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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से शुभदा मिश्र की कहानी- वह मददगार


“हाथ रखिये...” पंडितजी ने कहा।
उन्होंने हथेली खोलकर मेज पर रख दी।
मेज के एक तरफ वे बैठी थीं, दूसरी तरफ पंडितजी। पंडितजी गौर से हथेली देखते रहें फिर आँखें सिकोड़कर देखने लगे। दूसरी हथेली की तरफ इशारा किया। उन्होंने दूसरी हथेली भी खोलकर रख दी। उसे भी आँखें सिकोड़े देखते रहे। फिर खिन्नता से दोनो हाथ हटा दिये।

“पंडितजी कुछ बताईये”...वे सहमकर बोलीं।
क्या बताएँ...कुछ बताने लायक नहीं है...पंडितजी वितृष्णा से बोले। फिर उनकी तरफ देखकर बोले...कुछ पढ़ी लिखी हो?

उनकी आँख में पानी आने लगा। साथ आई सहेली बोली... पंडितजी यह एम.ए. पास हैं। कुछ दिन एक कॉलेज में पढ़ाया भी है।
बोले...अपने से की होगी। उसमें भी बहुत मुश्किलें आई होंगी। इनके हाथ में तो है नहीं।
सदमे से बैठी रहीं। फिर कातर सी कहने लगीं- "पंडितजी जब मेरे हाथ में कुछ है ही नही, तब क्या मुझे आत्महत्या कर लेनी चाहिये?"
पंडित जी सतर्क हुए। कुछ सोचकर बोले...पहले इस जंजाल से निकलो। प्रयास करती रहो। फिर कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जो तुम्हारा मददगार होगा। सहारा होगा।

उनका वक्त खतम हो गया था। बाहर खड़े दूसरे जिज्ञासु दरवाजे से झाँक रहे थे। वे दोनो उठकर बाहर आ गईं।
रिक्शे में बैठकर घर लौटते हुये सहेली समझाने लगी...अरे इस पंडित को कुछ आता भी है। इसकी तो कई भविष्यवाणियाँ एकदम गलत निकली हैं। शुरू में कुछ ठीक निकल गईं थीं। उसी के कारण प्रचार हो गया है। कुछ दिन में लोगों का भ्रम टूट जायेगा। फिर देखना, कोई झाँकने भी नहीं आयेगा इस पंडित के दुआरे। मिजाज देखो इनका। हाथ ऐसे हटाया जैसे कोई अपशकुन देख लिया हो।

सदमें में डूबी घर पहुँचीं। घर के काम-काज में खुद को लगा दिया। ध्यान पंडितजी की बातों में ही लगा रहा। सहेली कह रही थी, इस पंडितजी को कुछ आता-जाता नहीं। मगर पंडितजी की यह बात तो एकदम सच थी। एम.ए. तक की पढ़ाई में कितनी दुश्वारियाँ आईं। कितनी झंझटें। इतनी दुश्वारियाँ, इतनी झंझटों के बावजूद कितनी मेहनत की। विशेषकर एम.ए. की परीक्षा के समय तो दिन को दिन, रात को रात नहीं समझा। मगर ”अंक सूची“ देख कलेजा फट गया। घर में सब मेरिट होल्डर। सो एकदम ही उपहास पात्र बन गईं। ”मंद बुद्धि तो है ही, भाग्य भी खोटा।“ नौकरी के लिये कहाँ-कहाँ नहीं भटकीं। मिली भी तो कैसी जिल्लतवाली। फिर शादी के लिए भटकन। हुई तो साक्षात नरक। इसी नरक से मौका निकालकर सहेली के साथ किसी तरह इन पंडितजी से मिलीं। और इन पंडितजी ने भूत, भविष्य, वर्तमान सब एक कर दिया... इस हाथ में कुछ बताने लायक ही नहीं है...

