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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से आलोक कुमार सतपुते की कहानी- साध्वी


अखबार में निधन वाली जगह पर मेरी नजर पड़ी। संजना शुक्ला, उम्र २६ वर्ष, के निधन के समाचार ने मुझे भीतर तक हिला दिया। मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि हमारी संजना नहीं रही। मैंने फोटो को ध्यान से देखा फिर मुझे यकीन करना ही पड़ा। संजना मेरे ही ऑफ़िस में काम करने वाली एक लड़की थी। हालाँकि वह शादीशुदा और एक तीन साल के बच्चे की माँ थी, पर उसका खिलंदड़पन उसे लड़कियों की श्रेणी में रख देता था। वह एक बेहद ही खूबसूरत लड़की थी। जितना ख़ूबसूरत उसका चेहरा था, उससे भी कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत उसका दिल था। वह रोज नये-नये कपड़े पहनकर ऑफ़िस आया करती थी। हालाँकि वह साधारण सी क्लर्क ही थी, पर उसके पहनने-ओढ़ने के ढंग से ऐसा लगता था कि वह एक सम्पन्न परिवार की लड़की है। वह ज्वेलरी भी अलग-अलग तरीके की पहना करती थी। वह हमेशा ही खिलखिलाती रहती। उसके आने से ऑफ़िस में खुशियाँ बिखर जाती थीं।

हमारे ऑॅफिस की उसकी दूसरी साथी लड़कियाँ उससे जलती थीं। वे उसे बदनाम करने की तमाम कोशिशें किया करती थीं। संजना को देखकर उन लड़कियों के मन में हीन भावना अनचाहे बच्चे की तरह पैर पसारने लगती थी। उन्होंने सारे ऑफ़िस में यह बात फैला दी थी कि वह निहायत ही चालू टाइप की लड़की है और लटके-झटके दिखाकर अपना उल्लू सीधा कर लेती है। अधिकारियों को तो वह अपनी मुट्ठी में रखती है। काम-धाम करती नहीं है। कुल मिलाकर वह अपने औरत होने का पूरा-पूरा फ़ायदा उठा रही है।

मेरे दिमाग़ में भी उसकी कुछ ऐसी ही छवि बनी हुई थी। इस बीच अचानक एक आदेश ज़ारी हो गया कि वह मेरे ही अधीन रहकर काम करेगी। आदेश पढ़कर मैं टेंशन में आ गया कि मेरे तो सारे काम पेंडिंग ही रह जायेंगे। बिग बॉस से तो सामना मुझे ही करना होगा। वह थोड़े ही सुनेगा कि मेरे अण्डर में जो क्लर्क है, वो कुछ काम नहीं करती है। बॉस तो यह कहेगा कि तुम्हें काम लेना नहीं आता है। इस बीच मेरे साथ काम करने के लिये एक साथी अधिकारी भी आ गया। संदीप नाम का यह अधिकारी बड़ा ही कड़क और तुनकमिजाज लड़का था। वह औरतों से बेहद नफ़रत करता था। उसकी पत्नी उसके साथ मात्र एक महीने ही रही थी और पढ़ाई पूरी करने के बहाने अपने मायके दिल्ली चली गयी थी, जो फिर वापस नहीं आई थी। आया था तो तलाक़ का नोटिस और न मानने पर दहेज के प्रकरण में फँसा देने की धमकी।

वह भौंचक रह गया था कि आख़िर उसकी ग़लती क्या है। एक महीने का साथ भला तलाक़ का आधार कैसे बन सकता है। पर जैसा कि उसने बताया था कि उसकी शिक्षा-दीक्षा मिलिट्री स्कूल में हुई थी, सो वह बेहद अनुशासित जीवन जीने का आदी है। वह सुबह चार बजे उठकर घर की साफ़-सफ़ाई कर दिया करता था। अपनी पत्नी के उठने से पहले ही वह बर्तन वग़ैरह साफ़ कर दिया करता था। अपने और अपनी पत्नी के कपड़े भी धो दिया करता था। किचन में जाकर सब्जियाँ भी काट दिया करता था। उसकी पत्नी इसी बात पर नाराज़ हो गई थी कि तुम्हीं सब काम कर लेते हो, तो मेरी ज़रूरत ही क्या है। आमतौर पर महिलाओं को शिकायत रहती है कि उनके पति घर के कामों में उनकी मदद नहीं करते हैं, लेकिन संदीप के साथ उल्टा हो रहा था। उसे काम में मदद करने की सज़ा मिल रही थी।

