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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से डॉ. कमलकांत लाल की कहानी- जिजीविषा


कीमती जीन्स, टी शर्ट, एक हाथ में खालिस लेदर की बैग और दूसरे में अपना कीमती मोबाईल फोन लेकर जब अविनाश रेलवे के ए. सी. वेटिंग रूम के सामने पहुँचा तो कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता था कि वह पूरी तरह कड़का है। वह एक नौकरी के लिए इंटरव्यू देने आया था और उसके पास टैक्सी करने के भी पैसे नहीं थे।

अटेंडेंट ने उसकी साहबी ठाठ से प्रभावित होकर उसकी टिकट जाँच किए बिना उसके लिए अदब से दरवाजा खोल दिया। नॉन ए. सी. में सफर करने वाले अपनी सूरत और हाव-भाव से ही पहचाने जाते हैं, जिन्हें वह दरवाजे पर ही रोक लेता है। अविनाश उसपर एक उड़ती हुई नजर डालकर अंदर चला गया। एक खाली कुर्सी तलाश करके उसने अपना बैग उसपर रखा और बगल वाली खाली कुर्सी पर पैर चढ़ाकर ऐसे बैठ गया जैसे यह उसका ड्राईंग रूम हो।

अभी छः महीने पहले ही वह एक बड़ी सी कंपनी में सीनियर मैनेजर था। उसकी कंपनी का अचानक एक अन्य कंपनी के साथ विलय हो गया था। अधिकांश लोगों की छँटनी हो गई और रातों-रात वह भी अन्य कर्मचारियों के साथ सड़क पर आ गया था। घर का लोन, बच्चों की स्कूल की फीस, जीवन बीमा की किश्तें और घर का खर्च चलाने का स्रोत अचानक सूख गया था। जब इंटरव्यू के लिए कॉल आया तो वह बड़ी दुविधा में था। आने जाने का किराया और अन्य खर्चों के लिए क्या अपनी कीमती घड़ी ओ. एल. एक्स पर बेच दे? लेकिन नौकरी मिलने की संभावना कम ही दिख रही थी। बेरोजगारों की भीड़ में किस्मत किसका साथ देगी कहना मुश्किल था। इंटरव्यू के लिए पैसे जाया करना बुद्धिमानी नहीं थी। पास में पैसे नहीं थे तो क्या हुआ, अभी उसके कपड़ों, जूतों और ट्रैवल बैग की चमक बरकरार थी। बेरोजगारी की लाचारी को चेहरे से झटक कर ऊपरी चमक-दमक के बल पर इंटरव्यू में जाने-आने की कोई-न-कोई जुगत भिड़ा लेने के आत्मविश्वास के साथ वह चल पड़ा था। रात के अंधेरे में उसने अनारक्षित डब्बे में इस शहर तक का सफर चंद रुपये खर्च करके कर लिया था। आगे उसका आत्मविश्वास उसके साथ था।

थोड़ी देर अपने मोबाईल से खेलने के बाद वह उठा और शेविंग किट और टॉवल लेकर बाथरूम में चला गया। अगले बीस मिनट में वह शर्ट, टाई, फॉर्मल पैंट और कोट पहनकर इंटरव्यू के लिए पूरी तरह तैयार था। उसने परफ्यूम की बोतल निकालकर कॉलर के नीचे दो-चार पफ मारे, पैर में पहने मोजे से ही लेदर के कीमती जूतों को साफ किया और चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। अटेंडेंट ने उसको दरवाजे की तरफ आते देख कर अदब से दरवाजा खोला और कुछ टिप मिल जाने की आशा में उसके चेहरे की ओर देखा। अविनाश ने हल्की मुस्कान के बीच धीमे से थैंक यू कहा और बाहर निकल गया। अटेंडेंट बिना किसी शिकायत के वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया। बड़े साहब ऐसे ही होते हैं। खुश हो जाएँ तो सौ-दो-सौ का नोट थमा देते हैं। वरना पूरी तरह अनदेखी कर देते हैं, जैसे उसका उनकी दुनिया में कोई वजूद ही न हो। अविनाश ने कम से कम मुस्कुरा कर उसे थैंक यू कहा था। वह इसी से संतुष्ट हो गया था।

