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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से चन्द्रभान राही की कहानी- सदमा खुली खिड़की का


शहर की गली के आमने सामने दो घरों के बीच मुश्किल से चार पाँच गज का फासला होगा। पहली मंज़िल की दो खिड़कियाँ भी आमने सामने ही खुलतीं थीं। एक खिड़की में से सामने दीवार से लटका बड़ा सा शीशा दिखाई देता था। इस कमरे में बाक़ी चीज़ें भी बहुत कम थीं। एक चारपाई, दो कुरसियाँ, एक पुराना सा टेबल, एक आले में दो चार किताबें, कंघी, तेल और दीवार पर दो चार तस्वीरें, टोकरी में दो चार कपड़े।

एक छोटा सा कमरा था। इसमें सिवाय एक लड़की और एक वृद्ध महिला के कोई मूरत कम ही दिखाई देती थी। वह खिड़की के पास बैठी रहती कभी किताब पढ़ती कभी सिर झुकाये बैठी रहती और कभी शीशे के सामने स्वयं को निहारती रहती। बहुत देर तक बालों में कंघी किया करती। आईना भी उसके चहरे को निहारता रहता। उसका चेहरा किसी देवी की मूर्ति से कम न था।वह दिन में कई बार कंघी किया करती थी। उसके बाल लंबे भी बहुत थे। अगर किसी ने रोशनी में देखे होते तो उनकी चमक का अंदाज़ा हो जाता लेकिन इस में कोई संदेह नहीं कि उसे अपने बालों पर बड़ा नाज़ था।

वह जवान थी, खूब सूरत थी। सामने वाली खिड़की में से उसकी आँखों का रंग नहीं दिखाई दे सकता था। लेकिन उसकी छवि बड़ी मीठी और उदासी भरी थी। उसको मुसकुराते हुए मैंने कभी नहीं देखा था। वह कितनी कितनी देर तक अपनी खिड़की पर बैठी आँसू बहाती रहती लेकिन कभी भी खिड़की में से बाहर सिर निकाल कर किसी की तरफ नहीं देखती। गली कि औरतों को इसकी बैठक का जरूर एहसास होता था और अगर कोई उधर से गुजरती थी तो उसे आवाज़ दे लेती थी।

वह बड़े मीठे लहजे में थोड़ा झुक कर जवाब देती थी। जब कमरे में सो रही होती थी तो खिड़की बंद हो जाती थी लेकिन इन जाड़ों के दिनों में तीसरे पहर गर्मियों में करीब बारह बजे उसकी खिड़की खुल जाती और शाम को सूर्य अस्त होने तक खुली रहती। डूबते सूरज की रोशनी जब उसके चहरे पर पड़ती तब उसका चेहरा भी किसी सूरज से कम न चमकता कभी कभी भ्रांति पैदा होती कि ये लालिमा सूरज की रोशनी से है या कि उस खुली खिड़की पर बैठी लड़की के चहरे कि है।

मेरा स्थानांतर इस शहर में हुआ था। मुझे इनके सामने का मकान किराए से मिला था। मकान छोटा था किन्तु गुज़र बसर करने लायक था। मैं आते जाते इस खुली खिड़की पर बैठ जाता इस खूबसूरत लड़की को देखा करता था। मुझे लगता था कि वह मेरे समय पर आ कर खिड़की पर बैठ जाती है। इस मोहल्ले में बड़ी बड़ी बिल्डिंगें थीं। मेरा मकान पहले माले पर था। मेरे सीढ़ियाँ चढ़ने पर मेरे जूतों के खट खट की आखिरी आवाज़ तक उसकी खिड़की खुली रहती।

हाथ मुंह धोकर मैं थोड़ी देर के लिए अपनी खिड़की खोल कर सामने वाली खिड़की की तरफ देखता। लड़की मेरी तरफ नहीं देखती थी लेकिन उसे पता रहता था कि उसकी तरफ वे आँखें लगी हुई हैं जिन का रास्ता वह रोज़ देखती रहती और अगर किसी दिन मेरे लौटने में देर हो जाती तो दूसरे दिन उसकी नाराजगी उसके चेहरे पर स्पष्ट छलकती। मैं प्रातः कार्यालय जाने के समय उसको देखता तो वह अपनी निगाहें न मिलाती। मोड़ से जब तक मैं मुड़ न जाता तब तक वह खिड़की पर से हटती न थी। इसी तरह वक़्त बीतता गया। मैं उसे खिड़की पर बन सँवर कर बैठा देखता। न तो उसने आज तक मुझ से कुछ कहा न ही मैंने उसे कुछ कहा। अब तो इतना होता था कि वह मुझे जब देखती तब एक मधुर मुस्कान उसके होठों पर आ जाती। सामने वाली खिड़की में बैठी वह लड़की मुझे ज्यादा प्रिय लगने लगी।

