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						 इन 
						बच्चों को भी कौन समझाए, सारा सामान उलटकर रख दिया है। उधर 
						संपादक जी रट लगाए हैं कि इसी महीने उन्हें बाल कविताएँ 
						चाहिये। ताकि अगले अंक में बाल दिवस पर प्रकाशित कर सकें। 
						एक एक लाइन लिखने में कितना दिमाग खपाना पड़ता है, पर लय 
						है कि बनती ही नहीं।  
						 
						"...अजी सुन रही हो। एक प्याला चाय पिला दो।" चलो अब कुछ 
						मूड बन रहा है लिखने का। बच्चों पर लिखना कितना रोचक लगता 
						है। आखिर वे इतने भोले व मासूम होते हैं। जग की सारी 
						खुशियाँ उनकी किलकारियों से जुड़ी होती हैं। 
						 
						इसी बीच उनकी पत्नी मेज पर चाय रखकर जा चुकी थी। वह अपनी 
						बाल कविता की लय बनाने में मशगूल थे कि उनके छोटे पुत्र 
						बाहर से खेलकर आए और आते ही पापा की गोद में लपक पड़े।  
						 
						इधर साहबजादे पापा की गोद में लपके और उधर सारी चाय उनकी 
						बाल कविता पर गिरकर फैल गई। अपनी बाल कविता के इस परिणति 
						पर उन्होंने आव देखा न ताव और तड़... तड़... तड़... कर तीन 
						थप्पड़ बेटे के गाल पर जड़ दिये। 
						 
						पिता के इस व्यवहार पर बेटा जोर जोरे से रोने लगा और वे 
						पत्नी पर बड़बड़ाए जा रहे थे- एक बच्चे को भी नहीं संभाल 
						सकती। घर में बैठकर क्या पता कि एक कविता लिखने के लिये 
						कितनी मेहनत करनी पड़ती है। पत्नी ने दौड़कर बेटे को गोद 
						में उठाया और बोली, "वाह रे कवि महोदय, बाल दिवस पर कविता 
						के लिये अपने बच्चे को ही... कवि महोदय उसकी बात पूरी होने 
						से पहले ही घर से बाहर निकल गए।  
						 
						सकपकाई हुई पत्नी कभी बच्चे का चेहरा देखती तो कभी पति 
						महोदय की बाल कविता। 
                      १४ नवंबर २०११  |