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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से अमित मिश्र की कहानी- बिना टिकट


- भईया ज़रा जल्दी करो।
- हाँ दीदी, जल्दी ही चल रहे हैं। अब गरमी भी तो आप देख ही रही हैं।
- हाँ भाई, देख रही हूँ। कहने को अभी सुबह के ९ ही बजे हैं, मगर अभी से धूप ऐसी। लेकिन ट्रेन जो निकल जाएगी, उसी की चिंता है।
- आप जो ट्रेन बता रही हैं, वो तो शायद नहिंए मिलेगी। अपनी गाड़ी से भी जाएँ तो भी नहीं पहुँच पाएँगी। हमें तो सवारी से मतलब है, सो चले चलेंगे। लेकिन बाद में मत कहिएगा।
- बात सही कह रहे हो भईया, लेकिन कोशिश करने में क्या जाता है? फिर ट्रेन लेट भी तो होती ही है।
- सो तो है। आगे प्रभु की इच्छा। ऑटो काहे नाहीं कर लीं?
- कोई था नहीं उधर। फिर सोचा कि जितना समय ढूँढने में लगाऊँगी, उतने में तो वैसे ही पहुँच जाऊँगी।
- सो तो है। सुबह के वक्त यही समस्या रहती है। फिर जो पैसा को लेकर किचिर-पिचिर।
- अब आप बात छोड़िए और जल्दी कीजिए।

हजार बार मना करने पर भी माँ ने यह डिब्बा, वो डिब्बा करके एक और बैग बढा दिया। अब इतना सामान लेकर अकेली कैसे जाऊँ? आते समय छोटा-छोटी के लिए तोहफे और माँ का मँगाया हुआ घर-गृहस्थी का सामान था। सोचा था, यह सब तो यहीं के लिए है, लौटते समय सामान नहीं रहेगा। लेकिन हुआ यह कि घुमा-फिराकर सामान उतने-का-उतना ही रहा। फिर यह सब तो दिल्ली में भी मिलता ही है। आधुनिक समय में संपर्क के इतने माध्यम हो गए हैं कि हर चीज़ हर जगह मिल जाती है। नहीं भी मिले तो मँगाई जा सकती है। लेकिन माँ को कौन समझाए? कोई प्रतिवाद भी तो नहीं चलता उनके सामने। ऐसा मुँह लटका लेती हैं कि उन्हें मनाने के लिए सब कुछ लेना ही पड़ता है। फिर छोटा-छोटी मेरी छुट्टी खत्म होने का सुनते ही ऐसे उदास हो जाते हैं मानों मैं वापस युनिवर्सिटी नहीं, बल्कि शादी के बाद अपने ससुराल जा रही हूँ। फिर मिलते-मिलाते देर तो हो ही जाती है। हालाँकि हर ६ महीने में कम-से-कम एक चक्कर लगाने की कोशिश तो करती ही हूँ। इसके आलावा तीज-त्यौहार की छुट्टियाँ... बशर्ते कोई इम्तिहान या क्लास न हो। इसके बावजूद वापस लौटते समय न जाने मन कैसा-कैसा होने लगता है।

यही सब सोचते-सोचते स्टेशन आ गया -
- दीदी लीजिए, स्टेशन आ गया। आजमा लीजिए अपनी किस्मत।
- धन्यवाद भईया। यह लीजिए ।
- यह क्या? अब छुट्टे कहाँ ढूँढने जाएँ?
- रहने दीजिए, रख लीजिए ।
- धन्यवाद दीदी। बुरा मत मानिएगा, अगर गाड़ी न मिले तो मैं अभी यहीं स्टैण्ड पर मिलूँगा। वापस चले चलेंगे।

मैंने मुस्कुराकर रिक्शावाले का आभार व्यक्त किया और सामान को ढोते हुए स्टेशन में यथासंभव दौड़ कर प्रवेश किया। स्टेशन पर एक कुली से पूछने पर पता चला कि भारतीय रेलवे ने अभावनीय प्रगति कर ली है जिसके फलस्वरूप मेरी ट्रेन आधे घण्टे पहले अपने निर्धारित समय से ही जा चुकी है। फिर भी अपने मन को दिलासा देने के लिए और अन्य संभावनाओं के बारे में जानने के लिए मैं पूछताछ की खिड़की पर गई -

