परमात्मा की असीम कृपा से आज मैं साढ़े तीन मंजिल की कोठी का
मालिक हूँ। कभी एक साधारण से कर्मचारी की हैसियत से दुबई गया
था। उद्योगपति और करोड़पति बनकर लौटा। कई मिलें हैं मेरी, घर
में सुंदर सुलक्षणा बीवी है, होनहार बच्चे हैं, नौकर-चाकर हैं।
द्वार पर दो-दो कारें खड़ी हैं। पर मेरे लिए सबसे बड़ी नियामत
है घर में टी.वी., इम्पोर्टेड। टीवी मैं कम ही देखता हूँ पर जब
भी बैठता हूँ बचपन की एक घटना टीवी स्क्रीन पर चल रहे
प्रोग्राम के साथ-साथ मेरे दिमाग में चलती रहती है।
दिसंबर का महीना। इतवार की शाम। तिथि याद नहीं। प्रवेश द्वार
से होकर बाईस सीढियों का जीना चढ़ते हुए मैं बरसाती तक पहुँच
गया। बंद दरवाजे पर दस्तक देते हुए मैंने धीरे से पुकार-
'आंटी... दो पल की प्रतीक्षा और फिर जोर की दस्तक। अंदर कोई
प्रतिक्रिया होती जान न पड़ी तो मैं बेचैन हो उठा। दिल की
धड़कन बढ़ गई जिसकी थाप मैं स्वयं सुन सकता था। मन उथल-पुथल सा
होने लगा। 'आंटीजी... मैंने बड़ी आकुलता से पुकारा पर दरवाजे
के पीछे किसी की पदचाप किसी का कंठस्वर या किसी की चूडियों की
खनक तक न सुनाई दी। सीढियों पर अब मेरे कई और साथी-बच्चे
इकट्ठे हो गए थे। मैंने फिर हिम्मत की और दरवाज भड़भड़ाया। रतन
निचली सीढ़ी पर खड़ा था। सबको ठेलता हुआ ऊपर आ गया और ऊँचे
स्वर में चीखा आंटीजी- उसके समर्थन में जीवन भर्राये स्वर में
बोला- 'आंटी। फिर दस-बारह सम्मिलित स्वर आंटी... आंटी... आंटी।
दरवाजा खोलो आंटी। दरवाजा खुला पर साथ वाले कमरे का। एक बूढ़ा
कर्कश स्वर सुनाई दिया- ''बच्चे हैं कि तौबा। कितना हल्ला
मचाते हैं? जैसे हमें सुनाने भर के लिए कहा गया और दरवाजा भड़
से बंद कर गया।
इसी बीच पैरों की थपथप सुन कुछ आशा बंधी। ''ये लो आ गई आंटी,
सब आपस में फुसफुसाए। बस अब दरवाजा खोल देंगी। पर उन्होंने
अंदर से ही कहा- ''तुम लोग अब मत आया करो। बस आज आने दो आंटी,
प्लीज, फिर हम कभी नहीं आएँगे, सबकी तरफ से छोटे कीरत ने कहा-
''कह दिया न- दरवाज नहीं खुलेगा, तुम लोग जाओ अपने-अपने घर।
आंटी दरवाजे की दरार में से झाँकते हुए बोलीं- ''साढ़े छ: बजने
ही वाले हैं आंटीजी। बड़ी अच्छी पिक्चर है- बस आज देख लेने दो।
रम्मू ने लगभग रोते हुए कहा। ''अरे कैसे लड़के हो बाईं तरफ के
फ्लैट से निकलकर किसी सफेदपोश ने बड़े नाटकीय ढँग से समझाते
हुए कहा- ''जब घर वाले नहीं चाहते कि तुम लोग उनके यहाँ जाओ तो
क्यों हठ करते हो? भई, जाना वहीं चाहिए जहाँ तुम्हें लोग
बुलाएँ। आवाज में न खीझ थी न आक्रोश। न डाँट न व्यंग्य। पर
चुभन इतनी थी कि दिल दर्द से कराह उठा। मस्तिष्क में जैसे
सैकड़ों मधुमक्खियाँ भनभना उठीं। हुँह- बुलाएँ- कौन बुलाएगा
हमें? हमारे बैठने से उनके फर्श मैले हो जाते हैं और कमरे
गंधाने लगते हैं। हम उनके 'स्टेटस के नहीं हैं न। हेठी होती
है। ''जाओ बच्चो, जाओ। तुम्हारे अंदर कुछ तो आत्मसम्मान होना
चाहिए। वही कुर्ताधारी बड़ी रोबीली आवाज में कह रहा था। मैंने
फिर मुंह बिचका दिया। आत्मसम्मान जरूर होना चाहिए। हमारे
आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आप लोग कितना कुछ करते हैं।
रोज-रोज दावतें उड़ाते हैं जबकि हमें दो वक्त की रोटी भी भरपेट
नहीं मिलती। कीमती-कीमती वस्त्र पहनते हैं और इठलाते घूमते
हैं। हमारे अधनंगे शरीरों पर आपकी नजर भी नहीं जाती। आप लोग
उचित-अनुचित सभी बातें कर लेते हैं और हम आत्मसम्मान की धूल
चाटें। कुर्ताधारी अंदर चला गया था।
सीढियों पर खड़े बच्चों का मन चंचल हो रहा था। रह-रहकर हल्के
से दरवाजा भड़भड़ा देते थे। 'तुम लोग ऐसे नहीं मानोगे- एक
मर्दानी आवाज कानों में पड़ी। साथ ही बरसाती का दरवाजा पूरी
तरह खुल गया। हाथ में पतली-सी केन पकड़े अंकल खड़े थे। उनका
रौद्र रूप देख बच्चे सहम कर नीचे उतरने लगे और उनके पीछे-पीछे
मैं भी। आखिर 'आत्मसम्मान' की रक्षा तो करनी ही थी।
'झन्न... लो पिक्चर शुरू हो गई। कैसा मधुर संगीत है। अब पात्र
परिचय कराया जाएगा। सीढियों के मोड़ पर जो चौकोर चबूतरा-सा है
उसी पर खड़े हम परिस्थिति पर विचार करने लगे। आज आंटी गुस्सा
क्यों हो गईं? हम तो कितनी ही बार-बल्कि हर हफ्ते उनके यहाँ
पक्चिर देखते हैं। मैंने परिस्थिति का मूल्याँकन करना चाहा।
आंटी तो खुश होती हैं। बीच में चने, मूँगफली और रेवड़ी भी देती
हैं। ''लगता है आज अंकल-आंटी की लड़ाई हो गई है, राजू कह रहा
था। पिछले हफ्ते मकान मालिक ने आकर कहा था न कि आप लोग जाने
कहाँ-कहाँ के बच्चे बुलाकर बिठा लेते हैं। किसी की कोई चीज
चोरी चली गई तो कौन जिम्मेदार होगा भला। रम्मू ने अपना विचार
जाहिर किया, ''हाँ और वो-नीचे वाली बक्कू की मम्मी भी तो हल्ला
मचा रही थीं कि बच्चे ऊपर से उतरते हुए इतना शोर मचाते हैं कि
सिर दुख जाता है। रतन कैसे पीछे रहता- बोला 'और बीच वाली कोठी
में जो पता नहीं डॉक्टरनी है कि मास्टरनी- उन्होंने भी शिकायत
की थी कि बच्चे सीढियों पर मूँगफली के छिलके, टॉफियों के रैपर
और न जाने क्या क्या बिखेर देते हैं। ''बस तो फिर ऐश करो कीरत
बोला। आज पिक्चर देखने मिल जाए फिर हम किसी को शिकायत का मौका
न देंगे। मायूस-सा मैं बोला। तभी रम्मू बोल पड़ा ''नुक्कड़
वाली कोठी वालों के यहाँ भी तो टीवी है। चलो खिड़की से खड़े
होकर देख लेंगे। बच्चे हो-हो करते उतर गए। उदास मन से मैं भी
पीछे हो लिया।
सीढियाँ उतरे ही थे कि निचली मंजिल के बाएँ हाथ पर बने फ्लैट
में कुछ लोगों को जाते देखा। महिलाएँ थीं- और उनके साथ कई
बच्चे। गृहस्वामिनी स्वागत कर रही थीं... ''आओ जी... आओ। हमने
सोचा अच्छा मौका है बहती गंगा में हम भी हाथ धो लें। पर बीच
में ही रोक दिए गए। ''अरे-अरे कहाँ घुसे आ रहे हो? जगह नहीं
है। ''हम जमीन पर बैठ जाएँगे, मैंने कहा। नहीं अंदर खड़े होने
की जगह नहीं है। हमें धकियाते हुए गृहस्वामिनी ने कहा।
पाँच-सात औरतों व बच्चों का जत्था फिर आ गया था, गृहस्वामिनी
की वाणी में शहद घुल गया। मुस्कराकर बोली आओ जी आओ, तुसी बड़े
देर से आए... और दरवाजा बेरहमी से बंद कर लिया गया।
हमने एक-दूसरे की तरफ देखा। सबकी आँखों में प्रश्न था 'अब?
