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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से डॉ. भारतेन्दु मिश्र की कहानी- उस्ताद जी


फौज से रिटायर होकर आये थे उस्ताद जी। सेना मे पच्चीस वर्षों तक हज्जाम का काम करने के बाद उस्ताद जी ने अवकाश गृहण किया। इस सेवाकाल मे हिन्दुस्तान के न मालूम कितने शहर देखे ,न मालूम कितने अफसरो की कटिंग की,न जाने कितने लेफ्टीनेंटों और बैगेडियरों की हजामत बनायी। अपनी इस सेवा के दौरान उन्होंने न जाने कितनी बोलियाँ सीखीं और न जाने कितनी संस्कृतियों के अनुभव प्राप्त किये। अपना काम ईमानदारी से करते थे उस्ताद जी। फौज में उन्हें उनके काम के लिए सम्मान मिलता रहा। कोई प्रमोशन तो था नहीं इस लिए रिटायर होना ही उन्हें ठीक लगा। रिटायर हुए तो पुराने लखनऊ में स्थित अपने घर आ गये। फण्ड वगैरह का जो पैसा मिला उससे पुराना मकान ठीक करवाया। एक बेटा और पत्नी। बेटा फेल हुआ आठवीं में तो उसने दुबारा किताबों की शक्ल न देखने की कसम खायी। उस्ताद जी ने बड़ी कोशिश की मगर वो टस से मस न हुआ। उन्हें चिंता हुई कि मंगल पढ़ेगा नहीं तो उसकी जिन्दगी कैसे कटेगी। मंगल मुहल्ले के लडकों के साथ कभी पतंगबाजी कभी कंचे तो कभी कबूतरबाजी के फेर मे पूरा दिन पार कर देता।

दीवाली के अगले दिन परेवा थी। लखनऊ का आसमान परेवा को सुबह से शाम तक पतंगो से पट जाता है। लाल हरी नीली पीली और न जाने कितने रंगों की खूबसूरत पतंगे-तौखिया, लट्ठेदार, चौखाना, पट्टीदार और तमाम भाँति-भाँति के नामों वाली रंगीन पतंगों का मेला लग जाता आसमान पर। बच्चे महीनों पहले से इस दिन पतंग उडाने का इंतिजाम करते। संपन्न घरों के बच्चे तो बाजार से पतंग और माँझा खरीद ही लाते किंतु जिनके माँ-बाप पतंग के लिए पैसे नहीं देते वे महीनों से लूट लूट कर पतंग और माँझा इकट्ठा करते कि जमघट के दिन उड़ाई जायेंगी। पतंग के शौकीन बच्चे जो करते सो करते ही बड़े-बूढ़े भी छतों पर चरखी पकड़े नजर आते। जमघट यानी परेवा का ही दिन था वह, मंगल भी अपनी छत से पतंग उडा रहा था। किसी मनचले लडके को शरारत सूझी और उसने अपनी पतंग से मंगल की पतंग काट दी। मंगल की पतंग बहुत डोर से थी। उस लड़के ने हत्थे से उसकी पतंग काटी थी। मंगल को गुस्सा आया उसने छत पर रखी गुलेल मे एक कंचा रखकर जो निशाना साधा तो सीधे उस लडके की खोपड़ी में जा घुसा।

‘हाय! अल्ला,...अम्मी..मंगल ने गोली मार दी।’ लड़के के हाथ से पतंग और डोर सब छूट गयी। वह अपना सिर पकड़कर बैठ गया। उसके अब्बा और अम्मी मंगल को कोसते हुए दरवाजे पर आ गये। उस्ताद जी ने देखा- कलीमुद्दीन बाहर अपने लड़के को पकड़े खड़ा था। उसकी बीबी मंगल को गरिया रही थी-‘अरे! नासपीटे मंगल ने मार दिया मेरे हलीम को..हाय अल्ला।’

कुछ तमाशबीन आग मे घी डालने लगे कि मंगल ऐसा है कि मंगल वैसा है।फिर किसी ने हवा उड़ायी कि मंगल ने गोली मार दी। त्योहार का दिन था। जरा सा शोर हुआ कि लोग घरों से बाहर निकल आये। उस्ताद जी ने मंगल से सारी बात पूछी और गली मे सबके सामने ही मंगल के मुँह पर दो तीन तमाचे जड़ दिये। कलीमुद्दीन ने ही आगे बढ़कर उस्ताद जी का हाथ पकड़ा-‘बस भी कीजिए उस्ताद जी! बच्चे हैं फिर एक साथ खेलेंगे।’

