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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से मनोज सिन्हा की कहानी- बुल्लू बाबू


तब मैं छोटा था, स्कूल जाने की उम्र नही हुई थी। अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ, रिटायर्मेंट बस आने को है। मेरे पास बुल्लू बाबू और उनके घर की कुछ तस्वीरें हैं। मैं उसे दिखाता हूँ। बात अहाते की होगी। तब मैं बच्चा था। सम्मिलित परिवार का ज़माना था। चाचा-मामा के साथ चिपक कर घूमने-डोलने की उम्र थी। मैं घर का बड़ा लड़का था, इकलौता, सो प्यार कुछ ज्यादा ही मिला। तब वही घूमना-डोलना, किंडरगार्डेन हुआ करता था।

हमारा बंगला सड़क के किनारे था। बंगले के बरामदे मे सरदी की खिली गेहुआँ धूप सीधी आती थी। हम वहाँ धूप सेका करते थे। मेरे बचपन का सबसे बड़ा हैरत बुल्लू बाबू का घर था। सड़क के उस पार, चार-पाँच घरों को छोड़ कर एक मज़ार था। मज़ार के बगल से एक कच्ची गली अंदर की ओर जाती थी, जहाँ पतरिंग-घराने के लोग रहते थे, जो दूध बेचते थे। वहाँ बहुत सारे लोग रहते थे। सड़क और कच्ची गली के मुहाने पर बुल्लू बाबू का घर था। तब तक मैने कोई पढ़ाई नही की थी, लेकिन रात के खाने के बाद दादी किस्से सुनाया करती थी जिसमें किले का ज़िक्र होता था। मेरे लिये बुल्लू बाबू का घर, वही किस्से वाला किला था। चारों तरफ दीवारें इतनी ऊँची थी कि कोई हाथी पर चढ़ कर भी उनके अहाता को झाँक नही सकता था।

मज़ार वाली गली और सड़क के मुहाने से लगे उनका गेट था। लोहे की ग्रिल वाला गेट हमेशा बंद ही रहता था। सर्दी मे मज़ार के पास कंचे खेलने वालों का जमावड़ा होता था। दोपहर में कभी छुपते-छुपाते मैं वहाँ जाता था और ग्रिल से झाँकाता, तो बस उपर जाती सीढ़ियाँ नज़र आतीं। उनके घर का बड़ा रुआब था। लेकिन शायद उससे ज्यादा भय था। वे कभी रजवाड़े थे। ये गाँव उनका बसाया हुआ था। चाचा एक कहावत कहते थे – ‘हाथी बैठता है, फिर भी गदहे से ऊँचा होता है’। उनका घर बड़ा ऊँचा था।

हाँ, मेरे बंगले से उनके घर का शानदार उपरी हिस्सा दिखता था। उनका खपरैल घर किसी अंग्रेज के कोठी की तरह था। मुझे कभी समझ नही आया कि उनके घर का खपड़ा इतना लाल और सजा-सँवरा क्यों रहता है। हाँ एक बात और थी। उस जमाने मे काले मुँह वाले बंदर झुण्ड-के-झुण्ड आया करते और आसपास के खपरैल के घरों मे उधम मचाते। मेरे बगल वाला घर अनंत साह का खपरैल घर था। एक का पक्का दालान भी था। उनकी माँ दोपहर मे डंडे ले कर दालान पर आ जातीं और तेल वाले पुराने टीन के डब्बे को बजा-बजा कर बंदरों को खपड़े से दूर रखने की कवायद करती। लेकिन मजाल न थी कि एक भी बंदर बुल्लू बाबू के खपड़े पर चढ़ सके। एक बार दिवाली की सफाई के दौरान जब मैं अपने दालान पर चढ़ा तो जाना कि उनके खपड़े के उपर बाँस की बत्तियों मे कीलें गाड़ कर पूरे छप्पर पर बिछाया गया था।