स्टेशन से बाहर आकर अविनाश ने गूगल मैप पर ऑफिस की दूरी देखी – २.४ किलो मीटर। सुबह का समय था। धूप तेज नहीं थी। अगर होती, तब भी वह ये दूरी पैदल ही तय करने वाला था। वह चल पड़ा। २.४ कि. मी. की दूरी इतनी लंबी होगी इस बात का अंदाजा उसे नहीं था। ऑफिस के विशाल इमारत में प्रवेश करते ही ए. सी. की ठंडक ने उसकी थकान को राहत पहुँचाई। उसने रिसेप्शन पर अपना नाम लिखवाया और सीधा वॉश रूम चला गया। पसीना सुखा कर, चेहरा-मोहरा दुरुस्त करके और फिर से शर्ट-टाई व्यवस्थित करके वह बाहर आया और एक कुर्सी पर आराम से बैठ गया। दो लोग उससे पहले से आकर बैठे हुए थे। उसने उनपर एक उचटती निगाह डाली और चेहरे पर ढेर सारा आत्मविश्वास पोत कर वह वहाँ पड़ी मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगा।

उसे भूख लग आई थी। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई। अक्सर इंतजार कर रहे कैंडिडेट्स के लिए चाय-बिस्किट का इंतजाम रहता है। लेकिन अभी इंटरव्यू शुरू होने में वक्त था। उसने सायास अपने चेहरे पर भूख की झलक को आने से रोक रखा था। वह उठकर रिसेप्शन पर गया और उसने अंग्रेजी में पूछा कि कितनी देर में इंटरव्यू शुरू होगी। उसे बताया गया कि अभी काफी वक्त था। लेकिन उसे जोरों की भूख लगी थी। कम से कम चाय तो होनी ही चाहिए थी। उसने जिज्ञासा वश पूछने का स्वांग किया – माफ कीजिएगा, आपके यहाँ गेस्ट के लिए टी-कॉफी डिस्पेंसर नहीं है? एक तरह से वह यह भी बताना चाह रहा था कि उसकी हैसियत ऐसी कंपनी में काम करने की है जहाँ ऐसी सुविधाएँ आम होती हैं। उसके मुकाबले यह कंपनी थोड़ी छोटी जान पड़ती है।

रिसेप्शन पर खड़े लड़के ने शालीनता के साथ अंग्रेजी में खेद प्रगट किया – “सॉरी सर, इसी बिल्डिंग की बेसमेंट में रेस्ट्रॉं है। आपको वहाँ चाय मिल जाएगी।”
रेस्त्रां में चाय क्या मुफ्त में मिलेगी? फिर भी उसने उसे धन्यवाद दिया और दिखावे के लिए लिफ्ट से बेसमेंट में आ गया। इक्का-दुक्का लोग वहाँ बैठे खा-पी रहे थे। उसने काँच की रैक के अंदर सजी खाने पीने की चीजों को देखा। डो-नट देखकर उसकी भूख और तेज हो गई। लेकिन उसने ऐसे मुँह बिचकाया जैसे उसकी पसंद की कोई चीज वहाँ नहीं हो। तभी काउंटर के पीछे से एक सिर उभरा और उसने अंग्रेजी में पूछा, “कुछ चाहिए सर?”
उसने आभिजात्य रौब के साथ कहा, “देख रहा हूँ।”

वह लड़का चला गया। अविनाश एक चक्कर लगाकर रुका और अचानक अपनी मोबाईल निकालकर व्यस्त हो गया। देखने वाले को यही लग सकता था कि कोई महत्वपूर्ण मैसेज आया है, जिसे वह पढ़ रहा है। फिर वह मुड़ा और लिफ्ट की ओर बढ़ा। तभी कनखियों से उसे ठंडे पानी वाली मशीन दिखाई दी। वह रास्ता बदल कर मशीन के पास पहुँच गया और वहाँ रखी डिस्पोज़ेबल ग्लास से तीन ग्लास ठंडा पानी पीकर उसको थोड़ी राहत मिली। लिफ्ट में सवार होने के बाद उसने अपनी पीठ थपथपाई कि किसी को भी इस बात की भनक नहीं लगी कि वह केवल विंडो शॉपिंग के लिए रेस्त्रां के चक्कर लगाने गया था। कुछ भी खरीद कर खाने का न तो उसका इरादा था और न आज के दिन उसकी हैसियत ही थी।