तीसरी गली में लाल कोठी वालों के यहाँ कोशिश करें। बन्टू बोला।
''आज जब बरसाती वाली आंटी ने नहीं आने दिया तो हमें कोई क्यों
आने देगा। रम्मू ने मानो हथियार डालते हुए कहा। सब बच्चे निराश
मन से फाटक के बाहर आ गए। चारों तरफ से बड़ा मधुर संगीत बज रहा
था। एक साथ कई-कई घरों से बल्कि एक इमारत के कई-कई कमरों से
वायुमंडल में एक ही तरह के संगीत की स्वर लहरियाँ गूँज रही
थीं। कोई युगल गीत था। एक-एक युगल गीत हर पिक्चर में होता है।
एक स्वर आशा भोंसले का है दूसरा पता नहीं रफी का या महेन्द्र
कपूर का। मैं मंत्रमुग्ध संगीत सुनता रहा। दो मिनट का गाना
जल्दी समाप्त हो गया। अन्य बालक इसी बीच जाने कहाँ-कहाँ बिखर
गए थे। मैं गली के मकान की खिड़की पर खड़ा हो गया। दिखाई कुछ
नहीं दिया हाँ आवाज साफ-साफ सुन सकता था। पता नहीं क्यों लोग
दरवाजों के साथ-साथ खिड़कियाँ खोलें तो हम जैसे 'लफंगे, 'आवारा
न देख लेंगे उनका टीवी! मियाँ-बीवी बैठे देखते रहेंगे।
इन लोगों से अकेले बैठा भी कैसे जाता है। कहते हैं खुशी बाँटों
तो दूनी हो जाती है। पर आज का स्वार्थी समाज सारे सुख सिर्फ
अपने लिए चाहता है। धोखे से भी दूसरों का भला न हो जाए! ओह! ये
कैसी आवाजे आने लगीं। शायद खलनायक व नायक की लड़ाई का दृश्य
है। मुक्केबाजी व घूँसेबाजी चल रही होगी। मुझे लड़ाई के दृश्य
बहुत भाते हैं। ठिंशू... ठिंशू...। कितना सस्पेंस होता है। दिल
कैसा उथल-पुथल होता है। साँस रोके बस देखते जाओ। वैसे सब जानते
हैं कि जीतेगा तो अपना नायक ही फिर भी कैसा-कैसा लगता है।
विचित्र-विचित्र ध्वनि के साथ कुछ तीखा वाद्य संगीत और साथ ही
लोगों की च.... च... भी। लगता है अब कोई रोमांचकारी दृश्य है।
वह फिल्म ही क्या जिसमें कोई रोमांचकारी दृश्य न हो। कभी नाव
पर नायक व खलनायक लड़ रहे हैं और नाव बही जा रही है भँवर की
ओर। कभी मकान की मुँडेर पर या पहाड़ की चोटी पर घूँसेबाजी हो
रही है। लगता है बस अब गिरे कि अब गिरे। कभी... पता नहीं इस
फिल्म में कैसा दृश्य है। मैंने खिड़की की दरार में दो
उँगलियाँ डालीं। हल्की-सी चर्र के साथ थोड़ी खुल गई खिड़की।
अपनी बुद्धि पर मैं गर्वित हो उठा पर दूसरे ही पल मुँह से गंदी
गाली निकली। कमीने। पीछे परदा भी डाल रखा है- इतना मोटा कि
आँखें फाड़-फाड़ कर देखें तो भी झलकी भी न मिले।
ये लो। सब कहकहे लगा रहे हैं। हॉल होता तो सीटियाँ बज गई
होतीं। जरूर कोई मजेदार घटना घटी होगी। महमूद है न इसमें। खूब
हँसाता है पट्ठा। मैंने परदे का तार हलके से उठाया। बस! इतना
सा खुला रहे तो काफी है। वाह क्या सुन्दर दृश्य हैं। शायद