कुछ साल बीते और मैं कोई पहली या दूसरी क्लास में गया। बुल्लू बाबू के घर मे हंगामा था। चाचा का उनके घर आना जाना था। पता चला कि उनकी एक मात्र बेटी, सोना, गुजर गई। दादी ने हाथ जोड़ कर भगवान से प्रार्थाना की कि ‘बड़ी माता’ से जैसा उनका परिवार उजड़ा, किसी और का न उजड़े। पूरा मुहल्ला डरा हुआ था। सीतला माता की पूजा जोरों से होने लगी। बुल्लू बाबू का घर उजाड़ हो गया। सोना मर गई। वह कुँवारी थी। एक बार मैंने उसे ग्रिल की गेट से देखा था, खूब लम्बी थी। उसके बाल परांदों के साथ घुटने को चूमते थे। दुबली पतली छरहरी-सी थी। मैंने उतनी लम्बी लड़की तब नही देखी थी।

उनके दीवारों से लगे ढेर सारे फूलों के पेड़ थे। सब मरने लगे, सिर्फ एक पेड़ को छोड़ कर। गेट से लगा हरसिंगार का बड़ा-सा पेड़ था। गर्मियों मे उसमें लद कर फूल आया करते थे। सुबह-सुबह मज़ार वाली कच्ची गली, फूलों से बिछ जाया करती थी। कई बार सुबह-सुबह मैं भी वहाँ से फूल चुन कर लाया करता था। फिर फूलों की डन्डियों के निचले भाग को अलग करता। तब मेरी उँगलियाँ केसरिया रंग से भर जाता। डन्डियों से आलता बनता। माँ और चाची उसकी महावर लगातीं। मुझे बड़ा अच्छा लगता।

अचानक ही लोगों को पता चला, सोना का भूत हरसिंगार के पेड़ पर रहता है। सबने उस पेड़ के नीचे से फूल लेना बंद कर दिया। चोनियाँ माय, जो हमारे यहाँ पानी भरने आया करती थी और पतरिंग घराने की एक बहु थी, ने यह बात दादी को बताई थी। एक बार जब मैं फूल लेकर आया तो दादी ने उसे नाली मे फिकवा दिया। मुझे सोना के भूत के बारे मे बताया गया। मैं हक्का-बक्का था। मेरे रोंगटे खड़े हो गये - भूत के देह की कोमलता से मैं सिहर गया।

बुल्लू बाबू की दीवार से लगा, सड़क के किनारे एक चौदह-इंच वाला नल लगा था। पूरे खंजरपुर मे चौदह-इंच वाले नल सिर्फ तीन ही थे। कहीं पानी आए या न आए चौदह-इंच वाले नल मे पानी आता था। कभी-कभी चोनियाँ माय नही आती और पानी लाने मुझे वहाँ जाना होता था। वहाँ पतरंगी परिवार की औरतों की भीड़ लगती। एक बार मैंने सुना था, कोई औरत कह रही थी- सोना जवान थी। एक ही बेटी थी। उसकी शादी बाप ने क्यों नही कराई। वह कहाँ जाएगी? यहीं रहेगी न! फूल के पेड़ पर...बेचारी।

परतंगी-घराने की गली से दसियों बैल गाड़ियाँ गुजरतीं। सुबह के फूल गाड़ी के चक्के से, बैलों के खुरों से और जाते हुए बैलों के गिरे गोबर से पिस जाते। उन्हें कोई नही छूता।

बुल्लू बाबू के घर कोई नहीं जाता था। सोना के मरने के पहले से वहाँ जाना मना था। सोना के मरने के बाद जो इक्का दुक्का लोग जाते थे उन्होंने भी जाना बंद कर दिया। सुना, बुल्लू बाबू को दौरे आने लगे हैं। तब सिर्फ सुरेश पंडितजी उनके यहाँ जाते थे। फिर बुल्लू बाबू घर पर पूजा रखने लगे। नाई के हाथों वे पूजा का खबर भिजवाते। भगवान की पूजा है, न्योता है, लोगों को जाना पड़ता था। लेकिन फिर भी चार-पाँच लोग ही जाते थे। मैं भी चाचा के साथ एक बार गया था। तब पहली बार उनका घर देखा था। बहुत सारे किस्में के गुलाब के बगीचे थे। चाचा ने बताया – सोना को गुलाब पसंद थे। लेकिन गुलाब के अलावा भी ढेरों फूल थे, अनगिनत। उन्हें तोड़ने वाला कोई न था। मैंने देखा, दीवारों पर टूटे काँच के टुकड़े चिपकाये गये थे। बंदर भी वहाँ नही आता था। बरामदे और घर के कमरों मे बहुत सी अलमारियाँ थीं। उनमे काँच के झरोखे लगे थे। झरोखों से बहुत सारे गुड्डे-गुड़िया निहारा करते थे – सोना को गुड़ियों का शौक था। अभी भी मुझे याद है, सारे गुड्डे-गुड़ियाँ बड़े ही सॉफ़्ट कलर के फेब्रिक से बने थे। कलकत्ता से कपड़ा लाया जाता था। चाचा को सब पता था।