मगर सोचती रहतीं... ये पंडितजी तो इस शहर के सबसे बड़े पंडित माने जाते हैं। लोग बताते हैं, आज ज्योतिषी के रूप में इनके नाम का डंका बज रहा है। मगर कभी ये भी थे एक बेकार युवक। पढ़ाई के बाद नौकरी की तलाश में भटक रहे थे। कब मिलेगी नौकरी, जानने के लिये ज्योतिषियों के पास जाया करते। ज्योतिषियों के पास जाते-जाते ज्योतिष में रुचि बढ़ गई। खुद ज्योतिष की किताबें लाकर पढ़ने लगे। रूचि बढ़ती गई। ज्योतिष की किताबों से घर भरता गया। पढ़-पढ़कर लोगों का हाथ देखते। कुंडली देखते। लोग कायल होते। नौकरी मिल गई। प्राध्यापक हो गए। वहाँ भी सबके हाथ देखते। साथी प्राध्यापकों के। कॉलेज के कर्मचारियों के। लोग भी हाथ दिखाने के लिये बेचैन रहते। कई बार प्राचार्य महोदय भी अपने कक्ष में बुलाकर अपना हाथ दिखाते। घर बुलाकर परिवार भर की जन्म कुंडलियाँ बँचवाते। कायल होते। प्राध्यापिकी से प्रोफेसर हो गए। विभागाध्यक्ष हो गए। मगर ज्यादा विख्यात हो गए ज्योतिष के रूप मे। दम मारने की फुरसत नहीं। विभाग को समय नहीं दे पाते। सो नौकरी छोड़ दी। पूरे पंडितजी बन गए। इन पंडितजी से मिलने समय लेना पड़ता। उन्हें भी कई प्रयासों के बाद पाँच मिनट का समय मिला था। इन पाँच मिनट में उनकी अधमरी आत्मा और धराशायी हो गई।

धराशायी तनमन को बटोरकर हिम्मत जुटाती रहतीं। सहेली कह रही थी, इनकी तो बहुत सी भविष्यवाणियाँ एकदम गलत साबित हुई हैं। तब क्या किसी और ज्योतिष के पास जाएँ। गई थीं ऐसे ही मौका निकालकर एक दो ज्योतिषियों के पास। उन लोगों ने इस तरह निर्ममतापूर्वक हाथ तो नहीं हटाया था पर कष्टों से उबरने के समाधान सुझाये थे। किसी ने पति को वश में करने के मंत्र यंत्र बताये तो किसी ने ससुराल वालों को अनुकूल करने के। किसी ने साफ कहा, आप देवी बगुलामुखी की साधना कीजियेजी, तभी आपका कल्याण हो सकता है, तो किसी ने किसी और साधना का।

लांछनाओं, प्रताड़नाओं, यातनाओं की अँधेरी दुनिया में पिसते हुये वे कुछ भी नहीं कर सकती थीं। न कोई साधना, न कोई विशेष पूजापाठ अनुष्ठान, न कोई विशेष मंत्र जाप। टोना टोटका तक नहीं। ऐसे में इन पंडितजी की बात ही उन्हें सही लगने लगी- ”पहले इस जंजाल से निकलो। प्रयास करो फिर तुम्हें कोई मददगार मिलेगा।“

पहले इस जंजाल से निकलो.....जेहन में घूमता रहता यही मंत्र।
कब मौका मिलेगा इस जंजाल से निकलने का। पहले एकाधबार निकल भागने की कोशिश की थी। पकड़ा गईं। जमकर कुटम्मस हुई थी। अब जाएँगी तो घड़ी मुहूरत देखकर ही जाएँगी। किससे पूछें घड़ी मुहूरत। कोई ज्योतिषी घर से भागने के लिए घड़ी मुहूरत बताने वाला नहीं। क्या ही अच्छा होता, वे खुद ही अपने हाथ की रेखाएँ पढ़ पातीं। सही अवसर निकाल पातीं।