- दिल्ली के लिए कोई गाड़ी?
- अभी-अभी तो झेलम निकली है। आधा घण्टा हुआ। ९-१० पर।
- हाँ अंकल। उसी का टिकट था। छूट गई। कुछ और बताइए।
- एक लगी है प्लेटफॉर्म ३ पर। देहरादून १० मिनट में छूटने वाली है, ९-५० पर।
- उसके बाद?
- उसके बाद, दोपहर में ३ बजे। अमृतसर।

बाबू को धन्यवाद देकर मैं टिकट खिड़की की ओर दौड़ी। लेकिन वहाँ भारत की जनसंख्या का प्रत्यक्ष प्रमाण देखकर डर गई। ट्रेन छूटने में १० मिनट हैं और इस कतार में खडे होने पर तो १० घण्टे में भी शायद नंबर नहीं आएगा। आसपास कोई दलाल भी नजर नहीं आ रहा था। बिना टिकट चढ जाऊँ क्या? अगर पकड़ी गई तो? साथ में ज़्यादा पैसे भी नहीं हैं। जुर्माना तो क्रेडिट कार्ड से दिया भी नहीं जाता। लेकिन कुछ सोचना तो पडेगा। जल्दी... दोपहर ३ बजे तक इंतजार नहीं कर सकती। पता नहीं कि अमृतसर ३ बजे ही आएगी या...अब तो रेलवे पर विश्वास ही नहीं रहा। और कल सुबह ८ बजे ही क्लास है। अमृतसर ज़रा भी लेट हुई तो गड़बड़ हो जाएगी। इम्तियाज़ सर की क्लास, एक भी लैक्चर छोड़ नहीं सकते। फिर इतनी भावभीनी विदाई लेने के बाद वापस घर जाना भी हास्यास्पद होगा। इसके आलावा इस कार्यक्रम की पुनरावृत्ति नहीं होगी, ऐसा मानने का भी कोई कारण नहीं है। अचानक मेरी नज़र उसी रिक्शावाले पर पड़ी जो मुझे स्टेशन लेकर आया था। शायद किसी को ढूँढ रहा था। मेरे हाथ का इशारा देखते ही उसने राहत की साँस ली और दौड़ता हुआ-सा मेरे पास आया -

- हम आपको ही ढूँढ रहे थे। तो छूट गई?
- हाँ।
- अब? वापस घर चलना है? चले चलें?
- नहीं। जाना दिल्ली ही है। प्लेटफार्म ३ तक यह बैग पहुँचा देंगे? अब कुली कहाँ ढूँढने जाऊँ।
- हाँ हाँ क्यों नहीं। आपने टिकट ले लिया है न? जो भीड़ है आज।
- हाँ, टिकट मेरे पास है ही ।
- ऐं, समझे नहीं। कहाँ से आया? - उसने चलते हुए पूछा। हम दोनों लगभग दौड़ते हुए पुल पर चढने लगे थे।
- था पहले से।
- ऐं... कौन ट्रेन का, देहरादून ही न?
- नहीं झेलम।
- अरे दीदी, झेलम तो निकल गई। वह टिकट नहीं चलेगा। विदाउट हो जाएँगी।
- धीरे बोलो। अगर तुम ऐसे हल्ला मचाकर पूरी जनता को बता न दो तो किसी को पता नहीं चलेगा।
- मगर दीदी, चालान कटेगा।
- कटेगा तो कटेगा। तुम्हारे पैसे मिल जाएँगे।
- उसकी चिन्ता नहीं है दीदी। पहले के छुट्टे भी तो हम पर बकाया हैं।
- अब जल्दी करो और सामान डिब्बे में चढ़ाओ। यह भी न छूट जाए। - हम दोनों प्लेटफॉर्म ३ पर पहुँच गए थे। ट्रेन खड़ी थी ।
- कौन डिब्बे में चढ़ाएँ दीदी?
- एस ४।
- मगर वो तो झेलम का…
मैंने घूरकर देखा तो वह चुप हो गया। फिर कंधों को मिचकाकर, मुँह बनाकर सामान डब्बे में चढ़ाने लगा।
- कौन सीट? - उसने मुस्कराकर शायद मुझे चिढ़ाने के लिए पूछा। स्पष्टतः अब उसे इस घटनाक्रम में मजा आने लगा था। या फिर शायद उसे लग रहा था कि वह किसी नए मनोवैज्ञानिक प्रयोग में भाग ले रहा है, और उसे उसके परिणाम को जानने की अत्यधिक उत्सुकता है।
- ५२।
- सबही तो ठीके है - डिब्बा, सीट। बस गाड़ी ही… - उसने व्यंगात्मक स्वर में कहा। कभी-कभी ऐसे बातूनी लोगों से पाला पड़ जाता है। शायद संयम इनके शब्दकोष में है ही नहीं। मैंने २० रुपए का नोट उसकी ओर बढ़ाकर कहा-
- बहुत-बहुत धन्यवाद।
- रहने दीजिए दीदी। पहले के भी बकाया हैं हम पर। फिर आपके भी तो काम लगेंगे। - उसने अंतिम बाण छोड़ा और डिब्बे से निकल गया।