उस्ताद जी ने हलीम के घाव पर मरहम लगाया। तमाशबीन एक एक कर बच्चों को प्यार से रहने-खेलने की सलाह देकर चले गये। मंगल ने उस लड़के से माफी माँगी। लड़के के सिर में गुब्बारा फूल आया था और ह्ल्का सा घाव हुआ था। थोड़ी देर मे मामला शांत हुआ। रिटायर्ड फौजी होने के नाते लोग उनकी इज्जत करते थे। उनके सामने कोई ज्यादा बोलता नहीं था। बोलता भी था तो उस्ताद जी सबकी सुनते नहीं थे। अच्छा रोब था उनका। दूसरे दिन उन्होंने मंगल को एक खाली घड़ा थमा दिया और बोले-‘बेटा! जो तुमको पढ़ना लिखना था वो सब पूरा हो गया, अब आज से जिन्दगी की पढ़ाई शुरू कर दो। ये पकड़ो उस्तरा और इस घड़े पर पानी डालकर उस्तरा फिराने की ट्रेनिंग आज से शुरू। तीन दिन बाद तुम्हारा इम्तिहान होगा। तीन दिन बाद तुमको हमारी हजामत बनानी होगी। यह हमारी खानदानी बिद्या है। इसी उस्तरे के सहारे हमारी अच्छी भली कट रही है। इसको माथे से लगाओ। हमने भी तीन दिन में हजामत बनानी सीखी थी। सबसे पहले हमने अपने दादा की हजामत बनाई थी।’

मंगल ने उस्तरा हाथ में लेकर माथे से लगाया और घड़े पर उस्तरा फिराना शुरू कर दिया। रिटायर होने के बाद उस्ताद जी पेंटिंग करना चाहते थे। फ़ौज में अफसरों को उस्ताद जी की कई पेंटिंग बहुत पसन्द आयी थीं। दिवंगत कई अफसरो के चित्र उन्होंने बनाये थे और सम्मान प्राप्त किया था। उस्ताद जी हजामत बनाते तो एक घण्टा समय लग जाता लेकिन उनकी खूबी यह थी कि ग्राहक सो जाता और उनका उस्तरा चलता रहता। उस्ताद जी चेहरे के एक एक बाल को ऐसे साफ करते कि निखार आ जाता। उनकी कैंची से मानो संगीत फूटता हो। दिन में प्राय: उस्ताद जी कटिंग और हजामत का काम करते और रात मे घंटे दो घंटे पेंटिंग करते या पोट्रेट बनाते। उनकी उंगलियाँ जितना उस्तरा पकड़ने में सधी रहतीं उतना ही ब्रश पकडने पर। खूबसूरत प्राकृतिक रंगों से सजी लैला- मजनू, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और भगवान श्रीकृष्ण की उनकी पेंटिंग बहुत चर्चित हुई। जब वे कोई नई पेंटिंग बनाते तो उसे कुछ दिन तक सैलून की दीवार पर टाँगते।

अब उस्ताद जी ने घर के कमरे से निकलकर बाजार में एक दूकान किराये की ले ली थी। उनके ग्राहक बढ़ने लगे। जो एक बार आता वह दुबारा कहीं और नहीं जाता। कुछ ही दिनों में उस्ताद जी का सैलून मुहल्ले के दूसरे सैलूनों की तुलना में अच्छा चलने लगा। उस्ताद जी के सैलून में भीड़ बढ़ने का कारण काम के प्रति उनकी लगन और हाथ की सफाई ही थी। वे बिना नम्बर किसी की कटिंग नहीं करते और न हजामत बनाते। चीकट बालों वाला मजदूर आता तो पहले उसके बाल धोते फिर पूरी तत्परता से कटिंग करते। उन पर न दरोगा का रोब चलता न डाक्टर वकील का। उनकी दुकान पर जो पहले आता वही उनका पहला ग्राहक बनता। वो कम बोलते और मनोयोग से काम करते। उनको चिंता बस एक ही रहती कि वो जो कर रहे हैं वह ठीक से कर लें। उनके कम बोलने का कारण यह भी था कि वे एक पैग लगाकर काम शुरू करते। रम पीने की आदत फौज से ही पड़ी थी, लेकिन क्या मजाल कि कभी उँगली हिल जाये या नाक का बाल काटते समय कैंची गलत चल जाये। कटिंग इतनी खूबसूरत कि क्या कहने। कनपटी पर खत लगाना हो या कलमें ठीक करनी हों, पूरी तसल्ली से उस्ताद जी का हाथ चलता। किसी के घर जाकर हजामत बनाने या कटिंग करने की नौबत आती तो उस्ताद जी साफ इनकार कर देते। अपना रोब गालिब रखने के लिए किसी के विवाह आदि में अपना हक माँगने वे नहीं जाते।