एक छोटा सा अवसर मिलता है बाहर निकलने का। बाजार से सब्जी-भाजी, किराना सामान लाने का। पैसा खर्च करने में कोई विशेष निगरानी नहीं थी। सो इस बार बाजार गईं तो एक किताब ले आईं...”.कीरो की हस्त रेखा विज्ञान“। समय निकालकर पढ़ती रहतीं। पढ़ती जातीं और अपना हाथ देखती जातीं। ओह, तो ये है जीवन रेखा। यह है हृदय रेखा, यह है मस्तिष्क रेखा। यह है भाग्य रेखा। यह है गुरू पर्वत, यह शनि पर्वत, यह बुध पर्वत, यह शुक्र, यह मंगल। सारी रेखाएँ टूटी फूटी, कटी फटी। ज्यादा गौर से भाग्य रेखा देखतीं। टूटी-फूटी तो थी ही। तिस पर कितने ही द्वीप, क्रास। देखती जाएँ। सदमे से जड़ होती जाएँ। फिर खुद को हिम्मत बँधातीं...अरे कीरो की तो कई बातें गलत मानी गई थीं। फिर दूसरे ”हस्त रेखा विशेषज्ञ“ की किताब, फिर तीसरे। फिर चौथे। किसी में मुख्य रेखाओं को महत्व दिया गया था, किसी में सूक्ष्म रेखाओं को। किसी में पर्वतों को। पर्वत सब खिसके हुये। सूक्ष्म रेखाओं का तो मानो पूरी हाथेली में जाल। एक दूसरे को काटती हुई सूक्ष्म रेखाएँ। पढ़ती जाएँ। और उलझन में पड़ती जाएँ। किसी किसी पुस्तक में उनके जैसी भाग्य रेखा के बारे में लिखा था... यह भाग्य रेखा नहीं, दुर्भाग्य रेखा है। ऐसी भाग्य रेखा से भाग्य रेखा का न होना ही अच्छा है।

सदमे की आदी हो चलीं थीं। पर पंडितजी की बात आस बँधाती, ”कोई व्यक्ति ऐसा मिलेगा जो मददगार होगा। सहारा बनेगा।“ हाथ की रेखाओं से तो ऐसा कुछ समझ में नहीं आ रहा है। जरूर यह ग्रह नक्षत्र की दशाओं में होगा। इस बार बाजार गई तो ले आईं ”कुंडली दर्पण“। डूब गईं उसमें। अपनी जन्म कुंडली तो थी नहीं। सो अंदाज से बनाई। बना क्या, तो लग्न में ही शनि मंगल राहु। काल सर्प योग भी। और भी कई दुर्भाग्यपूर्ण योग। सिर धर कर बैठतीं। फिर उबरतीं। अरे इस ज्योतिषी ने लिखा है वही अंतिम सत्य थोड़े ही है। एक से एक नामी ज्योतिषियों की किताबें लाकर पढ़ती रहतीं। घर में खलबली मच गईं...यह मूर्ख ज्योतिष की किताबें पढ़ती रहती है। कुछ समझती भी है। सबसे पहले ननद ने हाथ आगे किया...भाभी, जरा मेरे बारे में बताओ। बोलीं...पूछो। वह पूछती गई- अपने मुकदमे का फैसला, नौकरी में तरक्की, स्वास्थ्य। वे बताती गईं- ननद की आँखें फटी की फटी रह गईं। इतने ज्येतिषियों के पास गई थी। इतने सटीक उत्तर नहीं मिले थे। ननद, फिर देवर, फिर ससुर, फिर सास, फिर नौकर-चाकर, फिर अड़ोसी-पड़ोसी, परिचित। फिर?फिर बर्दाश्त बाहर। जिसे अब तक जड़ बुद्धि, निकम्मी, फूहड़, दरिद्र साबित करते थकते नहीं थे, वह घर भर की जन्मकुंडली खोलकर रख रही है। एकदम बर्दाश्त बाहर।

सबसे ज्यादा बर्दाश्त-बाहर पति को।
इस नागिन सी उभरती का तो फन ही कुचल देगा वह... गंदी गालियाँ तो देता रहता ही था, अब गंदे तोहमत... “माली का हाथ देख रही थी...भविष्य बता रही थीं। अंदर में सोच रही थी...इस मुस्टंडे के साथ कैसा मजा आयेगा। पड़ोसी से हँस हँसकर बातें कर रही थी। स्पष्ट वह पुरूष को उकसाने वाली हँसी थी। एकदम वेश्याओं जैसी।” दांपत्य अक्षमता के लिए महँगे महँगे इलाज कराता, हार खाता पति, उन पर वैसे ही बौखलाया रहता था। उनकी इस नई उपलब्धि से पागल-सा हो गया। लांछनों, तोहमतों, आरोपों की बौछार करता उसे होश ही न रहता कि बक क्या रहा है...कभी कहता, वेश्या जैसी दिखती है, तो कभी...तेरे जैसी मुस्टंडी को तो देखकर ही कोई भी नपुंसक हो जायेगा।