कश्मीर का है तभी तो चारों ओर बर्फ ही बर्फ। यहाँ जरूर कोई खास
घटना घटेगी। अक्सर दृश्य परिवर्तन के साथ-साथ कहानी में भी
मोड़ आता है। ... देखा मैंने ठीक सोचा था न। नायक-नायिका
प्रेमालाप में मग्न हैं और ये तीन-चार अज्ञात व्यक्ति अचानक
कहाँ से आ धमके। 'ए मिस्टर क्या हो रहा है? बड़े तैश के साथ
किसी नौजवान ने कहा। जी... जी.. मैं पिक्चर, पिक्चर देखनी है
तो इधर आओ न। बड़ी हमदर्दी व बड़े प्यार से बोला। मैं खिड़की
से हट कर दो सीढियाँ एक छलांग में कूद कर बरांडे में पहुँच
गया। मन उत्साह, आशा और उल्लास से झूम उठा। 'टेलीविजन देखेगा-
ऐं तड़ाक से एक तमाचा मेरे गाल पर पड़ा। तेरे बाप का टेलीविजन
है न। मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। लड़के को किसी ने अंदर
खींच लिया। मैं गाल सहलाता अपमान का घूँट पिए सड़क पर आ गया।
जहन्नुम में जाए ऐसी पिक्चर। घंटेभर से सर्दी में ठिठुरते हुए
खड़े हैं ऊपर से यह तौहीन! मुझे सच में कोई शौक थोड़े ही है
पिक्चर का। मगर कल स्कूल में सभी बच्चों की चर्चा का विषय होगा
यही पिक्चर।
सब बोलें और मैं चुप रहूँ। कोई कहीं कोई कहीं जाकर देख ही आते
हैं और डींगे ऐसी मारते हैं मानो घर में टीवी खरीद रखा हो। अब
कल सब बच्चों के सामने नक्कू बनना पड़ेगा। जो थोड़ा सा भी देख
लिया होता तो चर्चा में शामिल हो जाता। बढ़-बढ़ कर बोलता मैं
भी। मेरा गाल झनझना रहा था। मैं मायूस-सा घर की ओर चल पड़ा।
पैर आगे-आगे बढ़े जा रहे थे और मन में कश्मीर की वादियाँ लहरा
रही थीं। अब हम लोग कश्मीर गुलमर्ग तो जाने से रहे। पिक्चर के
दृश्यों से ही तो अंदाजा ले सकते हैं। वाह क्या हरियाली, क्या
झरने, प्राकृतिक सौंदर्य की कैसी मोहक छटा 'ठहरो शांति... है।
एक गूँजता हुआ बेचैन स्वर सुनाई दिया। साथ ही रेलगाड़ी की सीटी
और इंजन के घर्र-घर्र। हाय! जाने क्या होने जा रहा है। शायद
नायिका रुठ गई है और भागी जा रही है रेल की पटरियों पर -
आत्महत्या के इरादे से। तभी तो नायक इतना व्याकुल होकर चीख रहा
है। समझ गया, बस यही होगा। काश! मैं देख पाता। एक चीख नायिका
की... लो आ गई रेल के नीचे बेचारी। और अपने मन को मैं रोक न
पाया। खिड़की पर फिर से जाकर खड़ा हो गया। अरे, यहाँ तो पासा
ही पलट गया जान पड़ता है। नायिका खून से लथपथ नायक के शरीर से
लिपटी चीखें मार-मारकर रोये जा रही है। मुझे पता नहीं क्यों
रोने वाले दृश्य अच्छे नहीं लगते। पार्श्व संगीत ऐसा करुण होता
है कि संग-संग मुझे भी रोना आ जाता है। फिर छिप-छिपकर आँसू
पोंछने पड़ते हैं। लड़का जो हूँ। लड़के रोते अच्छे नहीं लगते।