वापस आने पर उसने देखा कई लोग इंटरव्यू के लिए आ चुके थे। लोग एक के बाद एक लगातार आते जा रहे थे। कमरे में रखी गई कुर्सियाँ कम पड़ने वाली थीं। अविनाश ने एक कुर्सी पर कब्जा जमाया और शांति से बैठ गया। अगले आधे घंटे में पूरा कमरा भर गया था। कुछ लोगों को दीवार का सहारा लेकर खड़ा होना पड़ा था। एक वेकेंसी के लिए इतने सारे लोगों को कंपनी ने छांट कर बुलाया था? इसका मतलब साफ था कि जितने भी लोग आए थे, सभी के सभी रिक्त पद पर काम करने की योग्यता रखते थे।

अविनाश एक सिरे से एक-एक कर सारे उम्मीदवारों का चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगा। वह देखना चाहता था कि कौन था जो नौकरी के लिए उसके मुकाबले ज्यादा जरूरतमंद दिखाई पड़ रहा था और वो कौन-कौन लोग थे, जो अच्छी सैलरी पैकेज की उम्मीद में आए थे। उसे लगा कि सारे उम्मीदवार ऐसे ही थे, जो अच्छी पैकेज नहीं मिलने पर नौकरी की ऑफर ठुकरा कर चले जाने वाले थे। उसके मन के अंदर उम्मीद का अंकुर फूटा – क्या आज उसे नौकरी मिल जाएगी? उसके होठों पर एक मुस्कान नाचने को बेताब हो उठी। उसने बड़ी मुश्किल से उसे दबाया।

फिर उसने सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि सारे के सारे अच्छी पैकेज की तलाश में आए हों? कहीं सारे लोग अपने चेहरों पर बनावटी बेफिक्री का भाव तो नहीं बनाए हुए थे? अविनाश डर गया। यह सोचकर कि कहीं उसके चेहरे पर नौकरी पाने की फिक्र झलक तो नहीं रही थी। यह एक खतरनाक बात हो सकती थी। इंटरव्यू बोर्ड के मेंम्बर आसानी से ताड़ जाते हैं। कम-से-कम पैकेज में नौकरी के लिए मनाने में उनको महारत हासिल होती है। उसने जल्दी-जल्दी जबड़ा चलाकर चेहरे के हाव-भाव को दुरुस्त किया। आँखों पर आभिजात्य गर्व का चश्मा चढ़ाया और तन कर बैठ गया। जरा भी असावधान हो जाने पर मध्यम वर्गीय बेचारगी का स्थाई भाव उसके व्यक्तित्व पर हावी हो जाता था।

ख़ैर, इंटरव्यू शुरू हुआ। पहले उम्मीदवार ने काफी वक्त अंदर बिताया। अविनाश को चिंता होने लगी कि कहीं वह चुन तो नहीं लिया गया? पहला उम्मीदवार बाहर निकला और बिना किसी की ओर देखे चला गया। दूसरे का नाम जब पुकारा गया तब एक महिला चाय की ट्रे लेकर हॉल में आई। उसके पीछे एक ऑफिस बॉय के हाथ में बिस्किट की ट्रे थी। देखते ही अविनाश की आँतें कुलबुलाने लगीं। लेकिन वह जानता था कि अगला नाम उसी का पुकारा जाने वाला था। चाय और बिस्किट सर्व किया जा रहा था। लेकिन उसने अपना ध्यान उनपर से हटाकर इंटरव्यू के अपने परफॉर्मेंस पर केंद्रित किया।
दूसरा उम्मीदवार जल्दी ही बाहर आ गया। अपना नाम पुकारे जाने पर अविनाश बिना कोई हड़बड़ी दिखाए अपनी कुर्सी से उठा और दरवाजे में घुसने से पहले उसने एक उड़ती निगाह सर्व होती चाय-बिस्किट पर डाली और मन-ही-मन अनुमान लगाया कि इंटरव्यू के बाद उसके हिस्से की चाय-बिस्किट बचेगी कि नहीं। फिर उसने इस विचार को दिमाग से झटका और कमरे के अंदर चला गया। पहले हुए टेलिफोनिक इंटरव्यू के बाद अब फेस-टू-फेस इंटरव्यू के लिए वह पूरी तरह तैयार था। अविनाश के अनुसार उसका इंटरव्यू अच्छा ही गया। लेकिन उन्होंने पैकेज की कोई बात नहीं की।