और एक दिन जानपर खेलकर भाग ही लीं उस रौरव नरक से।
मगर जाएँ कहाँ? मायका? एक बार भागकर गई थीं मायके। परेशानियों से घिरा मायका। उन्हें देखते ही जैसे सबको साँप सूँघ गया था। पीछे-पीछे हाकिम की तरह जैसे हंटर लिये पति पहुँच गये। माँ-बाप ही नहीं, पूरा परिवार उस नीच अत्याचारी के स्वागत में बिछ-सा गया। सभी जैसे गिड़गिड़ा रहे हों...ले जाओ भाई, ले जाओ, इस मंदबुद्धि, भाग्यहीना मुसीबत को। बँधे बकरे की तरह कसाई के साथ फिर चली आई थीं।

गई ही नहीं मायके। कोई और भी क्यों झंझट मोल लेता उनके जैसी भागी हुई को अपने घर रखकर। कुछ समझ ही नहीं आया तो दिल्ली चली गईं। दो दिन स्टेशन में ही रह गईं। बहुत सख्ती नहीं थीं उस समय। सो गरीब यात्रियों के बीच घुसकर सो लेतीं। वहीं प्रसाधन कक्षों में निपट लेतीं। निकलते समय कुछ पैसे पर्स में डाल लिये थे। सो पास के ठेलों में बिकते भोज्य पदार्थों से कुछ खा लेती। कभी कोई कुछ पूछता तो सहूलियत के मुताबिक झूठ सच कुछ भी बता देतीं। हाँ, स्टेशन में बिकते अखबार जरूर लेतीं। प्लेटफॅार्म में एक तरफ बैठी पढ़ती रहतीं- “आवश्यकता है” का विज्ञापन। एक विज्ञापन दिखा ”जरूरतमंद महिलाओं को काम दिलाने वाला केन्द्र“। हिम्मत कर पूछती पाछती, बस पकड़कर पहुँच गईं। सब बातें खोलकर बता दी। वे लोग आपस में चर्चा करती रहीं। फिर बोलीं...आपको काम की जल्दी है। काम तो इस समय एक ही है, मेड का। कामवाली बाई का। कर लेंगी? बोलीं...बिल्कुल कर लूँगी, मगर मेरे रहने का भी प्रबंध होना चाहिए। उन लोगों ने उन्हें ऐसा ही घर दिया। वे तड़के सुबह से लेकर रात गये खटतीं। झाड़ू पोंछा चौका बर्तन, चाय नाश्ता, खाना बनाना, पूरा घर व्यवस्थित रखना। रात अपनी कोठरी में सोतीं तो ध्यान उन पंडितजी की बात पर। ”कोई मददगार मिलेगा।“

हाथ की रेखाओं में तो यह बात दिखती नहीं। कुंडली बनाकर भी देखा था। वह तो और गड़बड़ निकली थी। जरूर यह उससे भी परे बात होगी। पंडितजी इतने ज्ञानी हैं, अपने ज्ञान से ही बोले होंगे। सोचतीं रहतीं.....इस घर में कौन उनका मददगाार हो सकता है! क्या मकान मालिक स्वयं या उनके लड़के, या आने जाने वाले रिश्तेदार, परिचित। अपने ज्योतिष ज्ञान के अनुसार उनका विश्लेषण भी करती रहतीं। ऐसा उदार कोई न लगता। उल्टे उन्हें सीधी जान उन पर अपना अपना काम लादते रहते। कोई फरमाता, मेरी कमीज प्रेस कर देना बाई, तो कोई आज मेरे लिये फलाहार बना देना, तो कोई आज मेरी अलमारी साफ कर देना। आपस में बतियाकर हँसते भी... काम तो खैर करती है बाईं मगर अखबार ज्यादा गौर से पढ़ती है।

और एक दिन उन्हे अखबार में दिखा विज्ञापन...एक ”प्रतिष्ठित ज्योतिष केन्द्र को ज्योतिषियों की जरूरत है“। फिर हिम्मत की। अकेले में उन्होंने फोन में निर्देशक से बात की...सर, मैं ज्योतिष तो नहीं हूँ पर मैंने ज्योतिष पढ़ा बहुत है। बोले...आकर मिलिये। मौका निकालकर धड़कते दिल से मिलीं। जमकर परीक्षा ली उन लोगों ने। काम मिल गया। तनखा, उन लोगों ने जो कहा, मान लिया। मगर फिर रहने की समस्या! कोठरी तो तभी तक थी, जब वे कामवाली बाई थीं। अब?