तीज त्योहारों पर बिल्डिंग के और आस पास के लोग मुझे बुलाते थे मैं सबके घर आना जाना करता था लेकिन आज तक उस सामने वाले घर से बुलावा नहीं आया मैं कभी कभार सोचता हूँ कि मैं बहाने का इंतज़ार क्यों करूँ ?क्यों न एक दिन उनके घर ही चला जाऊँ वैसे भी वे लोग मुझे तो जानते ही हैं कि मैं यहीं रहता हूँ।

मैं अपने कमरे में उधेड़बुन में लगा रहता। आखिर कब तक उसे खिड़की पर बैठे मुस्कुराते हुए देखता रहूँगा। अगर वह मुझे पसंद न करती तो क्यों मेरे आने जाने के समय खिड़की पर बैठती। शायद उसके दिल में मेरे प्रति कहीं न कहीं स्नेह का दिया जगमगा रहा है। मैंने महसूस किया कि मैं दिल ही दिल में उस से प्यार करने लगा हूँ जब वो खिड़की पर बैठी नहीं दिखती तो मैं क्यों बैचेन हो जाता हूँ। क्यों मेरी निगाहें उसे तलाशतीं हैं क्यों वह मुझे देख कर मुसकुराती है। यह प्यार नहीं तो और क्या है। लेकिन शंका की बात यह है कि क्या वह भी मुझे इसी तरह चाहती है ? उसकी चाहत का मुझे नहीं मालूम था।बिना उसकी मर्ज़ी के मैं कोई निर्णय भी नहीं ले सकता था। कई दिनों तक मैं इसी उलझनों में उलझा रहा कि आखिर यह कैसे मालूम होगा कि वह मुझे चाहती है कि नहीं।

आज मुझे आने में देरी हो गई। मैं सोच रहा था कि रात हो गई है वह खिड़की पर अभी तक बैठी होगी। क्यों कि मैं जब तक अपने घर नहीं पहुँच जाता तब तक उसकी खिड़की खुली रहती।मैं अपने घर की खिड़की खोलता हूँ तब वह अपनी खिड़की बंद करती है। कदमों को जल्दी जल्दी बढ़ाता हुआ गली में आया। खिड़की खुली थी लेकिन वह आज न बैठी थी। खिड़की खुली थी लेकिन खाली। कुछ देर तक उस खुली खिड़की को ताकता रहा। जब देखा कि उसके आने की संभावना दूर तक नज़र नहीं आ रही है तब उदास मन से कमरे में आ गया।

रात भर मैं यही सोचता रहा कि आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि मेरे आने जाने के समय वो खिड़की पर न बैठी हो। लेकिन आज वह क्यों न आई।रात भर उसकी याद मुझे परेशान करती रही। जब भी मेरी आँख खुलती मैं उस खिड़की की तरफ देखता उसकी खिड़की रात भर खुली रही।बत्ती जलती रही। सामने जिस आईने में वह अपने बालों को संवारा करती थी वह आईना उदास था। उसमें लाइट की रोशनी पड़ रही थी लेकिन आज उस रोशनी की चमक मद्धम थी। मेरी आँखों को कब नींद ने धर दबोचा मुझे कुछ याद नहीं।

सुबह की ठंडी हवा ने मुझे हिला दिया।आँखें खुलते ही मैंने खुली खिड़की की तरफ देखा। खिड़की अभी तक खुली थी। मेरे सब्र का बांध टूटने वाला था। मुझे स्वयं की विवशता पर अत्यधिक पछतावा हो रहा था।अपने डरपोक पन पर गुस्सा आ रहा था। मैं स्वयं को कोस रहा था कि मैंने क्यों नहीं आज तक उस से बात की। हो सकता था कि वह मेरे पहल की प्रतीक्षा में हो वैसे भी लड़कियाँ प्यार के मामले में जल्दी पहल नहीं करतीं। मुझे यह बात साल रही थी कि मैंने पहल क्यों न की।

अचानक मुझे याद आया कि अगले माह दीपावली आ रही है मैं दीपावली के दिन उस के घर जाऊँगा। उसको दीपावली कि बधाई दूंगा उसके सामने उसके घर वालों के सामने अपने प्यार का इज़हार करूंगा। इस के बाद चाहे जो भी अंजाम हो।