घर के बाहर पूजा के लिये एक अलग मंडप बना था। मंडप से लगे बेल का बड़ा-सा पेड़ था, जिसमें बहुत सारे बेल लगते थे। काँटेदार पेड़ की पत्तियाँ चमकदार और हरी थी। अब चाचा रोज १०८ बेलपत्र बुल्लू बाबू के घर से लाते थे, शिवलिंग पर चढ़ाते थे, “ओंग नमः शिवाय” बोलते थे। फिर मंदिर का घंटा बजाते थे। तेरत-माली के यहाँ से अब बेलपत्र नही आता था। अब कोई भी बुल्लू बाबू के घर जा सकता था, फूल-बेलपत्र ला सकता था। किसी को मनाही न थी। पर कोई जाता न था।

लेकिन मैं एक ही बार उनके यहाँ गया। जब दादी को पता लगा कि चाचा मुझे बुल्लू बाबू के यहाँ लेकर गये थे, तब खूब हंगामा हुआ था। “मुझे तीन बेटा है लेकिन पोता एक है। ख़बरदार जो इसको लेकर गये”। फैसला हो गया। चाचा को खूब सुनना पड़ा।

लेकिन कुछ ही महीनों बाद बुल्लू बाबू गुजर गये, बेटी के पास चले गये। पूरा समाज गया था। तब मैं भी गया था। चाचा और दादी भी गये थे। कफ़न मे लिपटी उनकी लाश का पेट बड़ा-सा था, जिसे देख कर मैं डर गया था और घर आ गया था।

बहुत साल गुजर गये। मुहल्ले में सड़क बनी। सड़क फिर टूट गई। रोड पर ढेर सारे रोड़े-पत्थर डाल कर उसे फिर बनाया गया। अब सड़क से बुल्लू बाबू के घर की खिड़की दिखने लगी थी। मैं भी लम्बा हो गया। दसवीं पास हो गया था।

अब उनके घर मे सिर्फ उनकी पत्नी थी। बगल के कमरे मे किरायेदार रहने लगे थे। बुल्लू बाबू के घर का ग्रिल अब खुला रहने लगा था। उसमे जंग लग गया था। अब वह बंद नही होता था। अब पतरंगी घराने की बकरियाँ पत्ता खाने सीढ़ी से उपर जाने लगी थीं। हरसिंगार के पेड़ को छोड़ सब खत्म हो गया।

अब सुबह मेरी एक ड्यूटी थी, चोनियाँ माय के घर से दूध लाना। चोनियाँ माय अब हमारे घर मे पानी भरने नहीं आती थी। अब उनका बेटा बैल गाड़ी चलाता था, बाप के साथ। घर में गाये थीं। वे लोग दूघ बेचने लगे थे। मैं रोज आते-जाते देखता - बुल्लू बाबू के घर की दीवार पतरंगी-परिवार की ओर से ढह चुकी थी। गली से अब उनके पूजा का मंडप दिखने लगा था। ”देख रहे हैं न, कितनी कम जगह मे हम सब रह रहे है।” चोनियाँ माय अपने घर का हाल मुझे बताती। समाज मे रिश्ते होते थे। रिश्ते में वह मेरी भौजी थी, पर उम्र में वह मेरी माँ से बड़ी थी। कभी-कभी बचपन में वह मुझे नहलाया करती थी। सारे कपड़े उतार कर साबुन लगाती और दादी से कहती, ”पता नही मेरा देवर कब जवान होगा। देखो, इसका कितना छोटा-सा है।” मैं चिल्लाता “दादी”। दादी खीं-खीं करके हँसती।