बाहर निकल कर अविनाश की आँखें चाय-बिस्किट वाले को तलाशने लगीं। वह महिला और वह ऑफिस बॉय कहीं नजर नहीं आए। निराश होकर वह हॉल से बाहर निकल गया। देखा दोनों चाय-बिस्किट की ट्रे लिए लिफ्ट के पास खड़े थे। अविनाश ने तेजी से कदम बढाए और एक चौड़ी मुस्कान उनकी ओर फेंक कर उसने पाँच-छः बिस्किट और एक कप चाय उठा ली। बड़े लोग मुफ्त का माल उड़ाने में शर्माते नहीं है, यह बात वह जानता था। दोनों कर्मचारियों को भी इसमें कुछ अजीब नहीं लगा। लिफ्ट का दरवाजा खुलने पर वे उसमें समा गए।

अविनाश ने खा-पी कर हाथ झाड़े। अपनी टाई खोलकर उसे बैग में रखा और इमारत से बाहर निकल आया। बाहर धूप कड़ी हो चुकी थी। लेकिन अब पेट में कुछ अनाज पड़ जाने के बाद उसमें वापस रेलवे स्टेशन तक जाने की ताकत आ चुकी थी। वह चल पड़ा। स्टेशन पहुँचते-पहुँचते वह पसीने से नहा चुका था। उसे बड़ी जोरों की भूख लगी थी। जब जेब में पैसे न हों तो जल्दी भूख लग जाती है। वह रेलवे के कैंटीन में जाकर बैठ गया। पर्स निकाल कर देखा तो मुश्किल से वापसी का जेनरल टिकट खरीदने लायक पैसे बचे थे। डेबिट कार्ड में पैसा नयूनतम बैलेंस को छू रहा था और क्रेडिट कार्ड देखते ही बदन में झुरझुरी आ जाती थी। उसने पिछले महीने बाध्य होकर मकान का ई. एम. आई और जीवन बीमा की किश्त चुकाने के लिए ढेर सारा पैसा उधार ले लिया था, जिसकी ई. एम. आई. भरने का भी वक्त करीब आ रहा था।

भूख बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। लेकिन अगर उसने पास के पैसे खाने में खर्च कर दिए तो फिर रेल का किराया नहीं बचेगा। एक बार तो उसने पानी पीकर उठ जाने का सोचा। लेकिन उसके आत्मविश्वास ने उसे वहीं बिठाए रखा। अभी तो पेट भर खा लेना चाहिए। बाद में कोई-न-कोई जुगत भिड़ जाएगी। उसने निरामिश थाली का ऑर्डर दिया और दो मिनट में सारा कुछ चट कर गया। पानी की नई बोतल खरीदने की जगह उसने स्टील की गिलास में परोसा गया पानी पिया और पैसे देकर बाहर निकल आया। कैंटीन वाले को जो सोचना है वह सोचता रहे। इस शहर में कौन उसे पहचानने वाला था?
उसकी जेब में केवल पचास रुपये बचे थे और बचा था ट्रेन पकड़ने से पहले का बहुत सारा समय। रात होने तक टिकट के लिए क्या जुगत भिड़ाई जाए यही सोचता हुआ वह स्टेशन से बाहर निकल कर सामने टैक्सी स्टैंड के पास जाकर खड़ा हो गया। बाहर अफरा-तफरी का बाजार गर्म था। इस कोलाहल में भी उसके दिमाग में सन्नाटा गूँज रहा था। कुछ सूझ नहीं रहा था कि टिकट के पैसों का इंतजाम कैसे होगा। उसने पन्द्रह रुपये की अपनी पसंदीदा सिगरेट खरीदी और उसके गहरे-गहरे कश खींचता सोचने लगा। एक उपाय यह हो सकता था कि उसकी जेब कट गई है कहकर वह किसी से पैसे उधार ले ले। यह विचार मन में आते ही उसने अपना बटुआ बैग के अंदर छुपा दिया। मन में थोड़ी राहत मिली।

उसने दूसरी सिगरेट खरीदकर सुलगाई। दो-चार कश लगाने के बाद उसे खुद पर शर्म आई कि उसके मन में भीख मांगने का विचार कैसे आ गया? उसका मन उदास हो गया। अभी छः महीने पहले तक लाख रुपये से ऊपर की तनखा पाने वाला आदमी आज भीख मांगने की बात सोच रहा था? उसने खुद को लानत भेजी और स्टेशन के बाहर चहलकदमी करने लगा।