मैंने अपना इरादा मजबूत कर लिया। इस इरादे को मजबूत कर के कार्यालय आ गया लेकिन कार्यालय में भी खाली खिड़की मन को सालती रही। मन उदास था काम में मन न लग रहा था। घर लौटते वक़्त कदम बौझिल थे। पाँव आगे नहीं बढ़ रहे थे। उदास मन से मोड़ से गली में आया मुझे दूर से खिड़की पर बैठी एक आकृति दिखी। मेरे क़दम स्वतः ही तेज हो गए। खिड़की के नीचे आ कर देखा। वही बैठी थी। मासूम देवी सा मुसकुराता चेहरा लिए हुए। अपने बालों में कंघी करती कभी अपनी उँगलियों को बालों में उलझाती। कभी नज़र चुराती कभी मुसकुराती। मन में आया चीखूँ चिल्लाऊँ कि कल कहाँ चली गई थी। फिर सोचा लोग क्या कहेंगे। क्या सोचेंगे कि मुझे क्या हो गया है। मन में आया बिना उसे देखे आगे बढ़ जाऊँ। लेकिन उसका मुसकुराता चेहरा मुझे स्वतः ही उसकी तरफ देखने पर मजबूर कर रहा था।

दीपावली की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी सामने वाली खिड़की पर दीप मालाओं कि लड़ी थी। चारों तरफ रोशनी थी। एक डिब्बा मिठाई का ले कर मैं उसके दरवाजे पर जा पहुंचा। मैंने अपने धड़कते दिल से दरवाजा खटखटाया दरवाजा एक वृद्ध महिला ने खोला। वह महिला शायद मुझे जानती थी।दरवाज़ा खोल कर एक तरफ हटी। उसके हटते ही मेरी निगाहें अंदर के कमरे में गईं।जहां वह लड़की अपने हाथ में जलते दिये की थाली लिए व्हील चेयर पर बैठी थी। दीये की रोशनी से उसका चेहरा चमक रहा था।लेकिन वह व्हील चेयर पर मेरी कल्पना से एक दम परे।

“आइये प्रकाश बाबू ! अंदर आ जाइए।”
वह जलते द्ये की थाली को उस वृद्ध महिला को थमाते हुए बोली।व्हील चेयर को अपने हाथों से धकाते वह आगे आई।
“आइये बैठिए। माँ! प्रकाश जी के लिए मिठाई लाना पहली बार हमारे घर आए हैं।”
मेरी कुछ समझ में न आ रहा था कि यह सब कुछ आख़िर...। मैं सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया। मिठाई का डिब्बा उसको थमाते हुए कुछ बोलता कि उस से पहले वह बोली। “मेरा नाम ज्योति है। एक एक्सीडेंट में मेरे पापा नहीं रहे और मेरी एक टाँग जाती रही। बस एक टाँग है वह भी बे जान।” वह अपने कमर तक पड़े सफ़ेद चादर को एक तरफ हटाते हुए बोली।

“डाक्टरों का कहना है कि इस टाँग में जान आ तो सकती है लेकिन समय लगेगा।” तभी माँ एक प्लेट में मिठाई और एक गिलास पानी ला कर रख दीं।
“हमारे घर का खर्च पापा के पेंशन से चलता है। माँ रिटायर हुईं तो उनके पैसे से सर छुपाने के लिए यह फ्लेट खरीदा। मेरे इलाज में काफी पैसाखर्च हो गया। अब इलाज हमारे बस से बाहर की बात हो रही है।”

वह अपनी स्थितियों का वर्णन कर रही थी।लेकिन मेरी स्थिति को मैं ही जान सकता था। मैं क्या कहूँ क्या न कहूँ इतने जलते दिये कि रोशनी में भी मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। वह न जाने क्या क्या कहती रही थी। मेरी चेतना तब वापस आई जब वह कह रही थी।

“कहाँ खो गए प्रकाश बाबू...?”
मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ ?
मैं खामोश सिर्फ ज्योति के हिलते होठों को देख रहा था। वह कह रही थी।
अब ऐसी स्थिति में मेरा हाथ थामने वाले हाथ कहाँ मिलेंगे
मेरा मन एक विचित्र उलझन का अनुभव करने लगा। बिना कुछ कहे खुले दरवाजे कि ओर भारी कदमों से चल पड़ा।

१ अक्टूबर २०१९

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