फिर मैं कॉलेज जाने लगा। एक दो बरसातों के बाद बुल्लू बाबू की चारदीवारी का एक पूरा हिस्सा, जो पतरंगी घरानो की ओर था, गिर गया। बारिश में सारे ईंटों को उन लोगों ने उठा लिया। अब उनके घरों की बिदकती गर्माती गायें कूद कर बुल्लू बाबू के अहाते में जाने लगीं।

जहाँ दस बर्तन रहेंगे तो वे आपस में झंझनाएँगे भी। कभी-कभी ऊँच-नीच होने पर चाचा दादी को समझाते। पर दादी शाम को दिया दिखाते समय कातर स्वर में कहती “हे संध्या माता, अब मुझे अपने पास बुला लो। हम सब डर जाते। सबलोग दादी की खातिरदारी करने लगते। उन्हें खुश करने के लिये सूजागंज बाजार से मछली आती। दादी को मछली बहुत पसंद थी।

बुल्लू बाबू के घर सन्नाटा था। अब सड़क से चलते हुए, बुल्लू बाबू के घर की खिड़की दिखती थी, जहाँ हमेशा उनकी पत्नी बैठी रहती। उनके सफेद साड़ी पर मोटे नीले रंग का पाढ़ होता, आँखों पर मोटा चश्मा, पान के कारण एक तरफ के फूले गाल। वे हमेशा गेट की तरफ देखती रहतीं। मैं हमेशा सोचता, पता नहीं वे क्या सोचती होगी? मेरी दसवीं क्लास की हिंदी कविताओं में एक कविता थी,
“ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक! धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे!”
पता नहीं क्यों, पर बुल्लू बाबू की पत्नी को देख कर मुझे यह कविता हमेशा याद आती थी। हम क्या सोचते हैं? यदि नये की आशा न हो तो हम आशंकायें सोचते हैं। कुछ ऐसा जो रुला दे, जो शाम में चाचा को सूजागंज मार्केट भेज कर मछली लाने को विवश कर दे। दादी नही होगी तो क्या होगा। बाप-रे-बाप। “जाओ मछली ले कर आओ” चाचा को हुक्म दिया जाता। लेकिन कौन था जो बुल्लू बाबू की पत्नी के लिये सूजागंज बाज़ार से मछली लाता। वह गेट ताकती थीं, सड़क निहारती थीं और पत्थर थीं।

पर मेरी दादी भी गुजर गईं। मैं पढाई के सिलसिले में बाहर चला गया। कभी कभार आता था तो देखता था – बुल्लू बाबू की खिड़की की तस्वीर वही थी।

सड़क फिर टूटी और बनी। अब बुल्लू बाबू के घर पूरा दिखने लगा था – भहरा कर गिरा पूजा-मंडप, बगीचे में घुसे पड़े गाय- बकरिया, बेरंग छप्पर, अलमारी के काँच की दीवारों से आँखें फाड़ कर देखती गुड्डे-गुड़ियाँ, दीवारों पर उगे खर-पतवार, किरायेदारों के धूप में सुखाने को टँगे कपड़े, बुल्लू बाबू की पत्नी की स्थिर टँगी आखें।

बुढ़िया कब मरेगी –समाज में चर्चा थी। वह मरती क्यों नही है। कव्वा की जीभ खा कर जन्मी है। दोस्तों ने बताया, बुढ़िया के मरने के बाद, पतरंगी-खानदान सब हथिया लेगा। लेकिन वह मरेगी कब? पता नही। यह किसी को पता न था। वह जमीन जोग रही है। लेकिन किसके लिये, कौन है उसका? सब हम ले लेंगे, हमीं उसको श्मशान ले जायेंगे, आग देंगें, फोटो खिचायेंगे। हमहीं वारिस हैं। पतरंगी खानदान तब पसर कर सोयेगा। उनकी बहुओं के बच्चे होंगें। चोनियाँ माय दादी बनेगी। लोगों को बड़ी आशा थी।