अब अखबारों में देखना शुरू किया, ”किराये के लिए खाली है का विज्ञापन“। एक विज्ञापन जँचा। फोन कर बात की। बताया कि मैं अमुक ”ज्योतिष केन्द्र“ में काम करती हूँ। विज्ञापन दाता ने संभवतः उस ज्योतिष केन्द्र के संचालक से बात की। आरंभिक हिचक के बाद उन्हें कमरा दे दिया। देखता कि यह किरायेदारिन अपने कार्यालय से बड़ा सा बैग लेकर आती है। बैग में ढेर सारी जन्मकुंडलियाँ, हथेलियों के छाप, ज्योतिष की किताबें। रात गये सिर गड़ाये पढ़ती रहती है। लिखती रहती है। बस, वह भी अपना हाथ दिखाने लगा। अपना हाथ, फिर पत्नी का, फिर बच्चों का। फिर उनके रिश्तेदार, पड़ोसी, परिचित क्यों पीछे रहते। हाथ, फिर जन्म कुंडली, फिर पीड़ित ग्रहों की शांति के लिये रत्न, फिर उन रत्नों से संबंधित मंत्र यंत्र। व्रत उपवास, अनुष्ठान,टोटकें। बहुत कुछ अध्ययन उन्होंने किया हुआ था ही, बहुत कुछ वे सीख रही थीं।

यह सब सीखते, करते उनका ध्यान बराबर तलाशता रहता, वह चेहरा जो उनका मददगार हो सकता हो। उनके ग्रह नक्षत्रों का ध्यान कर विश्लेषण करती रहतीं... क्या यह नया मकान मालिक? क्या उनके बेटे-बेटी, रिश्तेदार? विश्लेषण की भी जरूरत नहीं। घरवाले स्पष्ट उन्हें अपने कब्जे में रखना चाहते। अड़ोस-पड़ोस के जो लोग उनसे अपनी कुंडली बँचवाने, हाथ दिखाने या मुहूर्त लग्न आदि पूछने आते, वे अक्सर दक्षिणा स्वरूप कुछ राशि देकर जाते, क्योंकि मान्यताओं के मुताबिक बिना दक्षिणा दिये सुफल नहीं मिलता। यह सब घरवालों को नहीं सुहाता। मिलने आने वालों को दरवाजे से ही बिदका देते। वे गुस्सा पीती रहतीं। उन सब से घ्यान हटाकर अपने ज्योतिषकेन्द्र में तलाशतीं, कौन होगा मददगार, सहारा! अन्य ज्योतिष? निदेशक? साथी ज्योतिषी जलते कि निदेशक इस महिला को ज्यादा ध्यान देते हैं। निदेशक महोदय अपने दाँव में। सारा काम उनसे करवाते। जरा मरा सुधारकर अपना दस्तखत, अपना ठप्पा लगा देते। पैसे खरे करते। एकाध बार हिम्मत कर वेतन वृद्धि की बात कीं तो साफ बोल गए...”हम भी तो आपको ट्रेनिंग दे रहे हैं। ज्योतिष के रूप में तराश रहे हैं, वर्ना खुद बताइये आपको आता क्या था।“

समझ गईं, इन दोनों से मुक्ति पानी है। करें तो क्या? खर्चे की आदत नहीं थी। सो थोड़ा सा पैसा हो गया था। फिर हिम्मत की। लोन लेकर, आसान किश्तों मे, एक बेडरूम का फ्लैट ले लिया जाये। दौड़ धूप करतीं। कदम कदम पर झंझट, परेशानियाँ। फँसतीं, फिर युक्ति निकालकर उबरतीं। यों फँसते, युक्ति सोचते, उबरते, मददगार वाली बात दिमाग से दूर होती गई। नित नई परेशानियाँ सुलझाते मददगार महोदय जाने कहाँ बिला गए। आखिर मिल ही गया एक छोटा सा फ्लैट। काम छोड़ते समय ज्योतिष केन्द्र के निदेशक ने भारी धमकी दी... ”आपको सिखाया है, पढ़ाया है, ट्रेनिंग दी है, केस कर देंगे“। मकान मालिक ने भी बड़ा बवाल मचाया...”जब आपको कोई जानता तक न था, तब हमने जगह दी“। उन्होंने सब झेल लिया। कर लो, जो करना हो। नये फ्लैट में आ ही गईं। सामने छोटा सा बोर्ड टांग दिया- ”ज्योतिष केन्द्र, यहाँ ज्योतिष की कक्षाएँ भी लगती हैं।“