मैं स्क्रीन पर से आँखें हटा लेता हूँ। मेरी दृष्टि जनता पर
जाती है। हाउसफुल है। महिलाओं की संख्या अधिक है। हर एक के हाथ
में ऊन और सलाइयाँ हैं। हाथ फिल्म की ही गति से चल रहे हैं।
गृहस्वामिनी कैसी तनी हुई बैठी है। गर्व उनके पोर-पोर से फूटा
पड़ रहा है। घर में टेलीविजन है यही उनकी हैसियत बताने के लिए
काफी है। पुरुषों की संख्या अपेक्षाकृत कम हैं। जो है उनकी
आँखें तो हैं टीवी पर, पर बोले जा रहे हैं राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय विषयों पर। या फिर क्रिकेट पर या...। बच्चों को
शायद टाफियाँ बाँटी गई हैं। कैसे चबा रहे हैं कुटुर-कुटुर।
मेरा मन विद्रोह कर उठा। आखिर मैं भी तो बच्चा हूँ। मुझे भी तो
ये सब सुविधाएँ प्राप्त करने का पूरा हक है। लेकिन हम गरीबों
की सुविधा-असुविधा का किसको ख्याल? हमें तो बस बदबूदार नालियों
के साथ या फुटपाथों पर बनी झुग्गियों में रहने का ही हक है।
कहने को हम देश का भविष्य हैं, देश के कर्णधार हैं। हम पर दया
दिखाना भी पाप है सहायता करना भी गुनाह है। किसी सार्वजनिक
स्थान में टीवी लगाकर यदि सरकार हमारे मनोरंजन का भी प्रबंधन
कर देती तो हम घर-घर गिड़गिड़ाने क्यों जाते?
एकाएक मेरे मन में एक विचार आया। क्यों न रोशनदान से देखने की
कोशिश करूँ। ऊपर से अच्छा दिखेगा। पर इतने ऊपर! अरे कोई खास
ऊँचा भी नहीं। एक पैर फाटक पर, दूसरा फाटक की पट्टी पर। तीसरा
डग खिड़की पर चौथा कैनोपी पर और तभी यह पकड़ में आ गई रोशनदान
की रेलिंग। मैं उससे लटक गया। थोड़ी देर लटके-लटके देखता रहा।
मजा आ गया। पर जल्दी ही हाथ दुख गए। फिर लगने लगा बाजू जोड़ों
से उखड़ जाएँगे। पैरों को अच्छी तरह टिकाने की जगह भी नहीं सो
टाँगें अलग टूटी जा रही थीं। बड़ी हिम्मत से मैं रोशनदान की
पट्टी के सहारे सटकर बैठने में सफलता प्राप्त कर सका। बस अब
कोई चिंता की बात नहीं। आराम से पूरी पिक्चर देख ली जाएगी।
पुट्ठों में थोड़ा दर्द ही तो होगा। ऊँह! देखा जाएगा।
मैं बड़े आराम से पिक्चर देखता हूँ। मन ही मन उस कारीगर को
धन्यवाद देता हूँ जिसने इतनी कुशलता से इस झरोखे का निर्माण
किया। उस इंजीनियर को दुआ देता हूँ जिसने इस इमारत का नक्शा
बनाया और जिसने कमरे के बाहरी ओर एक रोशनदान की व्यवस्था भी
की। आत्मविभोर होकर देखता रहा मारधाड़। चीख-चिल्लाहट,
लड़ाई-झगड़ा। कभी प्रेम का नाटक, कभी हास्य भरी नौटंकी। कभी
नृत्य... कभी हीरो के बड़े-बड़े करिश्मे। अकेले दस-दस को पछाड़
रहा है। जितेन्द्र पर ऐसे रोल खूब फबते हैं- शाबाश। देखा, सब
तालियाँ बजा रहे हैं। मैं भी दोनों हाथों से तालियाँ बजाने