धीरे धीरे मंगल ने सारा काम सीख लिया लेकिन उसके हाथ में वह सफाई अभी नहीं आयी थी जो उस्ताद जी के हाथ में थी। ज्यादातर ग्राहक उस्ताद जी से ही कटिंग कराना पसन्द करते चाहे उन्हें घंटों इंतजार ही न करना पड़े। इतवार के दिन तो उस्ताद जी की टाँगें जवाब दे जातीं। दोपहर का खाना खाने के साथ दो पैग और लगाते उस्ताद जी और मुस्तैदी से अपना काम करते। अध्यापकों डाक्टरों, वकीलों से जब कभी मूड में वो बात करते तो उनकी बातों में समझदारी और एक आदर का भाव झलकता। फौजी अनुभवों में ऐसा बहुत कुछ था जो वो आम आदमी को बता सकते थे। जब कोई खास ग्राहक आता तो वे इसी तरह की बातें करते और उनका उस्तरा पानी की तरह चलता रहता। उचक्के और शोहदे उनकी सैलून पर नहीं आते।कोई मनचला भूले भटके आ भी जाये तो क्या मजाल कि कंघी या कैंची छू ले। एक आध बार कंघी उठाकर बाल खींचने वाले मस्खरे लौंडे आये भी तो उन्होने डांटकर भगा दिया। उस्ताद जी ग्राहकों की इज्जत करते और ग्राहक भी उन्हें सम्मान देते। उस्ताद जी नाम के ही उस्ताद नहीं थे शाम को उनके घर पेंटिंग सीखने वाले लड़के भी आते। वो उनको प्यार से पेंटिग व र्ंग तैयार करने की बारीकियाँ समझाते। कभी कभार तो ड्राइंग मास्टर भी उनसे कुछ सीखने आ जाते। पोट्रेट और साइन बोर्ड भी बनाते उस्ताद जी तो उससे उनकी और आमदनी होने लगी। अपने दिवंगत ग्राहकों के चित्र तो वे हूबहू बना देते।

मंगल ने सैलून मे उस्ताद जी का हाथ बटाना शुरू कर दिया। वो चाहते भी यही थे कि मंगल काम धन्धे से लग जाये। मंगल को अब उस्ताद जी ने काउण्टर की चाभी भी दे दी, उनका मन कला की ओर खिंचने लगा। मंगल ने टेलीफोन लगवाया। नये फर्नीचर और शीशे का इंतिजाम किया। सैलून आधुनिक जरूरतों और फैशन के मुताबिक सज गया। सैलून उस्ताद जी के नाम से बहुत अच्छा चलने लगा था। कमाई बढ़ी तो मंगल ने दो और सहयोगी लड़के रख लिए। मंगल ने प्रतीक्षा करने वाले ग्राहकों के लिए खूबसूरत केबिन बनवाया। उस केबिन में टेलीविजन और कुछ रंगीन पत्रिकाएँ भी रखी गयीं। ग्राहक उसमें बैठकर उस्ताद जी के खाली होने की प्रतीक्षा करते। केबिन भरा रहता और लोग उस्ताद जी को पूछते रहते। पर अब उस्ताद जी ने सैलून पर जाना कम कर दिया था। जब किसी पुराने ग्राहक की सूचना मंगल उन्हें फोन पर देता तभी वो आते। अन्यथा मंगल बहाना बना देता-‘उस्ताद जी तो घर गये हैं..टाइम लगेगा..आप चाहें तो हम लोग भी कटिंग कर देंगे।’