ज्योतिष का आकर्षण! दूसरे तीसरे दिन से ही लोग आने लगे। हाथ दिखाने, जन्म कुंडली बंचवाने। मुहूर्त पूछने। ज्योतिष सीखने को उत्सुक लोग भी आते....लड़के लड़कियाँ, स्त्री पुरुष, बुजुर्ग, गरीब अमीर सभी तरह के लोग। उन्होंने समय तय कर दिया। सुबह भविष्य जानने वाले लोग। शाम को ज्योतिष प्रशिक्षण की कक्षाऐं। धीरे से एक सहायक भी रख लिया जो फोन रिसीव करे। लोगों को ”मैम“ से मिलने का समय दे। फीस ले।

मेहनत रंग लाई। उनका ज्योतिषकेन्द्र चमक गया।कुछ विस्तार भी पा गया। अपने प्रशिक्षित छात्रों में से कुछ को अपने सहायक ज्योतिषी के रूपमें रख लिया। उनसे जिज्ञासुओ का भविष्य बँचवातीं। संशोधन, सुधार स्वयं करतीं। स्वयं खूब पढ़ती भी रहतीं...वनस्पति जगत से संबंधित ज्योतिष, पक्षीजगत से संबंघित ज्योतिष, जीव जंतुओं से संबंधित ज्योतिष। ज्योतिष शास्त्र के विस्तार का तो अंत नहीं। न ही उसकी गहराई की थाह का। जितना पढ़ें, जितना जाने, कम है। सो ज्योतिष से संबंधित कार्यक्रमो, गोष्ठियों, सेमीनारों में जाने लगीं, विद्वान ज्योतिषियों को गौर से सुनतीं, चर्चा करतीं, अपना शोधपत्र भी पढ़तीं, सादर आमंत्रित की जाने लगीं। ज्योतिष का सीधा संबंध धर्म से, कर्मकांड से, आध्यात्म से, सो श्रेष्ठ आध्यात्मिक गुरूओं से भी मिलने का अवसर मिलता, चर्चा करतीं, आशीर्वाद पातीं, मन प्राण गदगद हो जाते।

कि एक दिन उनका एक प्रशिक्षित शिष्य उनके कक्ष में आया। वे ध्यान से कुंडलियों का अध्ययन कर रही थीं। बोला“मैम जरा एक महिला का हाथ आप स्वयं देख लीजिये। क्या बताऊँ, मुझे तो समझ नहीं आ रहा है।”
“ले आओ।”
महिला आईं। सामने कुर्सी पर बैठीं। मेज पर हथेली फैला दिये।
वे देखती रहीं। जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा, हृदय रेखा, जगह जगह से टूटी, जगह जगह द्वीप, क्रास, भाग्य रेखा साक्षात दुर्भाग्य रेखा। पूरी हथेली में एक दूसरे को काटती सूक्ष्म रेखाओं का जाल, खिसके, दबे पर्वत, हूबहू उनका हाथ। सन्नाटे में आ गईं। सिर उठाकर महिला का मुँह देखा। हजार जख्म खाया, व्यग्रता से उन्हें ताकता प्रताड़ित, अभागा चेहरा।
कुछ बताईये मैम...सामने बैठी महिला कातर स्वर से पूछ रही थी।

उनके जेहन में बरसों पहले का दृश्य घूम गया... ”पंडितजी, तब क्या मुझे आत्महत्या कर लेनी चाहिये!“ बोलीं- "पहले इस जंजाल से निकलिये। प्रयास करते रहिये। फिर आपको कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जो आपका मददगार होगा। सहारा होगा।“ महिला का तनावग्रस्त चेहरा तरल हुआ। उजास सा फैल गया। श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर चली गईं। शिष्य उन्हें आश्चर्य से सप्रश्न देखता रह गया।

१ नवंबर २०२२

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