मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से कंदर्प की कहानी- वापस आओ रघुवीर


माँ आज बहुत रोई थी। माँ को रोते हुए किसी ने नही देखा लेकिन मुझे पता था कि माँ आज बहुत रोई थी। रोने के बाद माँ के दूध से भी उजले चेहरे पर जैसे सिंदूर मल जाता है। नाक और गाल सामान्य से अधिक लाल हो जाते है। पहले पापा अक्सर माँ को छेड़ते हुए कह देते थे, "अरे …क्या हुआ ...चेहरे की रंगत बढ़ गयी है!... रोई थी क्या सुखु?" लेकिन अब यह वाक्य सुनाई नही देता। बल्कि पिछले दो सालो से सुनाई नही दिया कि... रोइ थी क्या सुखु? दो साल बीत गए।

दो साल पहले उस रात माँ ने अचानक झिंझोडकर हम दोनो भाइयो को उठा दिया था, मैं और रघु। "सुन ….लगता है …तेरे पापा को अटैक आया है... हॉस्पिटल जा रही हूँ… ध्यान रखना।” माँ बोलते-बोलते ही घर से निकल गयी थी। पड़ोस के पांडे अंकल की कार की पिछली सीट पर टिका हुआ पापा का सर धीरे धीरे हमारी आँखों के सामने से गुजर गया था। वह रात मैने और रघु ने जाग कर ही काटी थी। उस रात घर अजीब सा डरावना लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे माँ की आँखों में उभरा हुआ डर पूरे घर की खिड़कियों और दरवाजे पर फैल सा गया है। माँ डरी हुई थी। वह डरी हुई थी अपने घोंसले के आस पास मँडराते हुए तूफान से। वह घोसला जिसका एक-एक तिनका उन्होंने बड़े जतन से सँवारा था। उसके बिखरने का डर उन्हें डरा रहा था।

हमारे घर में आने वाले परिचित अक्सर माँ से कहा करते थे, ”अरे सुखदा, तुम्हारी जिंदगी तो बस परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती है। थोड़ा इससे बाहर भी तो झाँको। कभी-कभी आकर मिल जाया करो।” माँ बस मुस्कुरा भर देती। अगर किसी ने ज्यादा कुरेदा तो वही टका सा जवाब जो मैं कई बार सुन चुका था,” क्या करूँ घर के काम ही इतने हैं।” तो क्या सच में माँ को इतने काम थे? अब सोचता हूँ तो लगता है कि मुस्कुरा कर कहा गया माँ का वह वाक्य जवाब कम गर्वोक्ति ज्यादा थी। हाँ, वैसे माँ के पास काम कम भी न थे। सुबह पाँच बजे उठ कर सबसे पहले नहाना और फिर हम तीनो का टिफिन। रघु के स्कूल की तैयारी। उसका हर दिन कुछ न कुछ समान गायब जो रहता था। पापा के आफिस जाने से पहले उनके कपड़े उनके हाथ में पकड़ाना। उनके पूजा घर की तैयारी करना। तुलसी चौरा में जल देकर जल्दी जल्दी परिक्रमा और फिर बर्तन साफ करती कुसुमा को साफ करने के लिए गंदे कपड़े देते हुए चाय की प्याली पकड़ाना। हम तीनो को बारी-बारी से बाहर जाते हुए ताकना। ऐसे न जाने कितने काम थे माँ के पास। ”एई तीन प्रानी के तुमहिं सम्हार रख्खे हो जीजी, तुमहि ते घर मा राउनक लागत है, नाही ते बिन सास-ससुर…।” कुसुमा के हाथ और मुँह एक साथ ही चला करते। कुसुमा की धाराप्रवाह बड़बड़ रोज जारी रहती। माँ चुपचाप सुनती रहती। आँगन की दीवार पर बड़े जतन से चढ़ाई फूलों से लदी मालती की बेल में पानी देते हुए।

