मास्टरजी 
						को अचानक अपने सामने पा कर मैं चौंक ही गया था। 
						मास्टरजी... कहने को तो गाँव के जरा से मिडिल स्कूल के 
						हेडमास्टर.. मगर मेरे आदर्श शिक्षक, जिनकी सहायता और 
						मार्गदर्शन की बदौलत ही उन्नति की अनगिनत सीढियां चढ़कर 
						मैं इस पद पर पहुँचा था। बीस साल पहले की स्मृतियाँ अचानक 
						लहराने लगी थी आँखों के सामने... तब और अब में जमीन -आसमान 
						का फर्क था... कल का दबंग-कसरती शरीर अब जर्जर - झुर्रीदार 
						हो चला था। आँखों पर मोटे फ्रेम की ऐनक, हाथ में लाठी जो 
						उनके पाँवों के कंपन को रोकने में लगभग असफल थी। मैली सी 
						धोती, उस पर लगे असंख्य पैबंद छुपाने को ओढी गई सस्ती सी 
						शाल... मेरा मन द्रवित हो गया था। भाव अभिभूत होकर मैंने 
						मास्टर जी के पाँव छू लिए। मास्टर जी के साथ आए दोनों 
						व्यक्ति चकित थे.. मुझ जैसे बड़े अधिकारी को मास्टर जी के 
						पाँव छूते देख और साथ ही एक अनोखी चमक आ गई थी उनके मुख पर 
						कि मास्टर जी को साथ लाकर उन्होंने गलती नहीं की है। 
						मास्टर जी के चहरे पर विवशता लहराने लगी थी, जैसे मेरा 
						पाँव छूना उन्हें अपराध बोध से ग्रस्त किए दे रहा हो। 
 "कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ? " क्या आदेश है 
						मेरे लिए? " अपने चपरासी को चाय- नाश्ते का आर्डर देकर मैं 
						उनसे मुखातिब हुआ।
 "जी.., वो कल आपसे बात हुई थी ना..." मास्टर जी के साथ आए 
						व्यक्ति ने मुझे याद दिलाया .." ये रवींद्र है, मास्टर जी 
						का पोता .. इसी की नौकरी के सिलसिले में ...
 
 यह व्यक्ति दो-तीन महीने से मेरे विभाग के चक्कर काट रहा 
						था। वह चाहता था कि कैसे भी करके इसके बेटे को नियुक्ति 
						मिल जाए। मैंने रवींद्र का रिकॉर्ड जाँचा था, अंक काफी कम 
						थे। मैंने उन्हें समझाया थe कि 
						मैं उसूलों का पक्का अधिकारी हूँ, योग्य व्यक्ति को ही 
						नियुक्ति दूँगा। अब उनके साथ मास्टर जी का आना मेरी समझ 
						में आ गया था। हालात आदमी को कितना विवश बना देते है। यही 
						मास्टर जी जो एक ज़माने में उसूलों के पक्के थे। हमेशा 
						कहते थे, "अपने काम को इतनी निपुणता से करो कि सामने वाले 
						को तुम्हें गलत साबित करने का मौका ही न मिल पाए।" उन्हीं 
						के उसूल तो मैंने अपनी जिन्दगी में उतर लिए थे और आज वे ही 
						मास्टर जी मेरे सामने खड़े थे, 
						एक अदनी सी नौकरी के लिए सिफारिश लेकर?
 
 "ठीक है, मैं ध्यान रखूँगा, वैसे भी मास्टर जी साथ आए है, 
						तो और कुछ कहने की जरुरत है ही नहीं।" मेरे शब्दों में न 
						चाहते हुए भी व्यंग्य का पुट उभर आया था जिसे मास्टर जी ने 
						समझ लिया था और उनकी हालत और भी दयनीय हो गए थी, वे विदा 
						होने लगे तो मैंने अपना कार्ड निकाल कर मास्टर जी के हाथ 
						में थमा दिया..." अभी शहर में है, तो घर जरूर आइए मास्टर 
						जी "
 
 मास्टर जी ने काँपते हाथों से कार्ड थाम लिया था। उनके 
						जाने के बाद मैं बड़ा अस्वस्थ महसूस करता रहा। सहज होने की 
						कोशिश में एक पत्रिका उलटने लगा कि दरबान ने आकर बताया, 
						"साहब, कोई आपसे मिलने आये हैं।"
 "उन्हें ड्राइंग रूम में बिठाओ, मैं आता हूँ " कहकर मैं 
						हाउस कोट पहनकर बाहर आया .. एक आश्चर्य मिश्रित धचका सा 
						लगा... "अरे मास्टर जी , आप? आइए ना.. "
 
 "नहीं बेटा, ज्यादा वक्त नहीं लूँगा तुम्हारा," मास्टर जी 
						की आवाज में कम्पन मौजूद था। "सुबह उन लोगों के साथ मुझे 
						देखकर तुम्हारे दिल पर क्या गुज़री होगी, मैं समझ सकता 
						हूँ। मेरे ही द्वारा दी गई शिक्षा को मैं ही झुठलाने लगूँ 
						तो यह सचमुच गुनाह है बेटा,, पर क्या करता, मजबूरी बाँध 
						लाई मेरे पैर यहाँ तक रवींद्र का बाप मेरा दूर रिश्ते का 
						भतीजा है। मेरे बच्चों ने आलस - आवारगी में सारे जमीन- 
						जायदाद गँवा दी। मेरे अकेले की पेंशन पर क्या घर चलता ? उस 
						पर पत्नी की बीमारी.. ढेरों रुपये का कर्जदार हो गया मैं 
						... मकान भी गिरवी पड़ा है। ब्याज देने के तो पैसे नहीं, 
						असल कहाँ से देता ? तभी रवींद्र का बाप बोला कि यदि उसका 
						जरा सा काम कर दूँ तो मेरा मकान छुडा देगा। कम से कम रहने 
						का ठौर हो जायेगा, यही लालच यहाँ खींच लाया बेटा। पर 
						तुम्हें देखकर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। कुछ मसले ऐसे 
						होते हैं जो समझौते के लायक नहीं होते। उनकी गरिमा कायम 
						रहनी ही चाहिए। बेटा, तुम रवींद्र को मेरे कहने से नौकरी 
						मत देना। अगर ठीक समझो, तभी उसे रखना।" कहकर मास्टर जी 
						बाहर को चल पड़े थे.. मैं बुत बना खड़ा रह गया था।
 
                      ७ मार्च २०११ |