मैंने स्वयं को यथासंभव धातस्थ किया और आने वाले समय के लिए प्रस्तुत हो गई। गाड़ी चल पड़ी। सभी कुछ ठीक था - भोपाल, दिल्ली, डिब्बा, सीट। अंतर था तो केवल ट्रेन का। फिर भी कितना पराया-पराया सा लग रहा था। जैसे किसी और के घर में घुस गई हूँ जहाँ प्रवेश तक करने का मुझे अधिकार नहीं है ।

थोड़ी ही देर में टिकट चेकरों की मण्डली आ गई। जब समय खराब होता है, तो सभी कुछ खराब होता चला जाता है। लेकिन इतनी जल्दी संकट के बादल छा जाएँगे, यह आभास नहीं था। क्या करूँ, सामान छोड़कर किसी दूसरे डिब्बे में चली जाऊँ? लेकिन डिब्बे अंदर से जुडे हुए भी नहीं हैं। तो फिर क्या टॉयलेट में जाकर छुप जाऊँ? लेकिन सामान छोड़कर? वैसे चोरी जाने लायक उसमें कुछ है तो नहीं - बस आचार-मुरब्बा। चला ही जाए तो अच्छा है। सब जरूरी चीजें तो पर्स में ही हैं। लेकिन कोई फायदा नहीं, बहुत देर हो चुकी है। टिकट-चेकरों ने अब तक मुझे देख लिया है, अब इस जगह से हिलना भी मूर्खता होगी। मैंने संयम-साधना प्रारंभ की।

आखिर मेरी बलि का समय आ ही गया -
- आपका टिकट।

मैंने अपने चेहरे के भाव को बदले बिना, पूरे आत्मविश्वास और सरलता से अपना पर्स खोला और टिकट निकालकर टीटी की ओर बढा दिया। अपना ही टिकट - झेलम का। टीटी ने टिकट लिया और सभी आँकड़े अपने खाते से मिलाने लगा। ‘कहीं कुछ गलत है, लेकिन क्या?’... ऐसा कुछ भाव उसके चेहरे पर आया और गहराता गया। मैंने अनभिज्ञता का भान करके टिकट में झाँका और टीटी के पेन का अनुसरण करने लगी। फिमेल, २२ वर्ष, एस ४, सीट ५२। तारीख भी सही है। लेकिन पी एन आर नम्बर अलग। टिकट नम्बर भी गलत। ऐसे कैसे? टीटी के माथे पर सलवटों की संख्या बढती गई और फिर गहराती गई। मुझे सचमुच दया-सी आने लगी। लेकिन यह समय दुर्बल मनोभावों के आगे झुकने का नहीं था। यह समय था स्वार्थ-सिद्धि का। जब टीटी इस गुत्थी को नहीं सुलझा पाया, तो उसने अपने सहकर्मी का आश्रय लिया। दूसरे टीटी ने भी वही प्रक्रिया दुहराई, लेकिन जल्दी ही ठोस निष्कर्ष पर पहुँच गया। टिकट के एक विशेष स्थान पर अपने पेन से इंगित करके धीरे से बोला -