उसे फिर से सिगरेट की तलब महसूस हुई। एक अन्य दुकान से उसने दस रुपये की एक अलग ब्रांड की सिगरेट खरीदी। बाकी बचे दस रुपये। सिगरेट जलाकर जिज्ञासा दिखाते हुए उसने दुकानदार से यूँ ही पूछ लिया कि उसके पास सबसे कम कीमत वाली सिगरेट कितने की आती है। दुकानदार ने बताया कि एक रुपये में भी सिगरेट आती है, जिसमें गाँजा भरकर गंजेड़ी पीते है। उसे इस बात का अंदाजा नहीं था कि इतनी सस्ती सिगरेट भी मिलती है। उसने दस रुपये में वह सिगरेट की डिबिया खरीद ली। दुकानदार ने एक साहब से दिखने वाले को सस्ती सिगरेट लेते हुए अजीब सी नजरों से देखा। अविनाश ने हँस कर कहा, “मेरे चपरासी को यह तोहफे में दूँगा तो वह खुश हो जाएगा।”

उस दुकानदार को उसकी बात पर विश्वास हुआ या नहीं इस बात की चिंता किसे थी? लेकिन चिंता हुई उसे, इस बात की कि सिगरेट तो खरीद ली उसने पर माचिस खरीदने के लिए पैसे नहीं बचे थे। वह इस पशोपेश में वहीं कुछ देर खड़ा अपनी सिगरेट के कश लगाता रहा। कैसे दुकानदार से कहे कि एक सिगरेट कम करके उसके बदले माचिस दे दे? ऐसा करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। वह दूर जाकर अपनी वाली सिगरेट पीने लगा। अब उसकी जेब में फूटी कौड़ी भी न थी। सस्ती सिगरेट की डिबिया थी पर माचिस नहीं थी।

जिंदगी में ये दिन भी देखने पड़ेंगे ऐसा कभी सोचा भी नहीं था उसने। उस पर से मुसीबत ये थी कि चेहरे पर बार-बार बेबसी की रंगत पसर जाती थी, जिसे वह प्रयास करके फैलने से रोक रहा था। उसने जेब से रुमाल निकाला और चेहरा रगड़कर पोछ डाला। वापस जेब में रुमाल रखते समय उसके हाथ में दो रुपये का एक सिक्का आ गया। उसका चेहरा खिल उठा। उसने और किसी दुकानदार से माचिस की एक डिबिया खरीदी और अगले दो घंटों में उसने सिगरेट की आधी डिबिया को धुएँ में उड़ा दिया। उसका मुँह कसैला हो गया था।

ए. सी. वेटिंग रूम में वापस आकर उसने हाथ-मुँह धोया और आराम करने के लिए एक कुर्सी पर पसर गया। आँखें बंद करते ही वह सोचने लगा कि वापसी की टिकट का इंतजाम कैसे हो पाएगा। जल्द ही उसका ध्यान भटक गया। बार-बार उसे याद आने लगा कि किन मुसीबतों में उसने पिछले छः महीने गुजारे थे। सबसे पहले उसने अपनी कार बेच दी थी। दूसरे महीने उसने डाईनिंग टेबल बेची। घर के सब लोग सेंटर टेबल पर दो किश्तों में खाना खाने लगे। पैसे कम पड़े तो बारी आई उसकी कीमती पलंग की। कौन देखने जा रहा था कि दोनों पति-पत्नि जमीन पर सोने लगे हैं? तीसरे महीने टी. वी. और ऑडियो सिस्टम बिकी। पास के बचे हुए पैसे घर के लोन का किश्त और जीवन बीमा के प्रीमियम के भुगतान में तेजी से खर्च होते जा रहे थे। चौथे महीने घर के खर्च का इंतजाम करने के लिए उसने ड्राईंग रूम का कीमती सोफा और सजावट के सामानों को बेचकर उसके बदले सस्ता फर्नीचर खरीद लिया।