इस तरह तमाम ग्राहक मंगल और नए लडकों से ही कटिंग कराने लगे। मगर कुछ खास दोस्त जब आते तो उस्ताद जी को आना ही पड़ता। उस दिन कलीमुद्दीन सैलून पर आया था। पाँच साल दुबई रहने के बाद कलीमुद्दीन ने बहुत पैसा कमाया। बाजार के खास चौराहे की पुरानी बिडिंग खरीदकर, उसे तुड़वाया, फिर आलीशान कोठी खड़ी की। नई स्टीम खरीदी। पाँच साल पहले वह मुहल्ले के कपड़े धोता था अब उसने नई लांड्री खोल दी थी। उस्ताद जी का पुराना पड़ोसी था वह, मगर अब तो पैसे के घोड़े पर सवार था। थोड़ी देर इंतिजार करने के बाद जब उस्ताद जी नहीं आये तो उसने अपने सेल्युलर से ही उस्ताद जी को फोन किया-‘हेलो! अमाँ उस्ताद जी, घंटे भर से इंतिजार कर रहा हूँ जल्दी आ जाइए..कटिंग करानी है हजामत भी बनवानी है। आप तो हमारे पुराने हज्जाम हैं।’

‘हज्जाम तो मै सैलून का हूँ। इस समय पेंटिंग मे उलझा हूँ नहीं आ सकता। लगता है आज ज्यादा पी ली है..मंगल से हजामत बनवा लो हम नहीं आ पायेंगे।’

‘अमाँ, पेंटिंग छोड़ो जल्दी से आ जाओ।..मुँह माँगी कीमत ले लेना अपने टाइम की–अब मैं टुटपुंजिया धोबी नहीं हूँ।’

‘हम जानते हैं तुम्हें ऊपर वाले ने बहुत दिया है, लेकिन हमारा टाइम बहुत कीमती है इस समय तो हम नहीं आ सकते।’

‘अमाँ! हम तो शराफत से बात कर रहे हैं और आप हैं कि भाव खाते जा रहे हैं..अब सुन लीजिए –अगर आप पाँच मिनट में नहीं आते तो हम सैलून की हजामत शुरू कर देंगे।’

‘तुम्हारे जो जी मे आये करो हम अभी नहीं आ सकते।’

उस्ताद जी ने फोन रख दिया और शांत भाव से ब्रश पकड़कर बाल रूप श्रीकृष्ण के ओठो पर लाल रंग भरने लगे। दो मिनट बाद ही मंगल का फोन आ गया-

‘पिता जी जल्दी आ जाओ। कलीमुद्दीन केबिन तोड़ रहा है।उसने एक शीशा तोड़ डाला है..वो नशे में है। हम लोगों से भी हाथापायी कर रहा है'।
‘अच्छा..उसकी ये हिम्मत? ठहरो आ रहा हूँ।’
घर और दुकान मे तीन मिनट की दूरी थी। मगर उस दिन उस्ताद जी को दो ही मिनट लगे। गुस्से में थे उस्ताद जी। अचानक उनके हाथ में कहीं से एक डंडा आ गया। उनका चेहरा तमतमा रहा था मानो पेंटिंग वाला लाल रंग ही उन्होंने मुँह पर मल लिया हो। उन्होंने पहुँचते ही दो तीन डंडे कलीमुद्दीन के रसीद कर दिए। उसे कुछ होश आया तो वह बडबडाया-‘देख लूँगा ..तुझे नाई की औलाद।’
उस्ताद जी ने उसका हाथ पकड़कर कुर्सी पर बिठाया फिर बोले-‘चल साले बैठ जा कुर्सी पर अब तेरी कटिंग करता हूँ।’

उस्ताद जी ने क्रोध में उसकी खोपड़ी के बाल छील डाले। हजामत बनाई तो एक तरफ की मूँछ साफ कर दी। एक बार तो उन्होंने सोचा कि इसकी शकल ही बिगाड़ दूँ, मगर फिर न जाने क्या सोचकर उनका उस्तरा थम गया। कलीमुद्दीन चिल्लाता, बड़बड़ाता रहा..वो गालियाँ भी बके जा रहा था मगर कहीं उसके गाल पर कटने या छिलने का निशान नहीं उभरा। इस बीच सैलून में तमाम भीड़ इकट्ठी हो गयी उस्ताद जी ने कहा-‘अबे साले अब निकाल तीन हजार बीस रुपये। बीस हजामत और कटिंग के – बाकी तीन हजार हरजाने के।’

दुकान के आसपास उमड़ी तमाशबीनों की भीड़ को देखकर उस्ताद जी ने धमकाया-‘चलिए आप लोग अपने घर जाइए-यहाँ कोई तमाशा हो रहा है? यह हमारा आपसी मामला है।’

कलीमुद्दीन का नशा हिरन हो चला था। कुछ खुमारी रह गयी थी और वह भौंचक उस्ताद जी को देखता रहा मानो अब मन ही मन पूछ रहा हो- ‘यह सब कैसे हुआ उस्ताद जी।’

१ नवंबर २०१५

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