कभी कभी सोचता था, माँ थकती नही है क्या? हर दिन अनगिनत कामों में रमी हुई माँ में यह निरंतर ऊर्जा आती कहाँ से है? अब सोचता हूँ, क्या था उनकी प्राणशक्ति का गोमुख? क्या उस घोसले का स्पंदन ही उनकी प्राणशक्ति थी? उस घोसले की गर्माहट ही उस अगम ऊर्जा का सोत्र थी? पापा मजाक में अक्सर कह दिया करते, "पता है ….तुम्हारी माँ अपने लिए अलग से गेहूँ पिसवाती हैं तभी तो इतनी फुर्ती रहती है।” और जोर-जोर से हँस पड़ते। “सच में माँ?” कहते हुए रघु भोलेपन से माँ को देखता तो मुझे भी हँसी आ जाती और माँ को भी। वैसे इस ऊर्जा को हम सभी ने महसूस किया था और कुछ मौको पर यह और भी चटख उठती थी। माँ के ड्रेसिंग टेबल के पास की दीवार पर टँगा पंचाग वाला कैलेंडर उनके व्रत और त्योहारों का सटीक लेखा-जोखा रखता था। चैत से लेकर फागुन तक उनके त्योहारों की फेहरिस्त बड़ी लंबी थी। हर पाँचवे दिन उनका उपवास ही था। न जाने कौन कौन सी एकादसी, पूर्णिमा, अमावास्या, नवमी… और कुछ नहीं तो गुरुवार तो था ही। और त्योहारो की तैयारियाँ तो पंद्रह दिन पहले ही शुरू हो जाती थी। इन सब के बीच उनकी ऊर्जा अपने चरम पर पहुँच जाती थी- दीपावली पास आते आते।

दीपावली इस घर में बहुत खास थी और खास होने की वजह भी थी। कुसुमा का मुँह चलते-चलते न जाने कितनी बार दबी हुई परतें भी उधेड़ने लगता था,” ...रघु के खातिर का कम मन्नत मनिहो तुम, जीजी, कौन कौन देवता के चौखट न पडेऊ…।” उसकी इसी बड़बड़ ने उजागर किया कि बड़ी मन्नत के बाद आया था रघु। मेरे आने के बाद जैसे ईश्वर ने अपना बही खाता बंद कर दिया था माँ के लिए। माँ उदास रहा करती थी। पापा को कोई फर्क नही पड़ता था। इतने रूढ़िवादी नही थे वे। लेकिन माँ? उन्होंने दूसरे की आस नहीं छोड़ी थी। समाज के नियम भी अजीब ही हैं। पापा को फर्क नही पड़ता था इसलिए वह रूढ़िवादी नही थे! और माँ? उनके रूढिवादी होने न होने से किसी को क्या फर्क पड़ता था। तो माँ ने अनगिनत मंदिर की चौखटो पर माथा रगड़-रगड़ कर रघु को प्राप्त कर ही लिया था। वो भी ठीक दीपावली वाले दिन। शायद उसके आने की खुशी में उस साल पटाखों का शोर कुछ ज्यादा ही सुनाई पड़ा होगा। पापा ने नाम भी सोचकर ही रखा था- रघुवीर।

रघु कभी-कभी तुनक उठता, "इतना पुराना नाम। कोई और नही मिला था क्या आपको।”
पापा आदतन हँसकर मजाक में कह जाते, "अरे भाई उस दिन कौसल्या के राम जो आये थे।” और माँ की ओर देखने लगते। माँ कुछ नही कहती। बस उनकी आँखों में वात्सल्य की हल्की झिलमिल तैर जाती जिसे वह मेरी नजर से बड़े यत्न से छुपाने की कोशिश करतीं। मैं देख कर भी अनजान बन जाता। लेकिन दीपावली की तैयारियों में उमड़ती उनकी ऊर्जा छुप नही पाती। साल दर साल अभ्यस्त हो चुका मैं चुपचाप देखता रहता था।

एक महीने पहले से ही हमारे घर में दीपावली की सफाई शुरू हो जाती थी। पुराना सारा कबाड़ निकालना, दीवारों की रंगाई-पुताई, सोफे के कवर, नई चादरें, नए पर्दे और न जाने क्या क्या। घर नई दुल्हन की तरह सज जाता। हर बीतते दिन के साथ माँ की फुर्ती भी बढ़ती जाती। वह न जाने कितना कुछ बना लेती। बालूशाही, नारियल की बर्फी, बेसन के लडडू, नमकीन। उनका मन नही मानता था। उन्हें लगता था कि जैसे कुछ कम ही है। घर पर लाईटिंग लगाने के लिए वह सात दिन पहले से ही बोलने लगती। लाइटिंग लगवाने का काम रघु बड़े मनोयोग से करता था। वह अब बड़ा हो गया था। पिछले तीन चार साल से छत पर यहाँ से वहाँ लड़ी वही बिछाता फिरता था। बड़ी दीपावली को सुबह सुबह ही रघु को नहला धुलाकर आसन पर बैठा दिया जाता। माँ उसे टीका लगाती और आरती भी करती। उनके लिए उसका जन्मदिन दीपावली के दिन ही था, हर साल।