पाँचवे महीने में उसे बीबी के सारे गहने बैंक में जमा करके गोल्ड लोन लेना पड़ा। छठा महीना बहुत विकट था। क्रेडिट कार्ड से लोन लेने और उसकी जाल में बुरी तरह फंसने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था। इसी बीच एक कंपनी ने जब उसे इंटरव्यू के लिए शॉर्टलिस्ट किया तो उसने साहस करके क्रेडिट कार्ड से लोन लेकर सारा खर्च निपटाया। लेकिन कंपनी ने उसे नहीं चुना। वह निराशा के गर्त में डूब गया। इस बार उसने निर्णय कर लिया कि वह जीवन बीमा का प्रीमियम भरना बंद कर देगा। जब नौकरी लगेगी तब फिर से पॉलिसी रिवाईव करवा लेगा। मकान का किश्त भरना भी मुश्किल हो रहा था। अतः वह अपने पुराने मुहल्ले में फिर से किराए के एक मकान में चला जाएगा और इस बड़े से आलिशान घर को किराये पर चढ़ा देगा। किराए के पैसे मकान के लोन की किश्त भरने के काम आएँगे। संकट काल में जिंदा रहने के लिए जो हो सकता है वह तो करना ही पड़ेगा। जब इस कंपनी से इंटरव्यू के लिए उसे बुलावा आया तो उसने ठान लिया कि वह न तो इस नौकरी से ज्यादा उम्मीद लगाएगा और न ही आने-जाने में कोई विलासितापूर्ण यात्रा करेगा। वैसे उसके पास इसके लिए पैसे थे भी नहीं। जो कुछ था, सब कुछ झाड़-पोछ कर वह ले आया था।

स्थिति अब यह थी कि उसकी जेब में मात्र एक रुपये का एक सिक्का था। लेकिन वह खुद आत्मविश्वास से लबरेज था। ट्रेन जिस प्लेटफॉर्म पर आने वाली थी, वह उसपर समय से पहले चला आया और सेकेंड ए. सी. बोगी जहाँ लगने वाली थी वहाँ जाकर खड़ा हो गया। उसने अपना मोबाईल स्विच ऑफ करके उसे भी बैग के अंदर छुपा दिया। ट्रेन आई, लगी और लोग एक दूसरे के पीछे बोगी में समा गए। अविनाश वहीं खड़ा रहा। जब ट्रेन खुली तो वह बाहर लगी चार्ट पर नजर दौड़ाकर बोगी में सवार हो गया। घर तो उसे जाना ही था।

अंदर आकर उसने पाँच नंबर की साईड लोअर सीट पर अपना बैग रखा और इस तरह आराम से बैठ गया जैसे यह उसकी अपनी आरक्षित सीट हो। वह जानता था कि यह सीट खाली थी। आस-पास की सारी सीटें भरी हुई थीं। उसने सामने वाले यात्रि से उसकी अंग्रेजी की पत्रिका मांगी और उसके पन्ने पलटने लगा। जब टी. टी. ई. ने आकर उससे टिकट की मांग की तो उसने सर उठाकर अपने हाव-भाव से ही बता दिया कि उसके पास आरक्षण नहीं है। उसका सूट-बूट देखकर टी. टी. ई. ने उसे इशारों में वहीं बैठे रहने के लिए कहा और अन्य यात्रियों की टिकट जाँच करता हुआ आगे बढ़ गया। वह नहीं जानता था कि उसने लौटकर उस संभ्रांत से दिखने वाले यात्रि से कुछ माल-पत्तर कमाने का जो इरादा किया था, उसको बहुत बड़ा झटका लगने वाला था।

सारे यात्रियों की टिकट जाँच करने के बाद टी. टी. ई. वापस आया तो अविनाश ने थोड़ा सा खिसक कर उसके बैठने के लिए जगह बना दी। बैठते ही उसने पूछा, “कहाँ तक जाएँगे आप?”
“अंतिम पड़ाव तक,” अविनाश ने अंग्रेजी में जवाब दिया।
“लाईये टिकट, रिजर्वेशन बना दूँ... या फिर ऐसे ही?” उसने वाक्य पूरा न करके एक अर्थपूर्ण नजर से अविनाश की ओर देखा. उसकी आँखों से लालच टपक रहा था।
“मेरे पास टिकट नहीं है।”
“ओह, अच्छा चलिए ऐसा करता हूँ कि फाईन के साथ टिकट बना देता हूँ और रिजर्वेशन रहने देता हूँ...बदले में आप मुझे...” उसने फिर से वाक्य को अधूरा छोड़ दिया।
“मेरे पास पैसे भी नहीं हैं,” अविनाश ने ऐसे कहा जैसे यह कोई मामूली सी बात हो।

टी. टी. ई. थोड़ा चौंका. लेकिन अविनाश को एक अंग्रेजी पत्रिका के पन्नों में खोया देखकर उसने सोचा साहब बुरा मान गए हैं। उसने धीरे से कहा, “मैं सब समझ गया। आप बुरा न मानें। मैं रिजर्वेशन के साथ टिकट बना देता हूँ।”
अविनाश ने पत्रिका पर से नजर हटाकर उसकी ओर देखा और मुस्कुरा कर बोला, “मैं सच कह रहा हूँ कि मेरे पास पैसे नहीं हैं। दरअसल मेरे सामान की चोरी हो गई है, जिसमें मेरा मोबाईल फोन और वॉलेट था।”