- ट्रेन नंबर।

पहले टीटी के माथे की सभी शिकन एक ही पल में मिट गई और उसके चेहरे पर परम ज्ञानोपलब्धि का सूर्य जगमगाने लगा। उसने लंबी साँस खींची और कठिन चेहरे के साथ टिकट मुझे वापस करते हुए कहा -

- मैडम, यह गलत टिकट है। असली टिकट दीजिए।
- नहीं, यही टिकट है। दूसरा नहीं है।
- नहीं मैडम, होगा। भूल हो जाती है। आप अपने पर्स में ठीक से देखिए, होगा। यह गलत है।
- नहीं सर, यह सही टिकट है। स्टेशन पर खुद कटवाया था। खुद, दलाल या एजेण्ट से भी नहीं।
- वो बात नहीं मैडम। टिकट वैसे तो ठीक है, मगर इस ट्रेन का नहीं है। आपने शायद दो टिकट कटाए होंगे। ऐसा करते हैं लोग। ठीक से देखिए।
- नहीं, दो क्यों कटवाऊँगी? एक ही कटवाया था। झेलम का। - इस कठिन परिस्थिति में भी मैंने सत्य का दामन नहीं छोडा। इस पुण्य का कुछ तो फल मिलेगा न? टीटी बोला -
- तो फिर मैडम आप गलती से गलत ट्रेन में बैठ गई हैं। यह झेलम नहीं है।
- यह कैसे हो सकता है? मुझे तो यही बताया था। और टिकट देखिए, एफ २२, एस ४, ५२। ठीक तो है।
- हाँ वो ठीक है। लेकिन यह देखिए - ११०७७
- तो उससे क्या?
- उससे यह मैडम कि यह टिकट झेलम का है।
- वही तो मैं भी कह रही हूँ।
- लेकिन यह ट्रेन देहरादून है। इसी से कहता हूँ कि आप गलत ट्रेन में चढ गई हैं।
- मगर मुझे तो यहीं भेजा था, प्लेटफॉर्म ३ पर।
- आपको किसी ने गलत जानकारी दे दी थी।

बगल वाली बर्थ के यात्री ने भी टीटी की बात का अनुमोदन किया -
- हाँ, हाँ, यह देहरादून ही है।
अब इन महाशय को बोलने की क्या जरूरत है? जब से घर से निकली हूँ, हर कोई जिसे जहाँ नहीं बोलना चाहिए, वह वहीं बोल रहा है। फिर भी मैंने अपना संघर्ष नहीं छोडा।

- कहीं कोई गलती हो रही है। आप ठीक से देखिए। - मैंने टीटी से अनुरोध किया।
- ओहो मैडम, गलती की कोई गुंजाइश नहीं। आप इधर देखिए। आपके टिकट पर ११०७७। और यहाँ लिखा भी है - झेलम एक्सप्रेस। और यहाँ इस रजिस्टर में देखिए - १२६८७। और क्या लिखा है? देहरादून एक्सप्रेस। अब तो स्पष्ट हो गया होगा?

इसके बाद प्रतिवाद करना आत्मघाती होगा। आखिर निकल भागने के लिए कोई तो रास्ता छोड़ना ही चाहिए। ऐसी परिस्थिति में अधिकारियों से बैर-वैमनस्य ठीक नहीं - विशेषकर जब गलती मेरी ही है। अभी तो आवश्यकता है इनकी सहानुभूति की। मैंने तेजी से दिमाग दौड़ाया, फिर जब और कोई उपाय नहीं सूझा तो मंत्र पढकर अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया -

