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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियाँ के अंतर्गत इस अंक में प्रस्तुत है
बसंत आर्य की लघुकथा—'एक दर्द अपना सा'


राम भरोसे ने सामने से आते हुए रिक्शेवाले को हाथ हिला कर रूकने का संकेत दिया। रिक्शेवाले ने उसे हाथ हिलाते देख कर पैडल चलाना छोड़ दिया और ब्रेक लगाते हुए पूछा – "कहाँ जाना है?"

राम भरोसे हड़बड़ाते हुए रिक्शे पर सवार हुआ और जानकी स्थान चलने को कह कर बचुआ के बारे में सोचने लगा। इस बचुआ के कारण पाँच–छः बरस से कितना परेशान हुआ है यह वही समझता है। पूत का मोह कभी छूटता हैं भला। एक दिन मामूली सी बात पर रूठ कर घर छोड़ निकल गया था। अब जाकर चिठ्ठी भिजवायी है बेदर्दी ने कि सेठ बांकीलालके यहाँ काम करता हैं। अच्छा! अभी छोटा है न, सो ऐसा कर बैठा।

फिर उसे रिक्शे की गद्दी पर बैठे–बैठे ख्याल आया कि वह स्वयं भी तो अपने मुजफ्फरपुर में रिक्शा ही चलाता है। आज न आराम से गद्दी पर बैठा हुआ है। वरना फिर तो वही हैंडिल पर दोनों हाथ और सड़क पर टिकी हुई नज़रे। कई घटनायें याद हो आई। एक बार तो एक छोकरे ने पूरे टाउन का चक्कर लगवाने के बाद वह गच्चा दिया था कि पूछो मत। एक जगह उतर कर एक आदमी से मिलने का बहाना कर ऐसा गया कि गया ही रह गया। वह दो घंटे तक उसका इंतजार करता रहा था। और इस पेशे में पैसे के लिए हुज्जत तो आम बात है। क्या छोटे आदमी और क्या बड़े आदमी? लोग पाँच रुपये तय करके भी चार रुपये देने में आनाकानी करने लगते हैं। और एक बार तो आठ किलोमीटर की सवारी ढोने के बाद उसे अधेली भी नहीं मिली थी पैसे मांगने पर दो थप्पड़ भी लगे थे और दिन भर की कमाई भी छिन गई थी।

तभी एक धचके के साथ उसका ध्यान भंग हो गया। रिक्शा एक गड्ढे में फंस गया था और रिक्शेवाला जोर लगाये जा रहा था। उसकी पिंडली में दबाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था। उसकी दिक्कत समझ वह बोला, 'उतरियो कि हो?' और उतर गया। रिक्शा वाला बोला, 'भैया आप जैसा सब लोग दूसरे का दर्द कहाँ समझते हैं? छाती टूट जाय या रहे। ऊँची–ऊँची चढ़ान पर भी मुर्दे की तरह गद्दी पर बैठे रहते हैं।'
राम भरोसे बोला, 'अच्छा अभी केतना दूर है इ जानकी स्थान?'
'बस नगीचे है भैया।' और इसके पाँच मिनट के अन्दर ही रिक्शावाला फिर बोला, 'उतरिये भैया आ गया।'
राम भरोसे ने सवाल किया, 'केतना हुआ?'
'यही कोई तीन रुपये दे दो भैया।'

उसने सोचा लोग अठन्नी रुपया कम करते देते हैं इसलिए हर रिक्शा वाला एक रुपया ज्यादा करके बोलता है। क्या वह दो रुपया दे दे?
फिर जाने क्या सोंच कर जेब से बटुआ निकाला। बटुए से पाँच रुपये का नोट, फिर बोला, 'रख तो भैया, वापस–आपस मत करो। मैं समझता हूँ सारी बातें।' कई लोग तो ऐसे काइयों होते हैं कि दो रुपये माँगो तो एक रुपया थमा देते हैं। भला क्या जाने कि रिक्शा खींचना क्या होता है?

१ मई २००३

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