उन दिनों मैं कभी कभी सोचता कि माँ का यह झुकाव कहीं इसलिए तो नहीं कि रघु मुझसे कहीं ज्यादा मेधावी था। मुझसे कहीं अधिक आज्ञाकारी भी था। कुछ ढीठ परिचित तो यह बात मेरे मुँह पर बोलने में भी जरा सा संकोच नहीं करते थे- "क्या? नीट की तैयारी कर रहा है? होशियार तो है ही। हाँ… आपका छोटा वाला ज्यादा तेज है।”
केवल एक ही शब्द किसी को अंदर तक कितना आहत कर सकता है यह हम कब सोचते हैं? शायद उन्हें आभास ही नहीं होता था कि इतनी सारी बातों के बीच बोला गया उनका वह 'ज्यादा' किसी के मर्म तक पहुँच गया होगा। लेकिन कौन सोचता है इतना? कौन रखता है इतनी संवेदना?

कभी-कभी जो बातें अभी हमें हँसाती, रुलाती या गुस्से से भर देती हैं वही आगे चल कर कितनी बेमानी हो जाती हैं। उस समय इतनी सारी बातों के बीच बोला गया वह `ज्यादा` जो चुभन उस समय देता था, आज दे सकता है क्या? नहीं दे सकता। दो साल पहले उस रात माँ हमें जिस तरह जागता हुआ छोड़ गयी थी, सुबह उन्होंने हमें वैसा ही जागता पाया। लेकिन माँ हमें वैसी नहीं मिली जैसी वो गयी थीं। वह अकेली आयी थी। पिताजी को अस्पताल में छोड़ कर। अचानक पड़ोस से कई लोग दौड़ कर आ गए थे। हम तीनो शायद बहुत तेज आवाज में रोये थे उस दिन। शोक व्यक्त करने वालों का ताँता लग गया था। रात में कार में गए पिताजी अगली शाम `बॉडी` बन कर वापस आ गए थे। अंतिम विधि की सारी दौड़-भाग समरपुर वाले मामा ने ही की थी। परिचित और अपरिचित सभी माँ को दुख सहने के लिए हिम्मत बँधा रहे थे। लेकिन क्या उन्हें पता था कि माँ के जीवन में यह दुख आखिरी नहीं था?

हिम्मत बँधा कर सभी लोग जा चुके थे। घर में बस हम तीन लोग ही रह गए थे। मेरा बी.टेक. का अंतिम वर्ष चल रहा था। लगभग एक महीने बाद मामा दोबारा आए।” सुखदा क्या करोगी यहाँ अकेली रहकर।” और फिर मेरी तरफ देखते हुए बोले, ”इसका बी टेक कम्पलीट होते ही समरपुर चली आना।” उस दिन मैने जाना कि पति के होने न होने से कितना फर्क पड़ जाता है समाज के दृष्टिकोण में। माँ आज `अकेली` थी। माँ ने मामा की बात को उस वक्त यह कह कर टाल दिया कि अभी तो वक्त है बी.टेक. कम्पलीट होने में। मामा वापस समरपुर चले गए थे और माँ अपनी दिनचर्या फिर से पहले जैसा ही बनाये रखने का भरसक प्रयास करने लगी थी। कुछ महीनों में ही उन्होंने अपनी सुबह की भागदौड़ फिर पहले की तरह ही कर ली थी। रघु फिर उसी तरह स्कूल जा रहा था और मैं फिर उसी तरह कॉलेज। माँ की दोपहर भी पहले की ही तरह रसोई के काम काज से भर गयी थी। ऐसा लगा जैसे माँ के जीवन की घड़ी थोड़ी देर रुक कर फिर पहले की तरह चलने लगी है। लेकिन ऐसा था नहीं। माँ अपने टूट चुके घोंसले की तुरपाई में जी जान से लगी हुई थी लेकिन उसके अंदर की टूटन धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी। मैं और रघु असहाय होकर बस उन्हें देख ही पा रहे थे। उनकी जीवन की ऊर्जा से भरी वह चाल अब जरा धीमी हो चली थी। घर में अब एक अजीब सी खामोशी स्थायी रूप से जमती जा रही थी।