- फिर, अब क्या होगा? हाय, अब क्या होगा? - मैंने डबडबाई आँखों के साथ उद्वेगपूर्ण स्वर में इधर-उधर देखते हुए पूछा।
- शांत रहिए मैडम, पहले आप शांत होइए।
- नहीं-नहीं, मुझे उन्होंने गलत क्यों बताया? अब क्या होगा? यह ट्रेन कहाँ जा रही है? हाय, मैं कहाँ जा रही हूँ? मुझे तो रात तक पहुँचना ही है। हाय मेरी क्लास है कल।
- मैडम यह ट्रेन भी दिल्ली की तरफ ही जा रही है। शायद इसीलिए गलती हो गई होगी।
- हाय, लेकिन मेरा टिकट तो नहीं है। यह तो दूसरी ट्रेन का… - जाने आज यह आँसू ठीक से निकल क्यों नहीं रहे। सही है, जब समय खराब हो, तो कोई भी साथ नहीं देता, आँसू भी नहीं।
- कोई बात नहीं मैडम। आप अब कटा लीजिए। थोडा ज्यादा तो पडेगा, वो भी देखना पड़ेगा कि गुंजाइश है या नहीं।
- लेकिन मेरे पास तो पैसे भी नहीं हैं। टिकट तो था ही, सो ज्यादा पैसे भी नहीं रखे।
आसपास के लोग बड़ी दिलचस्पी के साथ इस नाटक का आनन्द ले रहे थे। शायद पहली बार मैं इतनी दृष्टियों की केन्द्रबिन्दु बन गई थी।

- क्या करें? झाँसी, ग्वालियर या आगरा तक ले चलें? वहाँ से फिर झेलम पकड़ लेंगी। - पहले टीटी ने दूसरे से सुझाव माँगा ।
- कमाल करते हो भाई। आगरा पहुँचेगी शाम ५ -३० बजे। अब ३ घण्टे के लिए क्या ट्रेन बदलेंगी?
- मगर निजामुद्दीन पहुँचकर तो चेकिंग होगी गेट पर। तब तो पकड़ी जाएँगी।
- ऐंह। १५ मिनट का तो अंतर है। कौन सी ट्रेन से उतरी हैं कौन देखता है?
- तो फिर झाँसी या ग्वालियर?
- ग्वालियर मुश्किल है। केवल ५ मिनट का स्टॉपेज है। फिर आज झेलम भी टाईम पर चल रही है। नहीं पकड़ पाएँगी।
- यह देहरादून भी तो अभी तक टाईम पर ही है।
- क्या बात है टीटी साहब, आज सभी गाडियाँ राइट टाईम चल रही हैं? - दर्शक महोदय ने टिप्पणी की। रंगमंच के जिन किरदारों की भूमिका कम होती है, वे नाटक में यत्र-तत्र अपने लिए स्थान और संवाद बना ही लेते हैं।
- हाँ। जब न चले, तो मुसीबत, जब चले, तो दिक्कत, है न? - टीटी ने इस रूकावट पर झुंझलाकर उत्तर दिया।
- हें-हें। - दर्शक महाशय अपना अनावश्यक योगदान देकर पीछे हट गए। दूसरे टीटी ने कहा -
- फिर सोचना क्या है? झाँसी ही बाकी रही। १० मिनट स्टॉपेज है वहाँ तो।
- लेकिन दोनों में अंतर तो १० ही मिनट का है हर जगह।
- हाँ, सो तो है। फिर झेलम यहाँ से समय से गई है तो जरूरी नहीं कि झाँसी भी समय से ही पहुँचेगी। मगर इस ट्रेन का भी ठीक नहीं कि लेट नहीं होगी।
- ठीक कहते हो। भाग्य पर नहीं छोड़ सकते। झाँसी में अटक गईं तो ठीक नहीं होगा।
- हाँ, लेडीज सवारी। बेकार में कहीं मुश्किल में न फँस जाएँ। जो माहौल है आजकल।
- सामान कितना है मैडम? - पहले टीटी ने मुझसे पूछा। मैंने बैगों की ओर इशारा कर दिया। टीटी ने होंठों को भींचकर कहा -
- यह लो। अब इतना सामान लेकर ट्रेन बदलेंगी यह? कुली ढूँढने में ही समय निकल जाएगा।
- फिर तो बात ही खत्म हो गई। चालान काट दो और चूँकि पैसे नहीं हैं तो जी आर पी में इत्तला कर दो। आगे वे लोग समझें। - दूसरे टीटी ने अंतिम निष्कर्ष सुना दिया।