लगा। धड़ाग। पलभर के लिए मस्तिष्क क्रिया शून्य हो गया, जिव्हा
गूँगी हो गई, हाथ-पाँव ऐंठ गए। कमरे में अभी भी आनंद मिश्रित
कहकहे सुनाई दे रहे थे। गलियों में रौनक हो गई थी, बत्तियाँ
जगमगाने लगी थी, हाफ टाइम हो गया था। बाहर जाने वाले
टीका-टिप्पणी कर रहे थे, कोई कहता वो गाना कितना प्यारा था,
कोई कहता फलाँ की एक्टिंग कमाल की है और मैं गुमसुम दर्द को
पीता हुआ गली में पड़ा रहा। न मुँह से बोल निकल रहा था कि किसी
को बुला लूँ। न पैर उठते थे कि घर चला जाऊँ बस पड़ा रहा जब तक
कि एक मानव की दृष्टि मुझ मानव पर न पड़ गई। क्या हुआ? गिर गए,
कैसे गिरे? मुझे उठाकर खड़ा करते हुए उसने कहा- चोट तो नहीं
लगी। 'नहीं मैंने कहा। पर चोट तो लगी थी, मेरे शरीर को ही नहीं
मेरे दिल को लगी थी मेरे दिमाग को लगी थी चोट।
धीरे-धीरे सब अपनी-अपनी जगह लौट आए और मैं भी वापस अपनी सीट
अपने रोशनदान पर पहुँचना चाहता था पर शरीर ने जवाब दे दिया।
मैं फिर खिड़की पर आकर खड़ा हो गया। मेरी नजर उसी नौजवान पर
पड़ी। हँस-हँस कर दोस्तों से बातें कर रहा था। मेरी कनपटी फिर
झन्ना उठी। हाथ-पैरों का दर्द भूल गया और गाल सहलाने लगा।
थोड़ी देर के लिए वह कमरा, कमरे का बढिया फर्नीचर, फर्नीचर पर
सजे सुसभ्य दर्शकगण- सभी मुझे चिढ़ाने से लगे। मेरी मजबूरियों
पर हँसते से जान पड़े। मेरे मन में एक कुटिल विचार आ ही तो
गया। पलभर के लिए सोच-विचार किए बिना ही जैसे मैंने अपना
निश्चय दृढ़ कर लिया। मैंने खिड़की को जरा जोर से खड़का दिया।
परदे के काफी अंदर तक दो उँगलियाँ डाल उसके तार को उठाया। वही
लड़का उठा और लपककर खिड़की पर आ गया। परदा हटाया और खिड़की
पूरी खोल दी। मैं नीचे की ओर दुबक गया। 'क्या है बेटे? एक
कोमल-कोमल स्वर कानों में पड़ा। लड़का प्रश्नकर्ता के प्रश्न
का उत्तर देने के लिए पीछे मुड़ा। मैंने पेंट की जेब में रखी
कंची बाएँ हाथ की तर्जनी पर रख निशाना साधा और सामने रखे टीवी
पर दे ही तो मारी। कंचे खेलने में मेरा निशाना कभी चूकता नहीं।
तड़ाक! और शीशा झन-झन करता कमरे भर में बिखर गया। कमरे में
बैठे लोग हक्के-बक्के रह गए। कोई समझ ही नहीं पा रहा था कि
आखिर हो क्या गया? कोई सोच रहा था यह फिल्म का ही हिस्सा है।
कोई कहता शीशा वोल्टेज के फ्लक्चूयेशन से चटख गया। मैं भाग कर
बाउंड्रीवाल के पीछे हो लिया। दर्शकगण अपने-अपने घर लौट रहे
थे। लड़के इधर-उधर बौखलाए घूम रहे थे। गृहस्वामिनी नौकर की मदद
से बिखरे शीशे बटोर रही थीं। थोड़ी देर पहले सब तमाशा देख रहे
थे और मैं परेशान था। अब सब परेशान हो रहे थे और मैं तमाशा देख
रहा था। |