टी. टी. ई. थोड़ा सावधान हुआ। उसने ऐसे बहुत सारे लोगों को देखा था, जिनका बटुआ चोरी हो जाता है। वे तो काफी परेशान और बेचारगी से भरे होते हैं। लेकिन यह आदमी तो बिल्कुल बेफिक्र दिख रहा था। या तो यह आदमी आले दर्जे का ठग था या फिर काफी बड़ी पार्टी थी। इससे पहले कि वह इस आदमी को अगले स्टेशन पर उतारने अथवा साथ लेकर इसके गंतव्य तक पहुँचाने का निर्णय करता, उसको जानना जरूरी था कि आखिर यह आदमी था कौन।
इस बार दोस्ताना लहजा तज कर उसने थोड़ी सख्ती से पूछा, “आप क्या करते हैं?”
“मैं एक कंपनी में फाईनान्स हेड हूँ।”
“मैं आपका आधार कार्ड देख सकता हूँ?”
“मैंने कहा न कि मेरा सामान चोरी हो गया है। मेरा पैसा, डेबिट-क्रेडिट कार्ड, आधार, पासपोर्ट और यहाँ तक कि मेरा मोबाईल फोन भी उसी में था,” अविनाश ने थोड़ी झल्लाहट के साथ कहा।

आदमी के पास पैसा न हो, चलेगा। लेकिन कोई पहचान न हो तो यह काफी खतरनाक बात हो सकती है। टी. टी. ई. के चेहरे पर अब अविश्वास साफ-साफ झलक रहा था। उसने अपनी शंका जाहिर की, “आपको देखने से ऐसा नहीं लगता कि कोई आपके सामने से आपका सामान चुरा कर भाग सकता है।”

अविनाश उसकी उम्मीद के विपरीत बहुत जोरों से हँसा और बोला, “मैं तो भाई साहब उसकी कलाकारी का कायल हो गया। एकदम जेंटलमैन लुक, भोला सा चेहरा था उसका। मेरी ही तरह एक अंग्रेजी पत्रिका में सिर गड़ाए मेरी बगल में बैठा था। मैंने उसपर भरोसा किया और अपना सामान उसकी देखरेख में छोड़कर वॉश रूम चला गया। लौटा तो वह वहाँ नहीं था। मेरा जरूरी कागजात और पर्स वाला छोटा सा बैग नदारत था। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह चोर हो सकता था। आप ही बताईये, अगर वह चोर होता तो मेरा यह वाला बैग भी लेकर नहीं भाग जाता? मैंने सोचा उसे कोई काम आ गया होगा और मेरा कीमती सामान वाला बैग उसकी जिम्मेदारी में था, तो उसकी सुरक्षा के ख्याल से वह उसे साथ ले गया होगा। किसी पर क्षण भर में अविश्वास करना भी तो ठीक नहीं है। मैंने काफी देर तक उसका इंतजार किया। लेकिन वह नहीं आया... मेरे ख्याल से वह कोई चोर नहीं था. आजकल तो जान ही रहे हैं, रातों-रात कंपनियों में ताला लग जाता है। लाखों लोग अचानक बेरोजगार हो जाते हैं। वह जरूर ऐसा ही कोई बेरोजगार रहा होगा और घर का खर्च चलाने के लिए चोरी करने के अलावा उसके पास और कोई चारा नहीं बचा होगा।”

टी. टी. ई. बहुत ध्यान से उसे सुन रहा था। कोई अपना पर्स और जरूरी कागजात अपने साथ वॉश रूम न ले जाकर किसी अजनबी के जिम्मे उन्हें छोड़ जाएगा, यह बात उसके गले से नहीं उतर रही थी। लेकिन अविनाश का बयान करने का तरीका इतना प्रभावपूर्ण था कि उसके चेहरे पर इस शख्स के लिए अविश्वास की जगह घोर आश्चर्य झलकने लगा। अपने सामान की चोरी हो जाने के बाद भी चोर के प्रति कोई नेक विचार रख सकता है, यह उसकी कल्पना से बाहर की बात थी। अविनाश ने आगे कहा, “वॉश रूम से लौटकर मैं उसके बारे में उससे पूछने ही वाला था। अगर वह बेरोजगार था तो उसकी समस्या हल हो सकती थी। मुझे अपने नीचे एक एसिस्टेंस की जरूरत है। उसी के इंटरव्यू लेने के सिलसिले में मैं इस शहर में आया था। मैं शायद उसे ही रख लेता। मेरा सामान ले जाकर उसने अपना घाटा करा लिया।”