फिर मेरी नौकरी बिहार के एक बैंक में लग गई। मैं घर आया करता था। वह ज़िंदा ही थी। पतरंगी परिवार की कुछ लड़कियाँ बचपन में बुल्लू बाबू के अहाते में बकरियों चराने आती थीं। वे अपने-अपने पसंदीदा गुड़ियों की निशानदेही कर ली थी। बुढ़िया के मरने के बाद जब काँच टूटेगा तो वे कौन-सी गुड़िया लेंगी। उनके घर के किरायेदार कहीं और चले गये। बुढ़िया के मरने पर तूफान आयेगा। कुछ नही बचेगा। लंकादहन होगा, लंकादहन।

कुछ साल और बीत गए। हमने अपना पैतृक घर बेच कर एक अच्छे मुहल्ले में घर बनाया। पर खंजरपुर आना जान लगा रहा। वहाँ मेरे दोस्त रहते थे। पता चला, बुढ़िया के मरने के बाद माधो-गोप का परिवार भी ज़मीन पर अपना दावा करेगा। वहाँ मंदिर बनाया जायेगा। समाज में तनातनी थी। पर बुढ़िया ज़िंदा थी। अभी कुछ नही करना है, नहीं तो बाभन का पाप लगेगा। बुल्लू बाबू ब्राह्मण थे। तब धरम-जति की लक्ष्मण रेखा थी, स्वर्ग-नरक का डर था।

मैंने और मेहनत की, पढ़ाई की। ऑफिसर की परिक्षा पास की। पोस्टिंग बम्बई (अब मुम्बई) में हुई। बुल्लू बाबू की पत्नी अब भी थी। वह ज़िंदा थीं। जिन्होंने उनके गुड्डे-गुड़ियों के लेने का हिसाब किया था, उनकी शादी हो चुकी थी। उन्यासी के दंगे में मुस्लिम परिवार उजड़ चुके थे। मज़ार गायब था। फिर मैं भी गुम हो गया।

दुनिया बदल गई। बेटा बड़ा हो गया। उम्र बढ़ने पर मैं सनकी हो गया। अब जल्दी गुस्साने लगा। भारत के पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद को लेकर मैं तनाव में रहने लगा। बेटे ने समझाया, “पापा, आप सोचिये। यदि सभी देशों की सीमाऐं खत्म कर दी जाय, तो क्या लोग लड़ना बंद कर देंगें?”

ये क्या बात है? मैं सोच में पड़ गया। फिर मेरी तबियत ख़राब हो गई, पेट की सोनोग्राफी हुई। डॉक्टर ने बताया अलसर है, काम के दौरान लम्बे समय तक नही खाने से हो गया है।

“वो कैसे?” मैंने डॉक्टर से पूछा।

“पेट से एंजाइम निकलता है, जो खाने को गलाता है। जब पेट खाली हो तब एंजाइम पेट को ही गलाता है, खुद को खाता है। यही अलसर है। खाना टाइम पर खाया कीजिये।” डॉक्टर ने बताया

सोना चली गई। फूल उजड़ गये। बुल्लू बाबू चले गये। दादी चली गई। मज़ार गुम हो गया। मैंने गूगल मैप पर बुल्लू बाबू का आहता देखा। अहाता के बीचोबीच एक गुम्बद-सा दिखा। गुम्बद के चारों तरफ मैदान था। वह गुम्बद क्या है, पता नहीं। अब क्या होगा पूछ कर। लोग चले जाते हैं। मंडप गिर जाता है। यादें ढह जाती हैं। समय पचाने वाला एंजाइम समाज को गलाता है, बदलता है। कभी गुम्बद, तो कभी मीनार, तो कभी कुछ और बनाता है। सीमाऐं मिटने से क्या होता है। चारदीवारी और घर और घर के कमरे के अंदर भी एंजाइम बनते हैं। चाचा-मामा के कंधे अब किधर हैं – अब किंडरगार्डेन है। यादें बदलने पर इतिहास बदलेगा। नहीं-नहीं इतिहास बदलने पर यादें बदलेगीं। पता नहीं - मैं कंफ्यूज़्ड हूँ। उम्र हो चली है। नये नैरेटिव्स, नये एंजाइम, इंजेक्ट किये जा रहे है – समाज गिनीपिग है। एक दिन यह खुद को खाना सीख जायेगा।

१ जुलाई २०२२

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