समस्या यह मोड़ ले लेगी, मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। अब यही दिन देखना रह गया था। जो भी हो, इस कलंक के दाग को मैं अपना स्पर्श नहीं करने दूँगी। चाहे गाड़ी से कूदना ही क्यों न पड़े। आखिर क्या इज्जत रह जाएगी? ‘चयनिका भारद्वाज, एम एस सी कैमिस्ट्री, आद्योपांत फर्स्ट डिवीजन, ट्रेन में बिना टिकट पकड़ी गईं, अभी पुलिस हिरासत में…’ - कल के अखबार के संभाव्य मुखपृष्ठ की कल्पना-मात्र से मैं सकपका गई।

मानों असफल मानसून के वर्ष में अचानक बादल फट जाए और मूसलाधार बारिश होने लगे, वैसे ही मेरी आँखों से गंगा-यमुना की तीव्र धाराएँ बहने लगीं। मैंने लगभग चिल्लाकर ही प्रतिवाद किया होगा क्योंकि दोनों टीटी सकते में आ गए थे।
- नहीं नहीं, ऐसा मत कीजिए। मुझे पुलिस में मत दीजिए। भला इसमें मेरी क्या गलती? वो तो मुझे गलत प्लेटफॉर्म नम्बर बता दिया था। वरना पहुँची तो थी मैं टाईम पर ही। ऐसा मत कीजिए मेरे साथ। मेरा कैरियर। मेरी सारी पढ़ाई। मेरा भविष्य। हाय, सब बरबाद हो जाएगा।
- लो अब सँभालो। - दूसरे टीटी ने साँस खींचकर कहा। पहले ने मुझे शांत करने की चेष्टा की -
- मैडम आप रोइए मत। हम कुछ सोचते हैं। आप परेशान न हों। - पहले टीटी ने मुझे आश्वस्त करने की चेष्टा करते हुए कहा। लेकिन स्पष्ट था कि उसके मस्तिष्क को दिशाभ्रम-सा हो गया है, और वस्तुतः यह मेरा कर्तव्य है कि मैं उसे आश्वस्त करूँ। आखिर उसने फिर दूसरे टीटी की ही शरण ली -
- तो क्या करें? मुझे तो कुछ सूझता नहीं।
- अब करने के लिए बाकी ही क्या रहा? यह ड्रामा झाँसी तक देखते-सुनते हुए जाना हो तो अलग बात है।
- हे भगवान।
- छोड़ न, जाने दे। दूसरी गाड़ियों में तो वैसे भी डेली पैसेञ्जर कितने चढ़ जाते हैं। और उधर तो कितने लोग टिकट भी नहीं लेते।
- लेकिन अगर स्क्वॉड आया तो?
- तो क्या? जो है, सो बता देना। फिर टिकट तो है ही। सँभाल लेना।
- ठीक है। बस बशर्ते कोई और … कहते हुए पहले टीटी ने दर्शक महोदय की ओर जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से देखा। दर्शक महाशय ने नज़रें फेर लीं और अपने सहयात्री से बातचीत करने लगा। टीटी मुस्कुरा दिया। फिर मेरी तरफ मुड़कर बोला -

- ठीक है, आप बैठिए। अभी थोड़ी देर में आपको खाली सीट देखकर बताते हैं।
- तो सर, मेरा जुर्माना, जी आर पी?
- ठीक है। रहने दीजिए। आप बैठिए। देखते हैं क्या किया जा सकता है।
- धन्यवाद, बहुत-बहुत धन्यवाद। - मैंने कृतज्ञतापूर्वक टीटी-द्वय का आभार व्यक्त करते हुए कहा।

टीटीगण मुस्करा दिए और आगे बढ गए। दूसरे टीटी ने टिप्पणी की -
- ये आजकल के स्टूडेण्ट। देश के भविष्य। हुँह। ट्रेन तक तो देखकर पकड़ नहीं सकते, देश निर्माण करेंगे यह ।
- नहीं भाई, आजकल की पढ़ाई बहुत भारी है। बहुत दबाव है। हमेशा तनाव रहता है। जरूर साइंस साइड की होगी बेचारी। जाने दे।

पहले टीटी की सहानुभूति ने मेरे मन को प्रेम से भर दिया। चेहरे पर मुस्कुराहट लिए हुए मैंने खिड़की से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों में स्वयं को डुबो दिया।

१ सितंबर २०१६

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