ख़ैर संजना ने हमें ज्वाइनिंग दे दी थी। संदीप ने मुझे आश्वस्त किया था कि सर मैं तो काम लेने में उस्ताद हूँ। मैं तो डण्डा मारकर भी काम ले लेता हूँ। अब संजना हमारे साथ काम करने लगी थी। हमने उसके प्रति अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर उसके किये गये कामों में मीन-मेख निकालना शुरू कर दिया, लेकिन वो मुस्कुराकर अपनी ग़लती मानकर तुरन्त उनमें सुधार करने लगी।

कुछ ही दिनों बाद हमने पाया कि वह तो बहुत अच्छी तरह अपना काम करने लगी है। वह तो कामों को इतने अच्छे से समझ गयी थी कि हमारे बोलने से पहले ही वह सारा काम कर देती थी। वह कुछ गुनगुनाती हुई सी पूरी लगन के साथ काम करती थी। अब तक हमारे पूर्वाग्रह की बर्फ़ पिघलने लगी थी। संदीप भी उसको लेकर सहज हो चुका था। एक दिन मैंने संजना से पूछा कि तुम बिना किसी तनाव के इतना सारा काम कैसे कर लेती हो इस पर उसने बताया- सर मैं कामों को बोझ न समझकर ईश्वर द्वारा मुझे सौंपी गई ज़िम्मेदारी मानती हूँ और ऐसा ही मैं अपने जीवन को भी समझती हूँ। सर मैं दूसरों के लिये जीना चाहती हूँ, अपने लिये तो सभी जीते हैं। यह मुझे उसका बड़बोलापन लगा।

धीरे-धीरे वह हमसे अनौपचारिक होने लगी। बातों ही बातों में उसने बताया कि उसकी साड़ियाँ सेल से खरीदी हुई सस्ती सी होती हैं और गहने भी पॉलिश वाले ही होते हैं। उसने बताया कि सर, अच्छा पहनने-ओढ़ने से अपना आत्मश्विास तो बढ़ता ही है, सामने वाले को भी अच्छा महसूस होता है। बीच-बीच में उसके पुराने साथी लंच टाइम में उससे मिलने आते, और मुझसे कहते कि सर आपने हमसे हमारा एक बेशक़ीमती हीरा छीन लिया है।

अब तक संजना को हमारे साथ काम करते हुए लगभग छः महीने हो चुके थे। हमें पता चल चुका था कि वाकई में वह दूसरों के लिये ही जीती है। उसने अपनी वाणी के जादू से माइग्रेन जैसी बीमारी वाले दो-तीन सहकर्मियों का सरदर्द बहुत हद तक कम कर दिया था। वह कई लोगों की पारिवारिक समस्याएँ हल करके उनके दाम्पत्य जीवन में रस घोल चुकी थी। संजना की फिलॉसफ़ी से हम बेहद प्रभावित थे और उसका बेहद सम्मान करने लगे थे। वह जब तक हमारे साथ रहती, हमें एक दैवीय सी अनुभूति होती रहती।

वह एक साध्वी ही थी, जिसके साथ हमारे आत्मिक संबध स्थापित हो गये थे। वह उन कथित साध्वियों से बिल्कुल अलग थी, जो संसार से पलायन कर संसार में अच्छे से रहने की बातें बताती हैं। वह उन साध्वियों से भी अलहदा थी, जो विधवाओं जैसे सफ़ेद ड्रेस पहनकर मनहूसियत बिखेरती हुई त्यागमूर्तियाँ होने का ढोंग करती हैं। वह तो वास्तविक साध्वी थी, जो संसार में रहते हुऐ, सांसरिक बातें करते हुए ही संसार की बड़ी-बड़ी समस्याओं का हल चुटकी बजाते हुए ही कर देती थी।

एक दिन संदीप बड़ा ही खुश होकर आफ़िस आया, और कहने लगा-सर मैं आज आप दोनों को शहर के सबसे महँगे होटल में पार्टी देने वाला हूँ। आज मेरी जिंदगी का सबसे क़ीमती दिन है। मेरी पत्नी का पत्र आया है। उसने मुझसे मुआफ़ी माँगते हुए लिखा है कि उसे यह बात अच्छे से समझ में आ गयी है कि छोटी-छोटी बातों को लेकर वैवाहिक जीवन में बिखराव ठीक नहीं है। उसने यह भी लिखा है कि मुझे अपनी ग़लतियों का अहसास हो गया है। हालांकि मेरे माँ-बाप मुझे दूसरी जगह शादी कर देने का लालच देकर रोक रहे थे, लेकिन मैंने तो ठान लिया है कि मुझे तुम्हारे साथ ही ज़िन्दगी बितानी है। चूँकि मोबाइल में दिल की बात कहना औपचारिकता निभाने जैसा होता है, इसलिये मैं पत्र लिख रही हूँ।