यह बात सुनकर टी. टी. ई. की दिलचस्पी चरम पर पहुँच गई। इस मुश्किल समय में अगर कोई किसी को नौकरी दे सकता है तो वह इस युग का भगवान से क्या कम होगा? उसने बिना वक्त गंवाए कहा, “मेरा लड़का भी अभी बेरोजगार है। अगर संभव हो तो उसे अपना एसिसटेंट बना लीजिए। आपके जैसे भले और विद्वान व्यक्ति के साथ रहेगा तो जिंदगी को सही ढंग से समझ सकेगा।”
“कितना पढ़ा है आपका बेटा?”
“जी एम. एस. सी. करके बैठा है।”

ओह, मुझे तो एम. बी. ए. लड़का चाहिए था। एनिवे, आप अपना या बेटे का ई-मेल आई डी. मुझे लिखकर दे दें। जैसे ही कोई नौकरी मेरी नजर में आएगी मैं खबर करूँगा।”

टी. टी. ई. ने झट से एक कागज पर ई-मेल आई डी और व्हाट्एप नम्बर लिख कर अविनाश को दिया, “आप प्लीज भूलिएगा नहीं. बच्चे की नौकरी कहीं-न-कहीं जरूर लगवा दीजिएगा. आजकल बहुत डिप्रेस्ड रहता है। मुझे बड़ी चिंता रहती है उसकी। कहीं निराशा में कुछ कर न ले।”

अविनाश संजीदा हो गया। उसने टी. टी. ई. के कंधे पर हाथ रखकर कहा, “ये जो संकट का दौर आप देख रहे हैं न, ये ज्यादा दिन नहीं रहने वाला। अपने बेटे को बस हार न मानने और जरा धीरज रखने को कहिए। जल्द ही सबकुछ ठीक हो जाएगा। और उससे कहिएगा यह वाला फिल्मी गीत गुनगुनाया करे – कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे। उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे। उसे बहुत हिम्मत मिलेगी।”

अविनाश उस रात उस बर्थ पर आराम से सोया और सुबह जब अपने शहर पहुँचा तो काफी तरो-ताजा महसूस कर रहा था। टी. टी. ई. से विदा लेते हुए उसने आभार प्रगट किया। उसके बेटे के लिए जल्द ही कुछ करने का मन-ही-मन निश्चय करके वह ट्रेन से उतर गया।

स्टेशन से बाहर निकलकर उसने ऑटो करने की सोची। पैसा घर पहुँच कर दिया जा सकता था। लेकिन क्या पता पत्नि के पास पैसे हों न हों। उसने विचार बदल दिया और पैदल ही चलने के लिए तैयार हो गया। सवारियों की तलाश में ढेर सारे ऑटो वाले स्टेशन परिसर में मक्खियों की तरह भिनभिना रहे थे। उनसे बचते-बचाते वह फुट ओवर ब्रिज पर चढ़ गया और उस सस्ती डिबिया की एक सिगरेट जलाकर गहरे कश लगाता घर की ओर चल पड़ा।

घर पहुँचने से पहले उसकी पाँचों बची सिगरेटें खत्म हो चुकी थीं। उसने अपना मोबाईल फोन निकाला और उसे स्विच ऑन किया। कई मेसेज और ई-मेल धड़ाधड़ डाऊनलोड होने लगे। एक ई-मेल पर उसका ध्यान गया। किसी और कंपनी से इंटरव्यू के लिए उसे बुलावा आया था, जिसके लिए उसे आज रात ही ट्रेन से एक दूसरे शहर के लिए निकलना था। वह पूरे उत्साह के साथ घर की ओर कदम बढ़ाने लगा। नौकरी पानी है तो इंटरव्यू तो देना ही होगा न।

जब तक लोग भविष्य के प्रति पूरी तरह से नाउम्मीद नहीं हुए हैं, एक-एक कर दिन गुजारते जाने की तरकीबें निकाल ही लेंगे।

१ जून २०२३

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