खामोशियाँ तूफानों को पचाने के बाद ही जन्म लेती हैं। हमने भी शायद गुजर गए तूफान को पचा कर जीना शुरू कर दिया था। रघु का बारहवीं था इस साल। वह जी जान से लगा हुआ था। नीट की तैयारी में कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाह्ता था वह। उसे पूरा यकीन था, हम दोनो को भी था, खास कर माँ को। उनकी बुझी-बुझी आँखे उसे देख कर चमक उठतीं। मुझे लगने लगता कि जैसे उन्हें बस उसके डॉक्टर बनने का ही इंतजार है। और कुछ भी नहीं। जैसे उन्हें और कुछ भी नहीं चाहिए। उनकी आँखों की वह चमक अब मेरे मन में पहले की तरह कसक पैदा नहीं करती थी। बस ऐसा लगता जैसे इस चमक को सहेज कर रख लूँ कि कहीं यह फिर से बुझ न जाए। मेरा फाइनल ईयर पूरा होने को ही था और रघु अगले साल मेडिकल फर्स्ट ईयर में होगा, यह माँ को पूरा यकीन था। हम दोनो को देख कर माँ को यकीन हो चला था कि उनका नाजुक घोंसला कहीं न कहीं, कुछ हद तक अभी भी बचा हुआ था।

किताबों में लिखा है, जिंदगी में छाई काली घनी रात के बाद सुबह जरूर होती है। लेकिन जिंदगी कोई किताब तो नहीं है। जिंदगी का यथार्थ किताब के लिखे से कितना अलग होता है। यथार्थ में अक्सर ही सुबह की लालिमा दिखलाकर तकदीर फिर तुरंत ही उस पर रात की काली स्याही भी उड़ेल देती है। हम जिसे सुबह का उजाला समझ रहे थे वह एक और घनी काली रात की शुरुवात थी। उस दिन माँ रघु को स्कूल जाने से मना कर रही थी। उनका मन न जाने क्यों घबरा रहा था। ”माँ, आज प्रैक्टिस टेस्ट है और फाइनल को बस दो महीने ही बचे हैं। मिस नहीं करना चाहता।” उसने बैग में राइटिंग पैड रखते हुए कहा था। काश वह उस दिन टेस्ट मिस कर देता। काश माँ उसकी बातों में न आयी होती। उस दिन सुबह को वह गया तो दोपहर ढलने तक भी वापस ही नहीं आया। माँ परेशान हो गयी थी। मैं कॉलेज से वापस आया तो घर में काफी लोग थे। रघु तो नहीं आया था लेकिन उसकी खबर आ गयी थी। स्कूल से लौटते हुए नुक्कड़ वाले चौराहे पर एक ट्रक उसे रौंदता हुआ निकल गया था। माँ तो सुनते ही गिर गयी थी। मैंने माँ की हथेलियों को छुआ। उनकी हथेलियाँ ठंडी हो गयी थीं। माँ ने चुपचाप मेरी ओर देखा। उनकी भावनाशून्य आँखों का खालीपन मेरे अंदर तक उतर गया था। मुझे लगा जैसे कुछ तो मेरे गले में आकर अटक गया है और मेरी आँखों से धक्का मार कर निकल जाना चाहता है।

आज छह महीने गुजर गए है। आज ही पड़ोस की सुलभा चाची आयी थीं माँ का हाल चाल जानने। वे अक्सर ही आया करती हैं। कुछ-कुछ पड़ोसी धर्म के नाते और कुछ सच्ची सहृदयता के कारण। लेकिन बातों बातों में उनके मुँह से निकले एक वाक्य ने माँ के जख्मों पर बरसाती हवा का काम किया था।” पांडे जी का विनीत कानपुर में ही मेडिकल में एडमिशन पाया है… कुछ एक साल में मोहल्ले में एक डॉक्टर…।” फिर अपनी भूल का अहसास होते ही उन्होंने वाक्य अधूरा छोड़ दिया था। लेकिन वाक्य के अधूरेपन ने उसके प्रभाव को और भी बढ़ा दिया था। विनीत और रघु एक ही क्लास में थे। माँ उस समय कुछ नहीं बोली। माँ अब ज्यादातर चुप ही रहा करती है। वह अब हमेशा घर के कामों में ही लगी रहती है। लेकिन फिर आज शाम को उनके सिंदूरी हुए चेहरे को देखकर मैं समझ गया था ....माँ आज बहुत रोई थी।