संदीप ने चहकते हुए यह भी बताया कि वह अगले हफ्ते आ रही है। इस पर संजना ने मुस्कुराते हुये कहा-सर हमें भी अपनी मैडम से मिलवाइयेगा। इस पर संदीप ने बताया कि उसने पत्र में लिखा है कि वह पहले हमारे ऑफिस ही आना चाहती है और फिर यहीं से हम दोनों घर जायेंगे। उस दिन के बाद से मायूस सा रहने वाला संदीप खिला-खिला सा रहने लगा था। वह पूरी तल्लीनता के साथ कुछ न कुछ गुनगुनाते हुए काम करने लगा था। हमारे कमरे में पाजिटिव एनर्जी भरी रहने लगी। मुझे भी ऐसा लगने लगा था कि मैं अपनी उम्र से दस वर्ष छोटा हो गया हूँ।

निधारित दिन और समय पर संदीप अपनी पत्नी को लेने स्टेशन पहुँचा। स्टेशन से वे सीधे ऑफ़िस ही पहुँचे। संदीप ने अपनी पत्नी से मेरा परिचय कराया। वह संजना से उसका परिचय करा पाता, इससे पहले ही हम यह देखकर भौंचक रह गये कि उसकी पत्नी ने संजना के पैर छू लिये और कहने लगी- संजना तुम उम्र में भले ही मुझसे छोटी हो, पर मैं तुम्हारे पैर छूने से अपने आपको रोक नहीं पा रही हूँ। थोड़ा सहज होने पर उसने बताया कि पता नहीं कैसे इसने मेरा नाम पता कर लिया और फेसबुक पर मेरी दोस्त बन गई। इसने धीरे-धीरे मुझे जीवन के गूढ़ रहस्यों से परिचित कराना शुरू कर दिया। दाम्पत्य जीवन के महत्व को इसने इतने अच्छे से समझाया कि मेरा अभिमान पूरी तरह ख़त्म हो गया। फेसबुक में चैटिंग के दौरान इसकी कही एक-एक बात मेरे दिल को छूती रही। इसने पूरी तरह से मेरा ब्रेन-वॉश कर दिया और मुझे एक अभिमानी लड़की से आदर्श बना दिया और सबसे खास बात यह रही कि इसने मुझे कुछ दिन पहले ही बताया था कि वह तुम्हारे ही ऑफ़िस में काम करती है। इसीलिये तो मैंने ऑफिस से होते हुए ही घर जाने की बात लिखी, क्योंकि मैं संजना जी के दर्शन करना चाहती थी।

संदीप ने अचरज से अपनी पत्नी से पूछा कि तुमने यह क्यों नहीं बताया कि तुम दोनों फेसबुक फ्रेंड्स हो और लगातार संजना के टच में हो। इस पर उसकी पत्नी ने बताया कि हम तुम्हें सरप्राईज़ देना चाहते थे। इस पर संदीप ने संजना की ओर बडी कृतज्ञता के भाव से देखते हुये धन्यवाद कहा। साथ ही कहा- संजना तुम ग्रेट हो। इस पर बड़े ही खिलंदड़पन के साथ हँसती हुई वह बोली-सर मैं ऐसी ही हूँ।

इस घटना के कुछ ही दिनों बाद मेरा तबादला दूसरे शहर में हो गया था। संदीप को दूसरी बड़ी नौक़री मिल गयी थी। उसका दाम्पत्य जीवन बड़ा सुखद था। फोन पर मेरी संदीप और संजना से बातें होती रहती थीं। धीरे-धीरे व्यस्तता के कारण हमारे बीच बातों का सिलसिला कम होते होते ख़त्म सा हो चुका था.

संजना को याद करते हुये मेरी आँखें डबडबा आई थीं, जिसे बड़ी ही कठिनाई से मैंने रोक लिया, क्योंकि मुझे संजना की कही गई बातें याद आ गयीं कि सर रोना किसी समस्या का हल नहीं है, बल्कि ये हमें कमज़ोर बनाता है। हमें ऐसी परिस्थितियों से बचना चाहिये, जो हमको रोने को मजबूर करें। हमें तो सिर्फ़ मुस्कुराहट और खिलखिलाहट ही बाँटनी चाहिये। मरना-जीना तो लगा ही रहता है। हमें तो सिर्फ़ भलाई करने की दृष्टि से अपने हर दिन को आख़री दिन मानते हुए भरपूर भलाई करनी चाहिये। संजना की इन बातों को याद करते हुये मैंने मन ही मन अपने आप से प्रामिस किया कि संजना आज से मैं भी तुम्हारी फिलासफ़ी को अपनी फिलासफ़ी बनाता हूँ। अब मैं अपने लिये न जीकर दूसरों के लिये जिऊँगा और तुम्हारे अधूरे कामों को मैं पूरा करूँगा।

१ मई २०१८

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