कभी-कभी बड़ी जोर से इच्छा होती है कि उन्हें दोनो हाथों से उसी तरह ढँक लूँ जैसे हवा तेज होने पर वह तुलसी के नीचे रक्खे दिये को ढकती है। उसका सिंदूरी चेहरा अपने कंधों में छिपा लूँ और कहूँ "तुम ….रो लो न माँ ….मेरी आँखों के सामने ….मेरे कंधे पर सर रख कर…रो लो न माँ। ” लेकिन कह नहीं पाता। ऐसा लगता है जैसे एक लक्षमण-रेखा उनके चारों ओर खिंची हुई है। ऐसी लक्षमण रेखा जिसे मैं पार नहीं कर सकता। बस इस पार से उन्हें देख सकता हूँ ….धीरे धीरे ऊर्जाहीन…प्राणहीन होते हुए।

मेरा बी-टेक पूरा हो गया है। कंपनियों को दिए इंटरव्यू के जवाब आने लगे हैं। “माँ, कॉल लेटर मुम्बई से आया है।” लिफाफे से निकाल पत्र पढकर मैंने माँ को दे दिया था। माँ अनमनी हो गयी थी।
"मुम्बई जाओगे?” यह प्रश्न कम स्वीकृति अधिक थी।
"अकेला नहीं जा रहा हूँ, तुम भी चलोगी।” मैने कहा तो माँ का अनमनापन बढ़ गया था। वह नहीं जाना चाहती थी। न जाने कितने महीने हो गए उसे घर से भी बाहर निकले हुए।
"मैं किधर जाऊँगी? ” उन्होंने एकदम सपाट आवाज में कहा था। लेकिन मामा अड़ गए थे। "ये क्या है सुखदा?, तुम नहीं जाओगी क्या? अरे… थोड़ा जा के देख आओ …सेटल कर दो उसको फिर समरपुर चली आना।” मामा ने जोर देकर फोन पर कहा था। माँ की हालत उनसे छुपी नहीं थी। उन्हें भी लग रहा था कि चलो इसी बहाने से ही सही थोड़ा मन तो बदलेगा। माँ ने बहुत आनाकानी की थी किन्तु इस बार मामा ने एक न सुनी थी। उन्होंने सारा इंतजाम कर दिया था। एक हफ्ते बाद ही मैं और माँ एयरपोर्ट पर थे। माँ किसी छोटे बच्चे की तरह इधर उधर देख रही थी। उनकी इन्द्रियाँ नए वातावरण को सोखने का प्रयास करने में लगी हुई थीं। जल्द ही हम मुम्बई पहुँच गए थे।

"… तुम्ही शर्मानचे नातेवाईक का? (आप शर्मा जी के रिश्तेदार हैं क्या )” दरवाजा खोलती हुई वृद्ध मराठी महिला ने कहा था।
"जी?” हमारे चेहरे पर आ गए परेशानी के भाव देख कर वह मुस्कुरा दी।
"अरे .. देवा .. मैं तो भूल ही गयी। मराठी कैसे आएगा आपको। आप तो हिंदी बोलता होगा न?” हमारे चेहरे पर आये परेशानी के भावों को तसल्ली में बदलता देख उसकी मुस्कुराहट हँसी में बदल गयी थी। एक दम निष्पाप निश्छल हँसी। वह वेलूनकर ताई थी। इस शहर में हम उनके किरायेदार थे। करीने से बनाये चाँदी जैसे बाल और मराठी तरीके से पहनी सादी सूती साड़ी में हमारे सामने खड़ी वह महिला ही इस अजनबी शहर में इस वक्त हमारी सब कुछ थी। मामा ने अपने परिचय से न जाने कौन-कौन सी पहचान निकाल कर यह भरोसेमन्द व्यवस्था की थी। अभी तक इस शहर से डरी हुई माँ वेलूनकर ताई को देखकर थोड़ी आश्वस्त हो गयी थीं।

मुख्य शहर के उपनगर में इस तरह के दो मंजिल मकान कम ही थे। वेलूनकर ताई ने ऊपर वाली मंजिल का कमरा हमारे लिए खोल दिया था।” आप आराम करो, मैं आती है... बोलते हुए वह वापस नीचे चली गयी थीं। जब तक हम नहाकर थोड़ा तरोताजा हुए वह वापस ऊपर आ गयी थी। मैं अपना सूटकेस खोल कर समान निकाल रहा था और माँ कमरे के बाहर रेलिंग के पास खड़ी दूर दिख रहे समुंदर को निहार रही थी। वेलूनकर ताई के हाथों में पोहे से भरी दो प्लेट थी।
"कुछ खा लो …. दूर से आया है न आप लोग ” बोलते हुए वह कमरे में आ गयी थी। उनके पीछे -पीछे माँ भी आ गयी थी।
"अरे आप क्यों इतनी तकलीफ कर रही है।” बोलते बोलते माँ ने पोहे की प्लेट उनके हाथ से ले कर मेज पर रख दी थी।
"अग देवा …. मेरा मुलगी (बेटी) जैसा है तुम। ” वेलूनकर ताई ने तेज आवाज में कहा और फिर वही निष्पाप निश्छल हँसी बिखेर दी। मैं सोच रहा था कितनी जीवट होगी यह वृद्धा। इस उम्र में भी इतनी फुर्ती ! ऐसा उत्साह ! जीवन का उत्साह उनकी हँसी में ही नहीं बल्कि पूरे व्यक्तित्व में जगमगा रहा था। लेकिन यह उत्साह कौन सा दुख छुपाये हुए है कोई अनजान जान सकता है? इस हँसी ने किन गमों को पीछे धकेल रखा है? कोई अजनबी देख सकता था?

यहाँ आते वक्त मामा ने बताया था हमें- अकेली ही रहती हैं अपने एकलौते पोते के साथ। एक ही बेटा था उनका, बड़ी कंपनी में मैनेजर। पाँच साल हुए बेटा और बहु दोनो एक ही हादसे में चले गए, एक बच्चे को छोड़ कर …..उन के पास।

वेलूनकर ताई पास की कुर्सी पर बैठ गयी थी। पोहे की एक प्लेट उन्होंने मेरे हाथ में दे दी थी। जिंदगी के संघर्ष हर व्यक्ति में अलग अलग रूप में दिखते हैं? कोई खामोशी की चादर में इन्हें लपेट लेता है तो कोई खिलखिलाती हँसी में।” आपका पोता बाहर गया है क्या?”, माँ ने चुप्पी तोड़ने के उद्देश्य से पूछ लिया था शायद। "अरे आज नीट का रिजल्ट लगने वाला है न, इसलिए दोस्त के घर गया है। बोला है वहीं देखेगा।” वेलूनकर ताई ने कहा तो आवाज में गर्व का पुट आ ही गया था। माँ ने चुपचाप पोहे की दूसरी प्लेट उठा ली थी। वह हम दोनो को न देख बस उस प्लेट को ही घूरे जा रही थी।

"अग …आजी तू इथे आहे का? (अरे दादी तुम इधर हो क्या?) ” एक सत्रह वर्षीय लड़का हाँफता हुआ कमरे के दरवाजे पर खड़ा मुस्कुरा रहा था। "आजी मी पास झालो ( दादी मैं पास हो गया ) ” उसने बड़े भोलेपन से कहा। मेरे हाँथ में पकड़ी हुई प्लेट एक क्षण के लिए काँप गयी। मैंने माँ की ओर देखा। वह अवाक उस लड़के की ओर देख रही थी। उसकी साँसें जैसे रुक गयी थीं। माँ एकटक उसे ही देखे जा रही थी। रघु…..बिल्कुल रघु ही था वह ! चेहरे की बनावट ….कदकाठी …माथे पर बिखरे बाल …वही शांत गहरी आँखें। लगा जैसे रघु ही सामने आकर खड़ा हो गया था। लगा जैसे पिछले कई सारे महीने सिमटकर गायब हो गए थे। जैसे रघु अभी-अभी कॉलेज से आया था। जैसे अभी-अभी उसी शांत आवाज में कहेगा,” माँ …खाने को कुछ है क्या?” मैं माँ की ओर देख रहा था। उसका दूध से भी उजला चेहरा सिंदूरी हो चला था। आज इतने महीनों के बाद एक बार फिर मैने उसकी पनियाई आँखों में वात्सल्य की वही चिर-परिचित चमक देखी थी।

१ अक्टूबर २०२२

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।